Newslaundry Hindi
मातृभाषा दिवस: हिंदी, भोजपुरी, अंग्रेज़ी और मैं
गोरखपुर में सबसे प्रचलित भाषा हिंदी है और लोकप्रिय है भोजपुरी. लोकप्रिय एलीट क्लास के बीच नहीं. वो भोजपुरी जानते हैं पर उनके लिए ये घर के भीतर की और कभी-कभार बोली जाने वाली भाषा है. भोजपुरी हिंदी से चार खुराक़ ज्यादा लोकप्रिय है आम जन-मानस के बीच. अवधी तो इतनी सिमटती जा रही है कि अब रामचरितमानस तक ही रह गई है.
गोरखपुर की हिंदी भी वो खड़ी बोली वाली हिंदी नहीं है. बहुवचन वाली हिंदी है जिसे सुनकर दिल्ली-मुंबई में रह रहे लोग अक्सर हंस देते हैं. जैसे- मैं जा रही थी नहीं, हम जा रहे थे. लोग हंसकर कहते हैं कि तुम्हारे साथ कितने लोग जा रहे थे!
मेरे घर में भोजपुरी नहीं बोली जाती. दरअसल बोली तो जाती है पर हम (मैं और भाई-बहन) से कोई भोजपुरी में बात नहीं करता. मम्मी-डैडी भी नहीं और अगर हमलोग गांव जाएं तो हमारे गांव वाले भी नहीं.
मम्मी बड़े फ़ख्र से कहती हैं कि हमने बच्चों को भोजपुरी से दूर रखा. मैं जब बहुत छोटी थी, अभी स्कूल भी नहीं जाती थी तभी मुझे इंडिया पर और न जाने किन-किन विषयों पर इंग्लिश में भाषण याद करवाये जाते. पूरा मोहल्ला बुला-बुलाकर सुनता और कहता- कैसे टनाटन बोलती है न! इसे रेडियो में जाना चाहिए.
जिस स्कूल में पढ़ाई हुई वहां हिंदी बोलना भी गुनाह था. हिंदी की क्लास के अलावा कभी हिंदी बोलते सुने गए तो क्लास लग जाती थी. मैं कई बार ये सोचती कि हमारी हिंदी की टीचर को कैसा लगता होगा. प्रिंसिपल मैम की ओर से सख़्त मनाही थी. अजीब बात ये भी है कि उनकी ये बात मुझसे अधिक शायद ही किसी ने मानी हो. मैं बेहद खड़ूस मॉनिटर हुआ करती थी.
भोजपुरी को लेकर उनके खयालात बस ये ही रहे कि बहुत ही चीप भाषा है. अगर वो भोजपुरी का कोई शब्द कहीं सुन भी लेतीं तो कहतीं- स्पीक दिस पानवाला टाइप लैंग्वेज एट योर होम.
ख़ैर, हिंदी पर ही बवाल हो जाता तो भोजपुरी क्या चीज़ थी. मैंने उन्हें भोजपुरी का मज़ाक उड़ाते ही सुना और स्कूल में हमें यही सिखाया गया कि भोजपुरी निम्न स्तर की भाषा है. घर या आसपास से कोई ठेले वाला, रेहड़ी वाला गुज़र रहा हो तो कई बार भोजपुरी गाने बजाते हुए जाता था. कई बार वो गाने द्विअर्थी होते थे तो दिमाग खराब ही हो जाता था. भोजपुरी को लेकर यही मानसिकता बन गई.
भाषा धरोहर है ये बात समझ आती थी पर बचपन से कुछ चीज़ें बो दी गईं इसलिए अवधी से भी उतना लगाव न हो सका. जब कॉलेज में आई और पता चला कि एक ऐसी भाषा भी है जिसे बोलने वाले मात्र 4 लोग रह गए हैं और उनके साथ ही वो भाषा खत्म हो जाएगी तो बहुत तकलीफ़ हुई. लगता था कि कैसे सीख लूं मैं और बचा लूं उस भाषा को.
दूसरी कई भाषाओं पर प्यार आया, अवधी पर भी आ ही गया पर भोजपुरी में काफी वक्त लगा. आज भी अगर मैं भोजपुरी बोलूं तो दो लाइन के बाद तीसरी लाइन में फंस जाती हूं.
