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गुलाब कोठारी का स्तुत्य संकल्प या पत्रकारिता की क़ुरानख्वानी

”कल टीवी पर आपका वक्तव्य सुनकर लगा कि इस बार के जनादेश ने आपका हृदय रूपांतरित कर दिया है और आप राजनीति के समुद्र को क्षीरसागर की तरह देखने लगे हैं. कल आप ‘नमो’ नहीं ‘नम:’ लग रहे थे.” लोकसभा चुनाव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी की प्रचंड जीत के बाद ‘राजस्थान पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक और मालिक गुलाब कोठारी ने नरेन्द्र मोदी के नाम ‘स्तुत्य संकल्प’ शीर्षक से एक संपादकीय लिखा और उपर्युक्त पंक्तियां उसी अतिशयोक्तिपूर्ण और भक्तिमय संपादकीय की भूमिका बांधती हैं.

बीते दो-तीन वर्षों से लेकर कुछ दिनों पहले तक पत्रिका में प्रकाशित उनकी संपादकीय देखें तो बात बिल्कुल उल्टी नज़र आती है और यह साफ होता है कि मोदी की जीत ने कोठारी का हृदय रूपांतरण कर दिया है. इसकी झलक तब और साफ होती है जब उन्हें मोदी की वाणी में यकायक सरदार पटेल और महात्मा गांधी से लेकर विवेकानंद साथ-साथ दिखायी देने लगते हैं. हालांकि, बात को अधिक न खींचते हुए वे तुरंत मुद्दे पर आ जाते हैं और नरेंद्र मोदी को भाई संबोधित करते हुए कहते हैं कि राजस्थान पत्रिका का मूल क्षेत्र राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़ पूर्ण रूप से आपकी भावी योजनाओं के साथ समर्पित है. इसके बाद वे अपने आप को पूर्ण रूप से मोदी के प्रति समर्पित करते जाते हैं.

यदि आम पाठकों के एक धड़े को गुलाब कोठारी के इस ‘स्तुत्य संकल्प’ में कुछ भी असामान्य और अनैतिक नहीं लगता है तो इसके पीछे एक वजह यह हो सकती है कि उनके मन में यह बात घर कर गयी हो कि पूरे का पूरा मीडिया ऐसा ही है- या तो यह बिका हुआ है या फिर डरा हुआ. और इस दृष्टि से मीडिया की विश्वसनीयता पर खड़ा हुआ संदेह ही उसका सबसे बड़ा संकट है. मीडिया की इसी साख और विश्वसनीयता को आधार मानते हुए पत्रिका की रीति-नीति और इसके मालिकों की कुछ चर्चित टिप्पणियों पर ध्यान दिया जाये तो राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित यह ‘स्तुत्य संकल्प’ अख़बार की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उनकी पलटीमार रणनीति को स्पष्ट करता है.

बात शुरू करने से पहले यह जान लें कि उन्होंने सरकार की स्तुति में जो घोषणा की है, वैसी स्पष्ट घोषणा किसी भी अन्य समाचार-पत्र के प्रधान-संपादक और मालिक ने न पहले कभी की थी, न अभी की है. यहां तक कि ‘रिपब्लिक टीवी’, ‘ज़ी न्यूज़’, ‘इंडिया टीवी’ से लेकर ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ जैसे उन मीडिया संस्थानों ने भी नहीं, जो चुनाव के दौरान परोक्ष-अपरोक्ष तरीके से भाजपा और मोदी के प्रचार-प्रसार का ज़रिया बने हुए थे. उन पर ‘गोदी मीडिया’ होने के आरोप लगते रहे. इस प्रचंड जीत के बाद भी कथित भाजपा समर्थक मीडिया संस्थानों ने अपने संस्थान के संकल्प को मोदी सरकार की रीतियो-नीतियों से जोड़ देने की घोषणा कभी नहीं की. लेकिन, लगातार दूसरी बार नरेंद्र मोदी के बहुमत हासिल करने के उपलक्ष्य में पत्रिका के प्रधान संपादक ने जिस तरह से स्वयं को प्रस्तुत किया है, उससे ज़ाहिर है कि वे मोदी सरकार की निगाहों में उस स्तर तक चढ़ जाना चाहते हैं, जहां से उन्हें नज़रअंदाज करना मुश्किल हो जाये.

