Newslaundry Hindi
विराट कोहली की खेल भावना में छिपे सबक
आख़िर हुआ क्या था? पवेलियन में विराट कोहली और महेंद्र सिंह धोनी बल्ला हिला–हिला के आज़मा रहे थे. सुनने की कोशिश कर रहे थे कि वह रहस्यमय आवाज़ आख़िर आयी कहां से. इस रविवार 16 जून को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ विश्व कप 2019 के मुकाबले में 77 रन बनाने के बाद एक बाउंसर को डीप-फाइन-लेग पर उड़ाने के फेर में कोहली आउट होकर पवेलियन लौट आये थे.
किंतु टी.वी. पर रीप्ले में साफ़ दिख रहा था कि गेंद कोहली के बल्ले के बगल से जब निकली, तब वह उससे पर्याप्त दूरी पर थी. टी.वी. पर देखने के बाद कोहली और धोनी को बल्ले के हत्थे पर शक हुआ होगा, कि कहीं वह ढीला तो नहीं पड़ गया. ढीले हत्थे से शॉट खेलते समय ऐसी आवाज़ निकल सकती है जिससे यह भ्रम हो कि बल्ले से गेंद टकरायी है.
जब कैच की अपील हुई, तब कोहली ने अंपायर के निर्णय की प्रतीक्षा नहीं की. बस, पवेलियन लौटते-लौटते गर्दन घुमा के अंपायर की ओर देखा. वे अपना सिर हिला के कोहली के निर्णय को सही ठहरा रहे थे, लेकिन अंपायर को अपनी उंगली उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ी. खेल–कूद में ऐसे क्षण कम ही आते हैं.
आजकल क्रिकेट में कोई भी बल्लेबाज गेंद पर बल्ले का बारीक किनारा लगने पर खुद पवेलियन नहीं लौटने का निर्णय नहीं लेता है. पहले कई बल्लेबाजों की यही रस्म हुआ करती थी कि अगर उसे यह आभास हो जाये कि उसने गेंद को हल्के से भी बल्ले या दस्ताने से छुआ है, तो वह अंपायर के निर्णय का इंतज़ार नहीं करेगा. खुद पवेलियन लौट जायेगा क्योंकि खेल खेलने की भावना यही है. जब ऐसी मान्यताएं चलती थी तब क्रिकेट भद्र लोगों का खेल कहा जाता था. आज खेल पर बाज़ारू बाज़ारवाद हावी है.
पवेलियन लौटे भी कौन? विराट कोहली! वही कोहली जो प्रतिद्वंदिता की तैश में बौराये दिखते हैं. वही कोहली जिनके लिए किसी भी प्रतियोगी के साथ गाली–गलौज करना आम बात रही है. वही कोहली जिनकी आक्रामकता भारतीय क्रिकेट में एकदम नयी है. कुछ समय पहले जब एक खेल समर्थक ने कोहली की आलोचना की, तो भारतीय कप्तान ने उसे देश छोड़ के चले जाने के लिए कहा.
इस विश्व कप में कोहली का एक अलग रूप, एक विराट रूप निखर के आ रहा है. दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज़ कागीसो रबाडा ने उन्हें हाल में ‘अपरिपक्व’ (“इमेच्योर”) कहा. अपेक्षा तो यही थी कि कोहली ईंट का जवाब पत्थर से देंगे. किंतु जब पत्रकारों ने दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध होने वाले मुकाबले के पहले उनसे प्रेस वार्त्ता में रबाडा के कथन पर प्रतिक्रिया मांगी, तो कोहली ने रबाडा की शालीन शब्दों में तारीफ़ की. यह भी कहा कि वे एक व्यक्तिगत मामले को तूल देने के लिए मीडिया का उपयोग नहीं करेंगे.
फिर जब ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ भारत का मुकाबला चल रहा था, तब बाउंड्री के पास बैठे भारतीय समर्थकों ने कुछ अभद्र व्यवहार किया. वहां ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान स्टीव स्मिथ खड़े थे, जो खेल में धोखेबाज़ी के लिए एक साल का प्रतिबंध काट के हाल ही में लौटे हैं. भारतीय प्रशंसक उन्हें उलाहना दे रहे थे, उनका अपमान कर रहे थे, उन्हें दुत्कार रहे थे.
