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क्या आपको पता है कि आपके ‘गुप्त’ मतदान पर किसी की नज़र है?
क्या चुनाव आयोग असल मुद्दे से भटक रहा है? या वह सत्ता के कारनामों में इस हद तक मौन भागीदार हो गया है कि उसका ध्यान उन मुद्दों की तरफ़ भी नहीं जाता, जो उसकी साख पर बट्टा लगाते रहते हैं? बीते दिनों चुनाव आयोग ने अलग-अलग निलंबन के आदेशों में अपने समर्थकों के बीच बेहद लोकप्रिय देश के 4 राजनेताओं राजनेताओं- योगी आदित्यनाथ, मायावती, आज़म ख़ान और मेनका गांधी के चुनाव अभियान में शामिल होने पर 48 से 72 घंटे के लिए प्रतिबंध लगा दिया. भड़काऊ बयान देने, फूहड़ सेक्सिस्ट टिप्पणियां करने व मतदाताओं से धर्म के नाम पर वोट देने जैसी अपील करने की वजह से इन सभी के जनसभाएं करने, रैलियों को संबोधित करने और मीडिया से मुख़ातिब होने पर रोक लगा दी गयी.
हालांकि, इस मामले में जो बात मेनका गांधी को कटघरे में खड़ा करती है, वह उनके द्वारा मतदाताओं को धमकी भरे लहज़े में दी गयी चेतावनी है, जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के अपने संसदीय क्षेत्र सुल्तानपुर में तूराबखानी बस्ती के मुसलमान मतदाताओं को दी थी. उन्होंने चेताया कि किस बूथ में उन्हें कितना वोट मिला है, उन्हें इसका पता चल जायेगा. मेनका ने कहा- “चुनाव में बूथ से सौ-पचास वोट ही मिलता है और फिर आप काम लेकर मेरे पास आते हैं, तो फिर हम भी उसी तरह देखेंगे… इसलिए सबकुछ आप पर ही है.” मुस्लिम मतदाताओं को संबोधित करते हुए दिये गये उनके बयान, मतदान से जुड़ी जानकारी हासिल करने और बदले में उसका इस्तेमाल करने की धमकी की बाबत चुनाव आयोग ने उन्हें फटकार भी लगायी है.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, मेनका कहती हैं कि अपने पक्ष में दिये गये वोटों के अनुपात के आधार पर गांवों का वर्गीकरण करने के लिए ‘एबीसीडी फ़ॉर्मूले’ का प्रयोग किया जायेगा. इसके तहत, जिस गांव से 80 फ़ीसदी से अधिक वोट मिलेगा उसे ‘ए’ सर्टिफिकेट, 60 फ़ीसदी या उससे अधिक वोट देने वाले गांवों को ‘बी’ व इससे कम वालों को ‘सी’ सर्टिफिकेट दिया जायेगा और हासिल वोट प्रतिशत के आधार पर वरीयता देते हुए गांवों के विकास के लिए कल्याणकारी योजनायें चलायी जायेंगी. प्रतिबंध के ठीक पहले सुल्तानपुर के इस्सौली में दिये गये उनके बयान व मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ मेनका ने कहा है कि जो लोग चुनाव में उनके साथ नहीं खड़े होंगे, उन्हें योजनाओं का लाभ तभी मिलेगा जब मेनका के क़रीबी उससे लाभांवित हो चुके होंगे.
यह पहली बार नहीं है, जब भाजपा के किसी बड़े नेता ने मतदान के आंकड़ों के इस्तेमाल के नाम पर मतदाताओं को धमकाया हो. अक्सर विवादों में रहने वाले बंगलौर दक्षिण से भाजपा उम्मीदवार तेजस्वी सूर्या ने जून 2018 में जयनगर के एक वार्ड में बूथ-परिणामों का पर्चा लहराया था, जहां विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को शिकस्त दी थी. उस वक़्त ट्विटर पर ट्वीट्स की झड़ी लगाते हुए उन्होंने कहा था- “जयनगर के मुस्लिम इलाकों में डाले गये कुल मतों का 90 फ़ीसदी कांग्रेस की झोली में गया, वहीं हिंदू बाहुल्य इलाकों की सूरत ये रही कि यहां कांग्रेस व भाजपा के बीच मत-विभाजन हो गया. लोकतंत्र में जनसांख्यिकी का अपना महत्व है. हम हिंदुओं को इतनी सामान्य-सी बात कब समझ आयेगी? हिंदुओं की पूर्ण एकजुटता ही अब एकमात्र चारा है.”
एक अन्य ट्वीट में वे कहते हैं- “आज मुस्लिम बहुल वार्ड के रुझान ने जयनगर चुनावों के समीकरण को पूरी तरह बदलकर रख दिया है. हिंदू मतदाताओं की बेपरवाही और 6 वार्डों में उनके संगठित न होने की वजह से सत्ता की चाभी कांग्रेस की सौम्या रेड्डी के हाथों में चली गयी है.”
