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‘संजू’: रणबीर के करियर का टर्निंग पॉइंट साबित होगी
यह शीर्षक एक समीक्षा के अलावा एक तरह का जजमेंट भी हो सकता है. इसकी सकारात्मकता व नकारात्मकता बहुत कुछ तय करती है और मीडिया की कई सुर्खियां कैसे किसी व्यक्ति की ज़िंदगी नियंत्रित रखती हैं यह फ़िल्म में बख़ूबी दिखाया गया है.
इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए मुंबई बम ब्लास्ट से संजय दत्त की ज़िंदगी में आये बदलाव के लिए, पिता-पुत्र के भावनात्मक संबंध के लिए, दोस्ती की भीनी यादों के लिए और किसी ड्रग एडिक्ट की तबाही को समझने के लिए.
फ़िल्म शुरू होती है कोर्ट के इस फैसले के साथ कि ब्लास्ट केस में अगले एक महीने के भीतर संजय को जेल होगी. जब देश अख़बारों के हवाले से संजय को आतंकवादियों का समर्थक मान चुका होता है तो उनकी पत्नी मान्यता उन्हें अपनी किताब लिखकर लोगों को सिक्के का दूसरा पहलू बताने की सलाह देती हैं. पहली किताब आती है जिसे चटपटा बनाकर संजय के सामने रखा जाता है और संजू नकार देते हैं फिर मान्यता उन्हें मशहूर लेखिका विन्नी से मिलने को कहती हैं. विन्नी, जिसने अमिताभ बच्चन सहित कई नामी हस्तियों की जीवनी लिखने के प्रस्ताव को अस्वीकार किया था. विन्नी पहले मना करती है फिर ख़ूब जांचती-परखती है और यहीं से फ़िल्म की कहानी चल पड़ती है.
विन्नी को कोई बात पता चलती है और वो संजू की कहानी लिखने से मना कर देती है. संजू जेल चला जाता है लेकिन फिर कुछ ऐसा होता है कि विन्नी वो कहानी पूरी करती है.
इन दो घटनाओं के बीच फ़िल्म की पूरी कहानी है जिसमें संजय का किरदार निभा रहे रणबीर कपूर ने जान फूंक दी है. एक ग़लत दोस्त संजय को ड्रग एडिक्ट बनाता है और एक सही दोस्त उन्हें रास्ते पर लाता है. फ़िल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जहां आपको संजय दत्त पर तरस आ जाता है. जैसे उनका लगातार कई दिनों तक हॉस्पिटल में अपनी मां के साथ रहना, तब जब वो कोमा में थीं. जब वो अपनी आख़िरी सांसें गिन रही थीं तो संजय से ड्रग की कमी बर्दाश्त नहीं होती और वो ड्रग ले लेते हैं. वो कहते हैं कि मां, नर्गिस दत्त ने उन्हें बुलाया था और उनके सिर पर हाथ फेरा था लेकिन उन्हें यह बताने वाला कोई नहीं है कि यह कोई हकीक़त थी या उनका हैल्यूसिनेशन था.
उनकी पहली फ़िल्म के प्रीमियर के ठीक तीन दिन पहले नर्गिस की मृत्यु हो जाती है और शो में बाप-बेटे बीच की एक सीट छोड़कर बैठते हैं क्योंकि नर्गिस ने कहा था कि संजू की फ़िल्म देखने वो ऐसे ही दोनों का हाथ पकड़कर बैठेंगी. दूसरा भावुक क्षण तब आता है जब संजय दत्त एक समारोह में अपने पिता को शुक्रिया कहने के लिए एक स्पीच लिखकर ले जाते हैं, सुनील दत्त उस समारोह के मुख्य अतिथि होते हैं. संजू उन्हें सरप्राइज़ देना चाहते थे लेकिन उसी दिन अख़बार फिर उन्हें लेकर एक निर्णयात्मक ख़बर प्रकाशित करता है और उन्हें मंच पर नहीं आने दिया जाता.
संजय अपनी मां के क़रीब थे और पिता के अनुशासन के कारण उनसे लगाव होने पर भी उस तरह ज़ाहिर नहीं कर सके थे. पहली बार उन्होंने सुनील दत्त को शुक्रिया कहने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें मौका नहीं मिला. घर आकर पिता को पता चला तो वह प्यार से कहते हैं- मैं सामने बैठा हूं पुत्तर! यहीं सुना दे. संजय उठकर चले जाते हैं और अगली सुबह सुनील दत्त की मृत्यु हो जाती है. संजय वह लिखी हुई स्पीच पिता की जेब में रखकर उनका अंतिम संस्कार करते हैं.