कोहली ने उन समर्थकों के पास जा के उन्हें ऐसा करने से मना किया, उनसे कहा कि वे स्मिथ के लिए ताली बजाएं. फिर वापस आ के उन्होंने दर्शकों के व्यवहार के लिए स्मिथ से क्षमा भी मांगी. मैच के बाद उनसे पत्रकारों ने पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. कोहली ने जवाब दिया कि स्मिथ अपनी टीम के लिए जी–जान से खेल रहे हैं. कि उन्होंने जो गलती की उसकी पूरी सज़ा वे भुगत चुके हैं. इसके बाद उन्होंने कहा कि वे कल्पना कर सकते हैं कि उनसे भी कुछ ऐसी भूल हो सकती है, जिसकी सज़ा चुकाने के बाद भी उनके साथ अगर दुर्व्यवहार हो, तो उन्हें ख़राब लगेगा.
ऐसी विराट परिवक्वता कोहली में पहले नहीं दिखी है. अटकलें लगाने वाले शायद कहें कि यह धोनी की शांत प्रवृत्ति का असर है, कि संगत के असर में कोहली में शीतलता आ गयी है. या शायद कुछ दूसरे लोग कहें कि इस नयी कोमलता का श्रेय कोहली की पत्नी अनुष्का शर्मा को जाना चाहिए कि शादी रचाने के बाद व्यक्ति में एक तरह की संपूर्णता आ जाती है. अगर ये बातें सही होतीं, तो ऐसा असर दूसरे खिलाड़ियों पर भी दिखता. कोहली पहले तो नहीं हैं जो किसी धोनी-से शांत चित्त कप्तान के बाद आये हों. न ही वे पहले हैं जिन्होंने कप्तानी मिलने के बाद शादी रचायी हो. नहीं, ऐसा बदलाव बहुत कम खिलाड़ियों में दिखलाई पड़ता है.
संभवतः यह खेल–कूद और प्रतियोगिता में गहरे डूबने का असर है. जिस खिलाड़ी को कमर कस के जूझना आता है, अपने भीतर के हर अंश को खेल की बाज़ीगरी में झोंकना आता है, उसी को हार-जीत क्या होती यह सही में महसूस हो सकता है. इसे बड़प्पन कहते हैं. इसी के सहारे हम अपना–अपना छुटभइय्यापन छोड़ के अपने आप से बड़े बन पाते हैं. कलिंग से युद्ध जीतने के बाद सम्राट अशोक को यही आभास हुआ था.
आज हमारे समाज में इसके उदाहरण कम होते जा रहे हैं. खासकर सोशल मीडिया पर जिस अभद्रता और अहंकार से बातचीत होती है, उससे लगता है कि हमारे देश में कोई आध्यात्म, कोई सामाजिक संस्कार कभी रहा ही नहीं है. मनोविज्ञान में इसका एक अंग्रेज़ी नाम है, ‘ऑनलाइन डिसइनहिबिशन इफेक्ट’. यानी जब दूर बैठे हुए लोगों से हम बिजली के यंत्रों के सहारे ही बात करते हैं, तब हममें सहज संवेदना चली जाती है. किसी को दुख पहुंचाने से जो खुद को दुख पहुंचता है, उसका आभास नहीं होता.
अगर हम किसी के शरीर पर हमला करें, तो हमें खून दिखायी देता है. उससे यह याद आता है कि वैसा ही खून हमारी रगों में भी दौड़ रहा है. अगर हम किसी का अपमान करें, तो उसके चेहरे की मायूसी हमें भी दिखती है. फिर भी अगर हम सामने वाले को शारीरिक या मानसिक चोट पहुंचाएं, तो हमें अपने भीतर की संवेदना को मारना पड़ता है. खुद अपने आप का एक हिस्सा मारे बगैर हम किसी दूसरे पर वार नहीं कर सकते हैं. हमें दूसरे व्यक्ति में अपने आप का सामना तो करना ही पड़ता है.