ज़्यादातर लोग एक बड़े मीडिया घराने के इस ‘स्तुत्य संकल्प’ को सरकार के सामने घुटने टेकने की आधिकारिक घोषणा के रूप में देखते हैं. वजह, समालोचनात्मक दृष्टि से अपने आसपास की चीजों पर नज़र रखने की मूल जिम्मेदारी को नज़रअंदाज करना है. कोई मीडिया संस्थान यदि सार्वजनिक तौर पर सरकार का पक्षधर होने की घोषणा करता है तो वह गजट भले ही कहलाये, प्रेस होने का नैतिक अधिकार खो देता है. यदि समाचार-पत्र का स्वामी ही सरकार की भावी योजनाओं के प्रचार का बीड़ा उठाने की लिखित पहल करें, तो संस्थान के कर्मचारी-पत्रकारों तक परोक्ष रूप से यह संदेश जायेगा ही कि सरकारी विज्ञापन और कारोबारी मज़बूरियों को देखते हुए सरकार की भक्ति और भावी योजनाओं को प्राथमिकता देनी है. दूसरे शब्दों में, यह स्पष्ट है कि इंवेस्टीगेशन के नाम पर उन्हें कीबोर्ड की बजाय ‘सरकार’ का घंटा बजाना है और उनकी भक्ति में आरती उतारनी है.

इसके अलावा, एक दूसरा संदेश उन छोटे मीडिया समूहों तक पहुंचता है कि इतना बड़ा मीडिया घराना जब समर्पण कर चुका है तो आपकी तो बिसात ही क्या!

गुलाब कोठारी के ‘स्तुत्य संकल्प’ को अवसरवादिता की दृष्टि से इसलिए भी देखा जाना चाहिए कि कोई डेढ़ वर्ष पहले उन्होंने ‘उखाड़ फेकेगी जनता’ शीर्षक से प्रकाशित अपनी संपादकीय में तत्कालीन भाजपा की वसुंधरा सरकार के ख़िलाफ़ आधिकारिक मोर्चा खोल दिया था. तब उन्होंने समाचार-पत्र के माध्यम से आपराधिक कानून में संशोधन से संबंधित अध्यादेश विधानसभा में प्रस्तुत करने के राज्य सरकार के निर्णय पर तल्ख आपत्ति जतायी थी. तब कुछेक बुद्धिजीवियों को लगा कि यह समाचार-पत्र आम पाठकों के सरोकारों से जुड़ा है. लेकिन, कुछ दिनों बाद यह साफ़ होता गया कि यह संपादकीय तत्कालीन सरकार द्वारा विज्ञापन पर लगायी अघोषित रोक से फूटा गुस्सा भर था.

छत्तीसगढ़ के उदाहरण से समझें तो बताते हैं कि राज्य में यह समाचार-पत्र शुरू हुआ, तो अपने मन-मुताबिक विज्ञापन न मिलने के कारण तत्कालीन रमन सिंह सरकार से इसकी इस सीमा तक ठन गयी कि इसने ख़बरों के माध्यम से सरकार के ख़िलाफ़ एक लंबा अभियान चला दिया. तब लगा कि मुख्यधारा की मीडिया में यही बड़ा अकेला संस्थान है, जिसकी रीढ़ सीधी है. लेकिन, कुछ वर्षों के संघर्ष के बाद जब मनचाहे विज्ञापन मिलने लगे, तो अख़बार ने सरकार के प्रति नम्र रवैया अख्तियार कर लिया. रायपुर ब्यूरो से ऐसे तमाम पत्रकारों की छुट्टी कर दी गयी, जो सरकार विरोधी रुख़ रखते थे. संस्थान के संरक्षण में सरकार से लोहा लेने वाले पत्रकारों को इसकी कीमत या तो नौकरी से हाथ धोकर या फिर दूर-दराज़ के क्षेत्रों में स्थानांतरण के आदेश से चुकानी पड़ी.