यह विडंबना ही है कि चुनाव आयोग को इसमें कुछ भी अनैतिक या अनुचित नहीं नज़र आता कि राजनेता बूथ-दर-बूथ परिणामों को दिखाते हुए खुलेआम यह घोषणा कर रहे हैं कि चुनाव में जहां लोग उन्हें वोट नहीं देंगे वहां की जनता को स्कूल, अस्पतालों की सहज उपलब्धता, औद्योगिक विकास से लेकर बिजली-पानी की आपूर्ति, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से निज़ात दिलाने जैसी तमाम कल्याणकारी विकास परियोजनाओं से महरूम रखा जायेगा. तेजस्वी सूर्या की ही राह पर चल रहे अन्य नेताओं ने खुलेआम बूथ-दर-बूथ परिणामों के पर्चे लहराते हुए यह दिखाने का प्रयास किया है कि किस तरह ये परिणाम धार्मिक जनसांख्यिकी के आधार पर वोटिंग पैटर्न के बारे में बताते हैं और इसी वजह से ख़ुद को हिंदुओं का सच्चा हितैषी व प्रतिनिधि मानते हुए तेजस्वी न केवल मुस्लिम समुदाय को खलनायक बनाकर पेश करते हैं, बल्कि यह भी कहते हैं कि संगठित हिंदू ही भाजपा को सफलता दिला सकते हैं.
यहां फिर सवाल ये उठता है कि राजनीतिक दलों को अलग-अलग बूथों के चुनाव परिणाम कैसे हासिल हो जाते हैं? चाहे यह न्यायसंगत ही क्यों न हो, पर क्या बूथ-दर-बूथ परिणामों की सहज उपलब्धता 1951 में अस्तित्व में आये जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के उस मूल्य के ख़िलाफ़ नहीं जाती, जिसमें मतदान को गुप्त रखने का वायदा किया गया है? या चुनाव में आम आदमी के मत-रुझान गुप्त न रह जाने के पीछे ईवीएम मशीनें ज़िम्मेदार हैं?
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं:
“चुनाव आयोग के फॉर्म संख्या 20 की मदद से आप देश भर के सभी 10 लाख से ज़्यादा चुनाव बूथों में से किसी भी बूथ से जुड़े आंकड़े आसानी से हासिल कर सकते हैं. इसमें हर उम्मीदवार का नाम दर्ज़ होता है, साथ ही किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले व कितनी ईवीएम मशीनें इस्तेमाल हुईं, इस बात की भी तस्दीक की जा सकती है. चुनाव के बूथ-दर-बूथ आंकड़े 2009 के लोकसभा चुनावों से उपलब्ध होने लगे हैं, जब पहली बार चुनाव में देश भर में ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल किया जाने लगा. हालांकि, चुनाव आयोग के पास 2003 के चुनावों से संबंधित आंकड़े भी हैं, जब अलग-अलग चरणों में कुछ बार इनका इस्तेमाल मिज़ोरम, त्रिपुरा व पुडुचेरी जैसी जगहों पर हुआ था.”
साल 2009 के पहले जब मतदाताओं द्वारा बैलट पेपरों का इस्तेमाल किया जाता था, तब चुनाव आयोग के सामने मतगणना से पहले किसी संसदीय क्षेत्र के अलग-अलग इलाकों में बैलट बॉक्सों के मतगणना के पहले मिला देने की ज़िम्मेदारी होती थी. इसके पीछे उद्देश्य था कि मतदान गुप्त बना रहे, बूथ कैप्चरिंग जैसी किसी भी तरह की धांधली को रोका जाये व बूथ के इलाके के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. हालांकि, जबसे ईवीएम मशीनों का प्रयोग होने लगा है, चीज़ें काफ़ी बदली हैं.
क्या फॉर्म संख्या 20 ‘गुप्त मतदान’ के मूल्यों के ख़िलाफ़ जाता है? इसके जवाब में गोपालस्वामी कहते हैं- “तकनीकी रूप से ऐसा नहीं है, क्योंकि इससे मतदाता विशेष के चयन का पता नहीं चलता, बल्कि इससे किसी बूथ के कुल मतदाताओं के अलग-अलग समूहों के सामूहिक रुझान के बारे में जानकारी मिलती है.” पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी इस बात से सहमति जताते हैं कि भले ही इसमें कुछ ग़ैरकानूनी नहीं है, लेकिन इससे सही संकेत नहीं जाते.
