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वैज्ञानिक तथ्यों के खिलाफ क्यों बयान देते हैं बीजेपी नेता?

भारतीय राजनीति में बेतुके बयानबाजी का चलन कोई नया तो नहीं है, समय-समय पर नेताओं ने अपने बयानों से खुद को भी संकट में डाला है और अपनी पार्टी का भी नुकसान करवाया है. लेकिन 26 मई 2014 के बाद से बीजेपी और संघ के नेताओं की ओर से जो विवादित बयानबाजी का नया दौर शुरू हुआ है वो कई मायनों में उल्लेखनीय है. इन बयानों का मूल चरित्र पहले के राजनीतिक बयानों से अलग हैं और इसके उद्देश्यों में एक निरंतरता है. ये सभी विवादित बयान एक खास विचारधारा को प्रदर्शित करते हैं जो कि स्थापित आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों पर हमला करते हैं. इस कड़ी में ताजा बयान त्रिपुरा के नव-नियुक्त मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब का है जिन्होंने हाल ही में कहा है कि महाभारत काल में भी इंटरनेट और सैटेलाइट की सुविधा उपलब्ध थी.

उनका बयान था कि यह सब मेरे देश में पहली बार नहीं हो रहा है, यह वह देश है, जिसमें महाभारत के दौरान संजय ने हस्तिनापुर में बैठकर धृतराष्ट्र को बताया था कि कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध में क्या हो रहा है, संजय इतनी दूर रहकर आंख से कैसे देख सकते हैं. इसका मतलब है कि उस समय भी तकनीक, इंटरनेट और सैटेलाइट था.

उनके इस बयान के बाद उनकी खूब आलोचना हुई. सोशल मीडिया पर भी लोगों ने उन्हें खूब ट्रोल किया. लेकिन इसके बाद एनडीटीवी को दिए इंटरव्यू में भी वो अपनी बात पर कायम रहते हैं और महाभारत काल में इंटरनेट होने की बात को दोहराते हैं.

बिप्लब देब का संबंध संघ से रहा है. माना जाता है कि कभी संघ के वयोवृद्ध विचारक गोविंदाचार्य उनके राजनीतिक गुरू रहे हैं. इससे पहले राजस्थान के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने इसी साल के जनवरी में एक बयान दिया था कि गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन ने नहीं, ब्रह्मगुप्त द्वितीय ने की थी.

कुछ दिन पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्री सत्यपाल सिंह ने यह दावा कर दिया था कि क्रमिक विकास का चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है. उन्होंने डार्विन के सिद्धांत पर सवाल खड़ा करते हुए पूछा था कि क्या आजतक किसी ने बंदर से इंसान बनते हुए देखा है.

इस साल मार्च के महीने में जब इस दौर के सबसे बड़े वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग की मृत्यु हुई तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने उन्हें कुछ यूं याद किया, “हमने हाल ही में एक प्रख्यात वैज्ञानिक और ब्रह्मांड विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग को खो दिया है जो मानते थे कि वेदों में निहित सूत्र अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत से बेहतर थे.”

संघ से जुड़े राष्ट्रीय मुस्लिम एकता मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष इंद्रेश कुमार ने न्यूज़लॉन्ड्री को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि गाय का दूध अमृत और मांस विषैला होता है और गाय कार्बन डाइ ऑक्साइड की जगह ऑक्सीजन छोड़ती है.

इस तरह की बयानबाजी की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता संभालने के साथ ही की थी. उन्होंने तब एक निजी अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कहा था कि दुनिया में पहली प्लास्टिक सर्जरी गणेश जी की हुई थी. पलास्टिक सर्जरी की मदद से उनके सिर की जगह हाथी का सिर लगाया गया था.

उन्होंने उस वक्त यह भी कहा था कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था. इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था. तभी तो मां की गोद के बिना ही कर्ण का जन्म हुआ होगा.