घर पर कभी भोजपुरी गाने नहीं सुने. लोकगीत और शादी में बुआ, चाची, दादी द्वारा गाये जाने वाले गीत सुने पर डीजे के नाम पर तेरे नाम से लेकर यो यो हनी सिंह ही सुना. तू लगावेलू जब लिपिस्टिक मैंने दिल्ली में ही सबसे ज्यादा सुना.
कॉलेज में इसके प्रति जो स्वीकार्यता मैंने देखी उसने सोचने पर मजबूर कर दिया. हमलोग इससे भागते रहते हैं और भोजपुरी जिनकी भाषा नहीं है वे इसपर झूम रहे हैं. रामजस कॉलेज में जब अचानक ये गाना बजा और बच्चे खूब हूटिंग करने लगे तो मैं दंग रह गई.
भाषा पर आये दिन लोगों का उमड़ता प्रेम देखती हूं, उनके पोस्ट्स पढ़ती हूं. लोग मगही, मैथिली, वज्जिका और कई भाषाओं के हक़ की बात करते हैं. हमारे यहां हमें यही बताया गया कि अंग्रेज़ी ही श्रेष्ठ है. इस तरह से ढाला गया कि क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति प्रेम पनप ही न सका. जर्मन, फ्रेंच सीखने की भी खूब नसीहतें मिलतीं. किसी ने नहीं पूछा कि अवधी क्यों नहीं आती है? तुम्हारी भाषा है तुम्हें आनी चाहिए. भाषा में इतनी व्यावसायिकता घोल दी गई कि संवेदना के धरातल पर उसके लिए कुछ सोच पाना मुश्किल होता था.
आज जब इन सब पर अफ़सोस होता है तो मम्मी-डैडी से पूछती हूं कि हमें ये सब क्यों नहीं सिखाया, वो कोई ठोस जवाब नहीं दे पाते हैं. जब अपने स्कूल के बच्चों से मिलती हूं और वो कई बार आदर-भाव से और कई बार मेरी सीनियॉरिटी के डर से फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते जाते हैं तो मेरी तकलीफ़ और बढ़ जाती है.
हममें अंग्रेज़ी बोयी जा रही है, ये ठीक है पर इतना बंजर बना दिया जाता है कि कुछ और उग ही न सके, ये गलत है… और ये गलती हर स्तर पर हो रही है.
आज मातृभाषा दिवस पर सोचने पर मजबूर हूं कि मेरी मातृभाषा क्या है! कायदे से इसका जवाब भोजपुरी होना चाहिए पर भोजपुरी आती नहीं. समझ में आने भर से किसी भाषा को मातृभाषा कैसे कह दूं? तो क्या हिंदी कहूं? पूर्वांचल में जो हिंदी बोली जाती है वही मेरी हिंदी है, वही मेरी भाषा है पर मैंने शुरू से खड़ी बोली का इस्तेमाल किया. सो ये भी मेरी मातृभाषा नहीं हुई. पब्लिक स्कूल में शिक्षा-दीक्षा लेने के कारण अंग्रेज़ी ही माध्यम रही, पर अंग्रेज़ी कामकाजी भाषा ज्यादा रही है.
संस्कृत जैसी भाषा आठवीं के बाद छूट गयी और संस्कृत भी इतनी ही आती है कि समझ लेती हूं. घर-परिवार और स्कूल ने मिलकर इस स्थिति में पहुंचा दिया कि किसी भी भाषा को गर्व के साथ या अपना हक़ समझते हुए मातृभाषा नहीं कह पा रही हूं.
Also Read
-
TV Newsance 308: Godi media dumps Trump, return of Media Maulana
-
Trump’s tariff bullying: Why India must stand its ground
-
How the SIT proved Prajwal Revanna’s guilt: A breakdown of the case
-
Exclusive: India’s e-waste mirage, ‘crores in corporate fraud’ amid govt lapses, public suffering
-
SSC: पेपरलीक, रिजल्ट में देरी और परीक्षा में धांधली के ख़िलाफ़ दिल्ली में छात्रों का हल्ला बोल