कहने का अर्थ यह है कि मीडिया क्षेत्र के कई संस्थानों द्वारा विशुद्ध आर्थिक गतिविधियों से संचालित होना और बात है. लेकिन, इसके बावजूद यदि कोई समाचार-पत्र समूह निष्पक्षता और नैतिक मूल्यों का ढोल पीटकर प्रवचन बांचता रहे तो अपच की स्थिति बन जाती है.

इसी तरह, मध्य-प्रदेश के किसान आंदोलन सहित कई प्रकरण हैं जब समाचार-पत्र ने समाचारों की सीमा से बाहर जाकर जनता का प्रतिनिधि बनने का साहस दिखाया. यहां प्रश्न है कि जब तीनों राज्यों (जिनका ज़िक्र गुलाब कोठारी ने अपने संपादकीय में किया) की जनता को चुनाव के ज़रिये अपना लोकतांत्रिक विकल्प चुनने की आज़ादी है तो आप किस हैसियत से जनता के ठेकेदार बनने का दावा करते हैं और इशारों ही इशारों में सरकार के सामने जनमत को प्रभावित करने का प्रस्ताव रखते हैं?

दरअसल, लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद कुछ मीडिया संस्थान जनादेश की आड़ में व्यावसायिक हितों को साधने के लिए सत्ता तक अपनी-अपनी तरह से संदेश पहुंचा रहे हैं. इसके मायने यह भी हैं कि अब हमारा मीडिया बिना शर्म और संकोच के कॉरपोरेट युग में प्रवेश कर चुका है. जो मीडिया संस्थान अपने को विशुद्ध कॉरपोरेट कहलाना पंसद नहीं करता था, वही अब ख़ुद को बगैर किसी दबाव के कॉरपोरेट लाइजनर के रूप में प्रस्तुत कर रहा है. इसके लिए उसे यही समय सबसे अधिक अनुकूल लग रहा है, जिसमें वह अपनी पुरानी ‘गलतियों’ को भुलाने और नये सिरे से अपने समाचार-पत्र की ब्राडिंग करने को तैयार है.

आने वाले समय में हम इस प्रवृत्ति को और संगठित रूप में देखेंगे कि प्रिंट मीडिया में किस पार्टी के विज्ञापनों की संख्या कितनी है, सरकार के विज्ञापनों की संख्या कितनी है. उस अनुपात में सरकार के मुखिया ने कितनी जगह घेरी है, इससे अलग जनसरोकार और विपक्षी दलों के मुद्दों को कितनी और किस प्रकार से तवज्जो दी गयी है.

इस तरह, बगैर किसी लोकलाज के मुद्दों की जगह एजेंडा होगा, विचार और मत की जगह सत्ता का प्रचार और प्रसार होगा. सत्ता के झुकाव में समाचारों का प्रकाशन ही यदि पत्रकारिता होगी तो शर्तियां समाचार-पत्र पहले ही दिन प्रकाशित होकर रद्दी बन जायेगा.

और अंत में, चुनाव अभियान में हमने देखा कि किस तरह से मुख्यधारा के मीडिया ने एक प्रधानमंत्री के साक्षात्कार, भाषण और धार्मिक यात्रा की कवरेज पर पूरी शक्ति झोंक दी थी और दूसरी ओर विपक्षी दलों सहित जनता के मुद्दे हवा रहे. ठीक इसी अंदाज़ में, यदि मुख्यधारा के सभी बड़े समाचार-पत्र घोषित और अघोषित तौर पर मोदी के संकल्प के साथ सहभागी बन गये तो प्रश्न है कि समाचार, प्रचार और प्रोपेगेंडा के बीच जो अंतर होता है, उस अंतर को बने रहने से कौन रोक सकेगा? प्रश्न है कि हर समाचार-पत्र सिर्फ नमो नम: करेगा तो आख़िरी पंक्ति में बैठी जनता की कराह कौन सुनेगा? गुलाब कोठारी तो नहीं सुनेंगे…