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तबस्सुम गुरू होना

ठंड के मौसम में बारिश भरी एक सुबह, उत्तर कश्मीर के बारामुला जाने वाली सड़कें भी भीगी हुई हैं. सड़क के दोनों ओर सूखे सेब के पेड़ आने वाली गर्मियों का इंतजार कर रहे हैं. आजाद गंज, बारामुला के पीछे छोटे-छोटे घर दिख रहे हैं. अंतिम घर, जो बाकी घरों से थोड़ा अलग दिख रहा है, वह यूं ही खड़ा है. एक शांत नहर बगल से गुजर रही है और सुरक्षा बलों का एक बंकर अफजल गुरू के घर पर सख्त निगरानी रखता है.

जैसे ही मैं घर में घुसती हूं, तबस्सुम गुरू, अफ़ज़ल गुरू की पत्नी, चाय बनाने में व्यस्त थीं.

अफ़ज़ल गुरू और तीन अन्य- एसएआर गिलानी, शौक़त हुसैन गुरू और अफशां गुरू (हुसैन की पत्नी) को 2001 में संसद हमले का मास्टरमाइंड होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. मामले की सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने तीन अन्य को बरी कर दिया था, जबकि अफ़ज़ल को तीन मामलों में आजीवन कारावास और दो में फांसी की सजा सुनाई गई.

2005 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अफ़ज़ल के खिलाफ सबूत संयोगवश हैं, “जैसा ज्यादातर षडयंत्रों वाले मुकदमों में होता है, वहां आपराधिक षडयंत्र के कोई भी प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं मिलेंगे.” फैसले में आगे लिखा था, “घटना जिसमें भारी जानमाल का नुकसान हुआ था, देश हिल गया था, समाज की सामूहिक चेतना तभी तृप्त होगी जब आरोपी को फांसी की सजा दी जाएगी.”

12 वर्षों की जेल के बाद, 9 फरवरी, 2013 को अफ़ज़ल को फांसी दे दी गई.

पांच साल बाद

तबस्सुम के पति को फांसी हुए अब पांच साल हो गए हैं. हर साल की तरह, पिछले महीने 9 फरवरी को भी, कश्मीर पूरी तरह से बंद रहा.

अपने पति की तस्वीरों और प्रेम पत्रों के साथ बैठी तबस्सुम, वही शायरी सुनाती हैं जो अफ़ज़ल उन्हें सुनाया करता था-

वो कहते थे- “ख़ाक को जाएंगें हम, तुमको ख़बर होने तक.”

तबस्सुम रुकती हैं, ऊपर देखती हैं और कहती हैं, “और फिर ऐसा ही हुआ.”

तबस्सुम, अफ़ज़ल से दस साल बड़ी हैं. तबस्सुम अफ़ज़ल के चाचा के घर से थीं. बाकी कई कश्मीरी लड़कों की ही तरह, अफ़ज़ल भी आर्म्स ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान गया था. जब वह लौटा, तो उसने तय किया कि वह उग्रवादी नहीं रहेगा. वह दिल्ली गया और वहां से आर्ट्स में मास्टर की डिग्री ली.

90 के दशक के उत्तरार्ध में वह कश्मीर लौटा. अफ़ज़ल की तबस्सुम से ‘पहली मुलाकात’ एक रिश्तेदार की शादी के अवसर पर हुई. अफ़ज़ल गज़ल गा रहा था और मैं बच्चों के साथ खेल रही थी. हमारी शादी के बाद जब भी हम शादी की तस्वीरें देखा करते, वह मुझे चिढ़ाया करता, “कौन है वो लड़की?” हमदोनों उस बात पर बहुत हंसा करते,” उन्होंने कहा.

सत्तरह साल पहले

13 दिसंबर, 2001 को समूचे देश में हडकंप मच गया. फर्जी पास लेकर, पांच लोग भारी-भरकम हथियारों के साथ संसद भवन के अंदर दाखिल हो गए. उनके हमले में कम से कम 12 लोग मारे गए और करीब 22 लोग घायल हो गए. उसी शाम, जैसे सबके रिश्तेदार दिल्ली में होते हैं और वो उनकी खैरियत पूछते हैं, तबस्सुम ने भी अपने पति को फोन किया. “मैं और मेरा बेटा ग़ालिब रमजान के लिए कश्मीर आ गए थे. मैं अफ़ज़ल के बारे में चिंतित थी. उसने मुझे दिल्ली के हालात के बारे में बताया और कहा कि वो जल्द ही कश्मीर लौट आएगा,” तबस्सुम ने कहा.