लेकिन ‘सोशल मीडिया’ की दुनिया में ऐसा नहीं है. आप छिप–छिपा के किसी को गाली दे सकते हैं, उसे भला–बुरा कह सकते हैं. उसका जो भी असर होता है, उसका सामना नहीं करना पड़ता. किसी और को हमने कितना दुख पहुंचाया, इसका आभास नहीं होता.
ऐसा करने से किसी कायर व्यक्ति में भी एक झूठी वीरता आ जाती है. किसी को चोट पहुंचाने में खुद को कोई दर्द नहीं होता. इससे अच्छे–बुरे का अंतर चला जाता है, आलोचना और अपमान का भेद भी भुलाया जा सकता है. यह झूठी वीरता हमारे समाज के एक हिस्से को आज अंधा बना रही है. किसी दूसरे व्यक्ति को अपमानित करने के लिए, उसे उलाहना देने के लिए, उसे दुत्कारने के लिए उसका सामना नहीं करना पड़ता. बस, फोन पर उंगली घुमा के दूर से अपने आप को सही और अपने से अलग मत रखने वाले गलत ठहराना आसान हो जाता है.
रविवार 16 जून को कोहली ने अंपायर की उंगली उठने का इंतज़ार नहीं किया. मुकाबला पाकिस्तान से था. विश्व कप में था. सामने गेंदबाज़ मोहम्मद आमिर थे, जो खुद मैच–फिक्सिंग करने की सज़ा में प्रतिबंध भोग चुके हैं. यही नहीं, आमिर ने कोहली को कई बार आउट किया है. कोहली के पास आमिर से हिसाब चुकता करने के कई कारण हैं.
कोहली ने हिसाब नहीं किया. चाहे बल्ले के ढीले हत्थे से ही आयी हो, किंतु उनके कान में एक रहस्यमय आवाज़ पड़ी. कोहली ने उस आवाज़ को सुन लिया. यह रहस्यमय आवाज़ हम सबके भीतर से आती है, लेकिन हम सब उसे सुन नहीं पाते हैं. ऐसा क्यों?
शायद इसलिए क्योंकि किसी प्रतियोगिता में हमने अपना सर्वस्व झोंका नहीं होता. न सच्ची जीत देखी होती है, न सच्ची हार महसूस की होती है. बस मीडिया पर, सोशल मीडिया पर उसके बारे में पढ़ा होता है, उस पर अपनी प्रतिक्रिया दी होती है. शायद गालियां भी, अपमानजनक शब्द भी, परिहास भी. लेकिन भीतर तक उस खेल का, उस हार–जीत का अहसास नहीं जाता क्योंकि वह अनुभूतियां जीवन से आती हैं, मीडिया से नहीं. वही अनुभूतियां हमें भीतर से बदलती भी हैं, बड़ा करती हैं, परिपक्व करती हैं.
कोहली में कुछ वैसा ही बदलाव दिखा. पवेलियन लौटने के उस एक क्षण में कोहली किसी एक क्रिकेट टीम के नहीं, हर खेल–प्रेमी के मन के कप्तान बन गये थे. चाहे एक क्षण के लिए ही सही.
(यह लेख सोपान जोशी के ब्लॉग मनसंपर्क से साभार प्रकाशित है)
Also Read
-
‘Jailing farmers doesn’t help anyone’: After floods wrecked harvest, Punjab stares at the parali puzzle
-
TMR 2025: The intersection of art and activism
-
Billboards in Goa, jingles on Delhi FMs, WhatsApp pings: It’s Dhami outdoors and online
-
Complaint ‘without consent’, cops on TISS campus ‘after tweet’: Inside the crackdown over Saibaba event
-
बारामासा पर हमला: विज्ञापन बंदरबांट स्टोरी का नतीजा, एबीपी न्यूज़ का कॉपीराइट स्ट्राइक और एआई वीडियो से चरित्र हनन