आख़िर चुनाव आयोग राजनैतिक दलों व सरकारों को लोगों के मतदान से संबंधित गुप्त आंकड़े हथियाने, उनकी पसंद-नापसंद जानने और चुनाव में उनके चयन के बारे में जानकारी हासिल करने की अनुमति कैसे दे सकता है? क्या लोगों को इस बात की जानकारी होती है कि उनकी निजता का हनन हुआ है और उनका मतदान अब गुप्त नहीं रहा? क्या उन्हें यह मालूम है कि राजनीतिक दल व राजनेता बूथ परिणामों का इस्तेमाल उन्हें धमकाकर अपने पाले में लाने के लिए कर रहे हैं? क्या मतदान वरीयताओं को गुप्त रखने व इसे राजनीतिक पहुंच से दूर रखने के लिए कोई हल तलाशा जा सकता है?
चुनाव आयोग के कानूनी सलाहकार एस के मेंदिरत्ता का इस बाबत कहना है कि सरकार को नियम-कायदों में बदलाव के सुझाव 2011 से ही दिये जा रहे हैं, लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया. वो आगे कहते हैं- “चुनाव आयोग की तकनीकी सलाहकार समिति ने तमाम उपाय सुझाये हैं, जिसमें सबसे प्रभावी टोटलाइज़र मशीनों का इस्तेमाल किया जाना है. लेकिन किसी भी सरकार ने इस सिलसिले में ज़रूरी क़दम नहीं उठाये हैं, अभी भी इस बाबत कानूनों में संशोधन की आवश्यकता है.”
बैलट पेपरों की तरह ही ईवीएम मशीनों के मामले में टोटलाइज़र मशीनों का इस्तेमाल तकरीबन 14 ईवीएम मशीनों के कुल मतों का मिलान कर गणना करने में किया जाता है, जिसे क्लस्टर काउंटिंग भी कहते हैं, ताकि बूथ-दर-बूथ मतदान वरीयताओं को गुप्त रखा जा सके. लेकिन इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि राजनीतिक दलों ने इस क़दम का लगातार विरोध ही किया है. सितंबर 2014 में, नरेंद मोदी के सत्ता में आने के ठीक बाद सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फॉर्म संख्या 20 (जिससे बूथ-दर-बूथ परिणामों का पता चलता है) से संबंधित निवेदन पर अनिर्णयात्मक स्थिति में बने रहने के लिए केंद्र सरकार को तलब किया था. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा ने उस वक़्त विजयी उम्मीदवार द्वारा उन लोगों को सताये जाने की आशंका व्यक्त की थी, जिन्होंने उसके पक्ष में मतदान नहीं किया हो. पंजाब के वकील योगेश गुप्ता (जिन्होंने बूथ वाइज़ परिणाम जारी करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी) द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान जजों की बेंच ने महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार द्वारा 2014 में बारामती गांव के निवासियों को दी गयी कथित धमकी का ज़िक्र किया था, जिसमें पवार ने कहा था कि अगर उन्होंने उनकी चचेरी बहन व तत्कालीन एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले के पक्ष में मतदान नहीं किया, तो उनकी पानी की आपूर्ति ठप्प कर दी जायेगी.
बात ज़्यादा पुरानी नहीं है, मार्च 2018 में मोदी सरकार ने यह कहते हुये टोटललाइज़र के इस्तेमाल किये जाने के कोर्ट के सवाल का विरोध किया था कि देश की बड़ी आबादी का इससे कोई लेना-देना नहीं है. चुनाव आयोग द्वारा प्रस्तावित टोटलाइज़र के प्रयोग से जुड़े मामले को देखने के लिए गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में गठित मंत्रियों की टीम इस नतीज़े पर पहुंची- “बूथ-दर-बूथ डाले गये मतों से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक करना अधिक फ़ायदेमंद है, क्योंकि इससे उम्मीदवारों व राजनीतिक दलों को इस बारे में मालूमात हासिल होती है कि किन इलाकों के नतीज़े उनके हक़ में रहे और वो कौन से इलाके हैं जहां उन्हें ज़मीनी तौर पर और बेहतर काम करने की ज़रूरत है.” मंत्रियों की टीम ने इसी क्रम में यह भी कहा कि मीडिया एक्टिविज़्म के इस दौर में बड़े पैमाने पर धमकियों व अत्याचार की उतनी गुंजाइश भी नहीं बचती.
शायद मेनका गांधी की धमकी व तेजस्वी सूर्या जैसों के शोर-शराबे, हो-हल्ले के बाद वह समय आ गया है कि जब बूथ-दर-बूथ परिणाम घोषित करने जैसी अनैतिकता के साथ-साथ राजनेताओं व राजनीतिक दलों के ख़ुफ़िया तौर-तरीकों पर गौर किया जाये, जिसकी मदद से वे ग़लत इरादों के तहत आंकड़ों को सुविधानुसार तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं.
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