ग़ालिब के जन्म के बाद से ही तबस्सुम अपने पति की गतिविधियों पर शक़ करने लगी थी. यह स्पष्ट है कि तबस्सुम ने अफ़ज़ल के हमले में संलिप्तता पर उसे कोई छूट नहीं दी. “मैं झूठ नहीं बोलूंगी. मैं शक़ करती थी लेकिन कभी जांच नहीं की, कभी पूछा या रोका भी नहीं,” उन्होंने कहा.

अगर उन्हें मालूम था, तो उन्होंने कभी अफ़ज़ल से प्रश्न क्यों नहीं किया? कभी रोका क्यों नहीं? क्या वो भी उसके कामकाज में सहभागी थी? ऐसा सवाल हर किसी के जेहन में आएगा. अगर खामोशी होने का मतलब है हिस्सेदार होना तो तबस्सुम अफ़ज़ल को हतोत्साहित न करने की दोषी हैं.

जब मैंने उनसे ये पूछा तो उनका जवाब था, “जिस तरह से हम सब पले बढ़े, जो चीजें हम लोगों ने देखी, उनके हिसाब से मैं जानती थी वह ऐसा कुछ कर सकते हैं. उनसे इन सब के बारे में बात करना बेकार था,” उन्होंने कहा, इसके बाद उन्होंने इसका कोई कारण बताने की जरूरत नहीं समझी.

एक लंबी खामोशी के बाद तबस्सुम फिर बोलीं. उन्होंने कहा कि उन्हें कुछ ऐसी सजा मिली होती जो न्यायोचित होती तो कम से कम हमें संतुष्टि होती. “मैं मानती हूं, वह पूरी तरह से मासूम नहीं था, लेकिन क्या वह मौत की सजा का हक़दार था? उन लोगों का क्या जिन्होंने वाकई में लोगों को गोली से मारा? वे खुले घूम रहे हैं?” उन्होंने जोड़ा.

अफ़ज़ल का गुस्सा, तबस्सुम कहती हैं, यह शर्म से पनपा था. शादी के कुछ दिनों बाद, एक घटना घटी. तबस्सुम के मुताबिक इस घटना ने अफ़ज़ल पर गहरा छाप छोड़ा. “हमलोग वापस घर आ रहे थे, जहां शाम को सेना के जवान वर्दी में खेल रहे थे. जब हम वहां से गुजरे तो जवानों ने मुझ पर पत्थर फेंका, तरह-तरह के नाम लिए. अफ़ज़ल ने एक शब्द नहीं कहा और न ही मैं उससे कहने की उम्मीद कर रही थी. जब हमलोग घर आ गए, उसने दर्द की दो गोलियां खाईं.” मैंने उससे कारण पूछा, उसने कहा, “देखो, उसने तुम पर पत्थर फेंका और मैं कुछ कह भी नहीं पाया? कैसा कायर हो गया हूं? कब तक यूं ही खामोश रहूंगा मैं.”

15 दिसंबर, हमले के दो दिन बाद, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने अफ़ज़ल को श्रीनगर से गिरफ्तार किया. तबस्सुम को हिम्मत जुटाकर अफ़ज़ल से पहली बार मिलने में एक वर्ष का वक्त लग गया.

अफ़ज़ल गुरू बदल गया था

“जब मैं कोर्टरूम में पहुंची, मैं अगर कुछ सोच पा रही थी तो वह उसकी दाढ़ी थी. वो चारों तरफ चेन से बंधा मंगल पांडेय फिल्म का आमिर खान लग रहा था,” उन्होंने कहा. पहली मुलाकात में ही, अफ़ज़ल ने तबस्सुम से कहा था कि वह लंबे वक्त तक जेल में रहने वाला है.

अपने पति के बचे-खुचे सामानों में से, तबस्सुम ने फोटो एल्बम से एक पुरानी तस्वीर निकाली. इस तस्वीर में एक व्यक्ति बैकग्राउंड में है. उसके पास मुंछें, साफ रंग का चेहरा, सलीके से कंघी किए बाल हैं. उस तस्वीर के फोकस में है दीवार पर एक ब्लैक एंड व्हाइट पोस्टर. अभिनेत्री मधुबाला का पोस्टर है. “उसे मधुबाला पसंद थी,” मेरे हाथ में वह तस्वीर देती हुई तबस्सुम कहती है.