ऐसे ही कई पहलू हैं जहां दर्शक को यह एहसास होता है कि संजय ने क्या झेला है और बेहद ख़ास होने के बावजूद चंद ग़लत साथ और फैसले आपको कहां पहुंचाकर छोड़ते हैं.
फ़िल्म में संजय दत्त की कहानी है. एक ऐसी कहानी जहां संजय दत्त वाकई गांधी की तरह सौ ग़लत काम करने के बाद उसे स्वीकारने का माद्दा रखते हैं. उन्होंने तमाम ग़लतियां कीं लेकिन सब कुबूल किया, बिना छिपाये, बिना झूठ बोले. अपने बेस्ट फ़्रेंड के साथ संजय दत्त के कई ख़ास पल हैं जो फ़िल्माए गए हैं.
ट्रैजेडी अगर कॉमेडी बनकर लोगों का मनोरंजन कर जाए तो फ़िल्म एक सफल ड्रामा हो जाती है. फ़िल्म के कई किस्सों में ऐसी ही ट्रैजेडीज़ हैं जो कॉमेडी में तब्दील हो गयीं. जैसे अमेरिका में ड्रग्स के साथ संजय का पकड़ा जाना और कमलेश की दलील, कमलेश की गर्लफ़्रेंड के साथ संजय का सेक्स करना और बहुत कुछ.
बतौर निर्देशक राजू हिरानी को किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं लेकिन एक बार फिर उन्होंने अपना बेहतरीन दिया है जिसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए. स्क्रिप्ट बहुत कसी हुई और मज़बूत है, कहानी का एक सिरा दूसरे के साथ बहुत बारीकी से जुड़ता चला जाता है और हमें एहसास ही नहीं होता.
बॉम्बे वेलवेट और जग्गा जासूस जैसी धाराशायी हुई फ़िल्मों के बाद रणबीर की यह फ़िल्म निश्चय ही उनके करियर में मील का पत्थर साबित होगी. वह पूरी तरह संजय दत्त हो गये हैं. लुक, ड्रेस, आवाज़, बोलने का लहज़ा और सबकुछ उन्होंने संजू से उधार ले लिया है. हर दृश्य के साथ समाहित भावनाएं उनके चेहरे पर जैसे उकेरी गयी हैं, लगता है वो संजय की ज़िंदगी दोबारा जी रहे हैं.
संजय के पिता सुनील दत्त के किरदार में परेश रावल ने फिर से अपने अभिनय का लोहा मनवाया है. सुनील के चरित्र का बहुत ख़ूबसूरत चित्रण किया गया है जहां अपनी शालीनता से परेश अपनी मज़बूती साबित करते हैं. सुनील पहले अनुशासित पिता रहे फिर अच्छे दोस्त भी रहे और उन्होंने बेटे को ख़ुश रखने व सही रास्ते पर चलाने के लिए गीतकारों (जिन्हें वो उस्ताद कहते हैं) के हवाले से जो गांधीगिरी का पाठ पढ़ाया वह हर पिता के लिए प्रेरणादायक है. फ़िल्म में इसका सजीव चित्रण है.
अभिनय की बात करें तो विकी कौशल कहीं से भी रणबीर से कमतर नहीं लगते, कहीं-कहीं वो बाज़ी मारते हुए दिखते हैं. चेहरे पर भोलेपन को सजाये रखना और गुजराती उच्चारण में उनकी पकड़ उन्हें क़ाबिल-ए-तारीफ़ बनाती है. वह ठेठ गुजराती और संजीदा दोस्त की भूमिका में रमे हुए दिखते हैं.
टीना मुनीम, मान्यता दत्त व विन्नी के रूप में क्रमशः सोनम कपूर, दीया मिर्ज़ा व अनुष्का शर्मा ने फ़िल्म को कमज़ोर पड़ने का कोई मौका नहीं दिया; साथ ही अपने छोटे-से किरदारों में बोमन ईरानी व मनीषा कोईराला ने अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज़ की है.
फ़िल्म में गीतों की भरमार नहीं है लेकिन फ़िल्म ख़त्म होते हुए रियल संजय दत्त और रील संजय दत्त जिस गाने पर परफ़ॉर्म करते हैं वह कम से कम मीडिया के लिए सोचनीय है.
निर्णयात्मक ढंग से हेडलाइन बनाना, बिना तह तक गये, ग्राउंड रिपोर्टिंग किये सिर्फ़ सूत्रों के हवाले पत्रकारिता करने जैसी कई मीडिया की ख़ामियां इसमें उकेरी गयी हैं जिनपर ध्यान दिया जाना चाहिए.
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