भारतीय राजनीति के इतिहास में आपको कोई ऐसी कोई सरकार याद आती है जिसके प्रधानमंत्री, मंत्री और नेता इतनी तन्मयता से पूरी निरंतरता के साथ स्थापित वैज्ञानिक तथ्यों को चुनौती देते हो?

वेदों और भारतीय पुरातन परंपराओं में वैज्ञानिक तथ्य खोजने की प्रवृत्ति समाज में आम है. इसे राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ बखूबी समझता है और इस सामाजिक मानसिकता का पर्याप्त भावनात्मक दोहन करता है. संघ के अंदर प्रशिक्षित होने वाले तमाम कैडर भले ही वो पेशे से डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या वैज्ञानिक हो निजी ज़िंदगी में इस तरह की सोच का ही समर्थन करते हैं.

तार्किक और वैज्ञानिक समझ रखने वाले लोग भले ही कितना इन बातों का मजाक उड़ा ले लेकिन बीजेपी और संघ के लोगों को पता है कि उनकी बात से सहमत होने वालों की संख्या भी करोड़ों में है. लगातार इस तरह की बातें करते रहना उनकी रणनीति का एक हिस्सा है ताकि समाज में व्याप्त जो मिथक हैं, उन्हें एक वैधता प्रदान की जा सके.

वो हर वैज्ञानिक खोज का आधार धार्मिक किताबों में ढूंढ़ते हैं ताकि लोगों के दिमाग में गैर तार्किक मिथकों का वर्चस्व बना रहे हैं. द्वितीय विश्व युद्ध में परमाणु बम के इस्तेमाल के बाद विज्ञान का इतना ताकतवर रूप सामने आया कि उसे धार्मिक सत्ताएँ सीधे तौर पर चुनौती देने से कतराने लगी. नहीं तो इससे पहले तक तो गैलिलियो, कोपरनिकस से लेकर डार्विन तक को अपनी वैज्ञानिक खोजों की वजह से धार्मिक सत्ताओं से टकराना पड़ा था.

इसीलिए अब वो विज्ञान को चुनौति देने की बजाए अपनी मान्यताओं का ही वैज्ञानिक आधार ढूंढ़ने लगे हैं. अक्सर लोग गौमूत्र, गोबर और जनेऊ तक में वैज्ञानिक आधार खोजते मिल जाते हैं.

उच्च तकनीकि शिक्षा लिया व्यक्ति भी आपको इस तरह की धार्मिक मान्यताओं की वैज्ञानिक आधार की दुहाई देता मिल जाएगा. समाज के अंदर यही वो सामाजिक-मानसिक आधार है जहां से बीजेपी और संघ को अपनी विचारधारा के लिए उर्वर जमीन मिलती है.

हुआ यह है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तीसरी दुनिया के देशों में विज्ञान की तकनीकि शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर तो जोर दिया गया लेकिन विज्ञान के दार्शनिक पक्ष को लेकर कुछ खास नहीं हुआ. भले ही भारत के संविधान में वैज्ञानिक सोच (Scientific Temper) को विकसित करने की बात मौलिक कर्तव्य के रूप में कही गई हो लेकिन इसे लेकर कोई बहुत रचानात्मक कार्य सरकारी स्तर पर नहीं किए गए.

इससे समाज में वैज्ञानिक सोच का अभाव बना रहा. और अब तो देश में एक ऐसी विचारधारा वाली पार्टी की सरकार है जो खुलेआम संविधान की इस भावना के खिलाफ बयानबाजी कर रही है.

भारत जैसे देश में इस तरह की मानसिकता के प्रति रुझान रखने वाला एक बड़ा सामाजिक समूह हैं जो सभी जात-धर्मों में मौजूद हैं. इसीलिए तो बड़ा सहज है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिजिटल इंडिया से लेकर बुलेट ट्रेन की भी बात करें और महाभारत के जमाने में जेनेटिक साइंस के भी प्रमाण ढूंढ़ निकाले.

और इसीलिए तो बिप्लब देब भी लाख आलोचनाओं के बावजूद भी अपनी बात पर कायम रहते हैं.