हममें से बहुतों के ध्यान में अफ़ज़ल का नाम लेते ही एक खूंखार तस्वीर उभरती है. एक छोटे कद का, मजबूत शारीरिक बनावट वाला व्यक्ति, काले शॉल से सिर ढंके हुए, नाकें फूली हुईं, कैमरे से दूर देखते हुए, पुलिस उसे खींचकर ले जाती हुई- यही तस्वीर उभरती है. एक शांत, काली दाढी में कुछ सफेद बाल, और आंकों पर चश्मा एक गुस्सैल देश के लिए यह उपयुक्त तस्वीर थी.

मीडिया ने भी दिन और रात यही चेहरा टीवी स्क्रीन पर दिखाया.

“अस्वीकार्य” आजतक का साक्षात्कार

2001 में अफ़ज़ल ने आजतक संवाददाता शम्स ताहिर को साक्षात्कार दिया था. इस विवादास्पद साक्षात्कार में, अफ़ज़ल ने हमले में अपनी संलिप्तता की बात स्वीकार की थी. बाद में अफ़ज़ल ने अपने ही बयान को खारिज करते हुए कहा कि भारतीय स्पेशल फोर्स ने उस पर (जो भी उसने साक्षात्कार में कहा) ऐसा कहने का दबाव बनाया था. इत्तेफाक से, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस महत्वपूर्ण सबूत को “अस्वीकार्य” बता दिया.

साक्षात्कार की सुबह, अफ़ज़ल ने पत्नी से बात की थी. तबस्सुम ने उसका फोन यह सोचकर उठाया कि शायद वह छूट गया है. मैं मूर्ख थी. मुझे कैसे मालूम होता कि ये सारी चीजें ऐसे काम नहीं करती हैं. उन्होंने कहा.

उस बातचीत को याद करते हुए तबस्सुम कहती हैं कि उस दिन वह थोड़ा अलग और “दूर” जाने का एहसास करा गया. “मैंने उससे पूछा क्या हुआ और उसने जबाव में मुझे शाम को इंटरव्यू देखने को कहा. मैं उत्साहित थी. मैंने उससे पूछा वह घर कब आने वाला है. वह बहुत देर तक खामोश रहा और अंत में उसने कहा, ‘सभी अपने घर चले जाएंगें तबस्सुम, लेकिन मैं नहीं. तुम इंटरव्यू देखना.’ उसने फोन कटने के पहले बस इतना ही कहा,” तबस्सुम ने बताया.

तबस्सुम और कश्मीर

हम जानते हैं अफ़ज़ल भारत के बारे में क्या सोचता था, हमें मालूम है हमारे राजनेता कश्मीर के बारे में क्या सोचते हैं और अब हमें यह भी मालूम है कि देश का मीडिया कश्मीर के बारे में क्या सोचती है. लेकिन तबस्सुम- एक युवा महिला, उग्रवादी की पत्नी, आंतकी घटना में शामिल एक व्यक्ति की विधवा, एक मां, एक बेटा, वो कश्मीर के बारे में क्या सोचती है?

“जब मैं 13 वर्ष की थी, मैं विरोध प्रदर्शनों में जाती थी. हम पैदल चलते थे, चीखते-चिल्लाते थे ‘गो इंडिया, गो बैक”, उन्होंने मुस्कुराकर, हाथ उठाया जैसे प्रदर्शनों में होता है.

13 वर्ष की उम्र में, क्या कोई इतना जटिल आंदोलन कर सकता है?

“जब मैं लगभग 12 वर्ष की थी, मेरे 14 वर्षीय चचेरे भाई को गोली मार दी गई थी. वो हमारे साथ घर के बाहर पेड़ के नीचे खेला करता था. सुरक्षा बलों को शक हुआ कि वह एक आंतकवादी है और उसे सिर में गोली मार दी गई,” तबस्सुम ने दावा किया. लेकिन तबस्सुम ने उसके बाद विरोध प्रदर्शनों में शामिल होना बंद कर दिया.

तबस्सुम और मीडिया

मैंने उनसे पूछा, तब क्या हालात थे जब आपके पति को फांसी दी गई? क्या आपके भीतर गुस्से की भावना नहीं पैदा हुई? क्या आप प्रदर्शन करने गईं? पत्थर फेंके?

“हां, मेरे जख्म ताजा हो गए. हां, मैंने प्रदर्शन किया.” एसएआर गिलानी ने अफ़ज़ल की मौत की पुष्टि की, सूचना सुनकर तबस्सुम ने अपना फोन स्विच ऑफ कर दिया.

“शुरुआत में, मीडिया से बात न करना भी विरोध का एक तरीका था,” उन्होंने कहा. उनका फोन 15 दिनों तक अनरीचेबल रहा. एक पीड़ित की पत्नी होने के नाते, तबस्सुम नहीं चाहती थी कि मीडिया संस्थान उनके आंसुओं का कारोबार करें.

एकबार जब मैं अपने दुख पर नियंत्रण कर चुकी थी, तबस्सुम ने तय किया कि वह अपना गुस्सा अब नहीं छुपाएंगीं. आखिर में वे एक पीड़ित पत्नी की तरह नहीं बल्कि एक विद्रोही महिला की तरह बाहर निकलीं.

“जब आजतक का रिपोर्टर कैमरे के साथ सवाल पूछने आया, तो मेरे पास उसके लिए सवाल थे. शम्स ताहिर क्यों मुझसे इंटरव्यू करने नहीं आया? उन्होंने अफ़ज़ल के साथ वह इंटरव्यू क्यों किया? मैं घर आने वाले हर मीडिया वाले से पूछती थी, उन्होंने जो किया वह आखिर क्यों किया?” उन्होंने कहा.

हालांकि, सरकार द्वारा अपने पति का मृत शरीर न दिए जाने, राजनेताओं जिन्होंने अफ़ज़ल के नाम पर राजनीति की, उन सब से ज्यादा तबस्सुम का गुस्सा मीडिया पर केन्द्रित था.

मीडिया से तबस्सुम की लड़ाई लंबी रही है. 2005 में, जब  अफ़ज़ल गुरू जेल में था, मीडिया के लोग इंटरव्यू के लिए उनके घर आए थे.” मैंने तहलका पत्रिका के लोगों को साफ कह दिया था कि वे अपने साथ कैमरा न लाएं. मैंने उन्हें चाय-नाश्ता दिया. उनसे खुलकर बातचीत की. मुझे नहीं मालूम था कि वो अपने साथ खुफिया कैमरे लेकर आए थे. ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्या वे हमारी इतनी इज्ज़त नहीं कर सकते थे कि मैं कैमरे के सामने नहीं आना चाहती थी?” उन्होंने पूछा.

उन्होंने कहा कि तहलका ने उनकी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि हमारा एक रिश्तेदार अफ़ज़ल और मेरे विरुद्ध था. “उन रिश्तेदारों ने हम लोगों से आठ साल तक बात नहीं की, जब तक अफ़ज़ल को फांसी नहीं हो गई,” उन्होंने कहा.

तबस्सुम आज

तबस्सुम ने दोबारा शादी नहीं की. 2005 में, अफ़ज़ल ने तबस्सुम के पिता को अपनी बेटी की लिए दूसरा पति ढूंढने के सिलसिले में पत्र लिखा. “मैं बहुत गुस्से में थी. वो मुझे ये कहने वाले कौन थे. मैंने कभी तलाक नहीं मांगा,” उन्होंने कहा.

वो फोटो एल्बम बंद कर देती हैं और अफ़ज़ल के तिहाड़ जेल से भेजे प्रेम पत्रों को किनारे रख देती हैं. मैं खुद को पूछने से रोक नहीं सकी- “इतने सालों में, आपको भी किसी मर्द के करीब न आने की कमी महसूस नहीं हुई? क्या आपको शारीरिक संबंधों की जरूरत या कमी महसूस नहीं हुई?”

वे थोड़ा रुककर बोलीं, “जब मैं अफ़ज़ल से मिलने जेल जाया करती थी, वे मेरे सामने, मेरा हाथ पकड़कर बैठा करता. कई बार, मैं अपना सिर उसके कंधों पर रख देती थी. हमदोनों एक दूसरे को इंतज़ार करने को कहते थे,” उन्होंने कहा.

कुछ देर सोचने के बाद, तबस्सुम हल्के से मुस्काईं और बताया, “कभी-कभी जब मैं अफ़ज़ल से मिलने जाती, अफ़ज़ल अपनी बांहें खोलकर मुझे जोर से गले लगाता और मैं भी उसे कसकर गले लगाना चाहती थी. लेकिन हमारे आसपास बहुत सारे लोग हुआ करते थे और मैं शरमा जाती थी.”

आज तबस्सुम अकेले रहतीं हैं. उनका बेटा ग़ालिब श्रीनगर में पढ़ता है और हर सप्ताह के अंत में घर आता है. लगभग हर सप्ताह, सुरक्षा बल उनके घर की जांच करते हैं. अब तो मैं उन्हें हंसकर कहती हूं- “कृपया आइए, यह आपका ही घर है,”

बात करते-करते हम घर से बाहर आते हैं. मैंने उनसे पूछा, “क्या मैं आपकी तस्वीर खींच सकती हूं? तबस्सुम गुरू अपना एक हाथ फिरन की पॉकेट में डालकर मुस्कुराने लगती हैं.”