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माहवारी के नाम पर बगलें झांकने वाले समाज के लिए जरूरी है पैडमैन

अक्षय कुमार ने अपने 25 साल के फिल्मी करियर में हमें अनगिनत घटिया (एक्टिंग, निर्देशन, कहानी और भद्दे डायलॉग वाली) फिल्में दी हैं जिन्हें बिसर जाना ही उनकी नियति है. लेकिन इस एक फिल्म ने अक्षय को वह मौका दिया है जिसके जरिए वे फिल्म इंडस्ट्री में अपनी मौजूदगी को सार्थक कर पाए हैं. यह टिप्पणी थोड़ी निर्मम लग सकती है लेकिन फार्मूला और सितारा प्रधान फिल्मों की गिरफ्त में ज्यादातर नायकों नायिकाओं की यही नियति है. तीन-तीन, चार-चार दशक लंबे फिल्मी सफ़र में उंगलियों पर गिनने लायक यादगार फिल्में और रोल हैं.

पैडमैन अरुणाचलम मुरुगनंथम के जीवन पर आधारित है जिन्हें फिल्म में कोयम्बटूर से मध्यप्रदेश शिफ़्ट कर दिया गया है. मध्यप्रदेश के एक गांव में रहने वाले लक्ष्मीकांत चौहान की शादी से शुरू होती फ़िल्म पैडमैन न सिर्फ़ माहवारी-संबंधी वर्जना पर खुलकर धावा बोलती है बल्कि सैनिट्री नैपकिन जैसी ज़रूरत की वस्तु पर हावी बाज़ारवाद पर भी चोट करती है. फ़िल्म बहुत साधारण ढंग से दिखाती है कि शादी के दस दिनों बाद तक सिमटी रहने वाली फ़िक्र जब हमेशा के लिए बनी रहे और औरत के ‘होने’ को समझा जाए तो एक आठवीं पास वेल्डर लक्ष्मीकांत (अक्षय कुमार) भी पैडमैन बन जाता है.

की एंड का, शमिताभ, पा और चीनी कम जैसी फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक आर. बाल्कि ने फिर से कुछ ऐसा ही प्रयोग किया है जो समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ता है. फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी से लेकर गीत तक, सब काबिल-ए-तारीफ़ हैं. लक्ष्मी जैसे किरदार के ज़रिए आर. बाल्कि ने धार्मिक आडम्बरों पर भी कटाक्ष करने का साहस किया है. वो हनुमान जी के प्रसाद वाली तकनीक पर हंसता है और गोलगप्पे जैसे चीज़ भी बुर्के में खाते हुए देखकर मुस्कुराता है.

लक्ष्मी अपनी रजस्वला पत्नी को अंदर आने के लिए कहता है– अंदर आ जाओ, रिवाज़ बदल जाएगा. परी के पिता ने उसे अकेले पाला है और उसके लिए कूकरी क्लासेज़ भी कीं, इसपर वो कहते हैं कि अच्छा पिता होने के लिए मां होना पड़ता है. फ़िल्म ऐसे कई सरल डायलॉग्स से भरी हुई है जो ज़हन में उतरते मालूम पड़ते हैं.

इसके अलावा कॉस्ट्यूम और लोकेशन व इंटीरियर भी कहानी के अनुरूप ही हैं. फ़िल्म का कमज़ोर हिस्सा इसका इंटरवल के पहले वाला भाग है जो ज़्यादा खिंचा हुआ महसूस होता है, दूसरे भाग में कहानी अच्छी रफ़्तार से चलती है.

अक्षय कुमार हमेशा से बेहतर अभिनेता नहीं रहे लेकिन इस फिल्म में वो अपनी अभिनय की सभी सीमाओं से पार निकल गए हैं जिसे बेहतरीन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. सबसे सुकूनदेह यह है कि फ़िल्म पर खिलाड़ी कुमार की छवि हावी होती कहीं भी नहीं दिखा जो कि उनकी दूसरी फिल्मों में अमूमन देखने को मिलता है.

फिल्म इस मायने में भी सफल रही कि वह पैडमैन को भगवान-सरीखा बनाने के आडम्बर में नहीं फंसती है. यहां पैडमैन एक साधारण आदमी है जिसे सस्ते पैड्स बनाने के एवज में गांव, बीवी, घरवाले सबका त्याग कर 90 हज़ार रुपये का कर्ज़ भी लेना पड़ा. हां, ऐसे किसी अभियान से जुड़ी यह अक्षय की ‘टॉयलेट: एक प्रेमकथा’ के बाद दूसरी फ़िल्म है. पिछली फ़िल्म से इसमें उनका अभिनय काफ़ी मिलता-जुलता है, हालांकि पिछली फ़िल्म सिनेमा से अधिक जनहित में जारी विज्ञापन और सरकारी भोंपू लग रही थी.

राधिका आप्टे हमेशा से शानदार अभिनेत्री रही हैं. वह फ़िल्मों के चुनाव को लेकर बेहद संजीदा हैं इसलिए उनसे उम्मीद बढ़ जाती है और लगता है कि वो अपने किरदार पर थोड़ी और मेहनत कर सकती थीं. सोनम कपूर का किरदार छोटा लेकिन अहम है जिसे उन्होंने लगभग ठीक-ठाक निभाया है.

आईआईटी में अमिताभ बच्चन की एंट्री (कैमियो) एक ख़ूबसूरत सरप्राइज़ है. हालांकि फ़िल्म शुरू होने से पहले ही अरुणाचलम मुरुगनंथम का डिस्क्लेमर आता है कि इसमें सिनेमाई लिबर्टी (छूट) ली गयी है फिर भी एक ग़लती ऐसी दिखी जो आंख़ों को खटकती है और वो फ़िल्म का वह दृश्य है जहां एक लड़की की पहली माहवारी पर उत्सव मनाया जाता है. यह रिवाज़ कर्नाटक और असम जैसे राज्यों में है लेकिन मध्यप्रदेश में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है.

कहानी:

लक्ष्मीकांत चौहान और गायत्री चौबे की शादी से शुरू हुई फ़िल्म में पहला मोड़ रक्षाबंधन के दिन आता है जब लक्ष्मी (लक्ष्मीकांत का घरेलू नाम) अपने परिवार के साथ भोजन करता है और बीवी उठकर चल देती है. माहवारी (पीरियड्स) शुरू होते ही वह बालकनी वाले कमरे में रहने लगती है. लक्ष्मी कम पढ़ा-लिखा होकर भी महामारी की तरह फैले टैबूज़ को नहीं मानता और यह समझता है कि माहवारी बहुत प्राकृतिक है.

अपनी पत्नी द्वारा इस्तेमाल के लिए रखा कपड़ा देखकर वह परेशान होता है और सैनिट्री नैपकिन ख़रीद लाता है. पैकेट पर दाम पढ़कर गायत्री उसे इस्तेमाल करने से मना कर देती है पर लक्ष्मी समझता है कि वो औरतों के स्वास्थ्य के लिए कितना ज़रूरी है. यहां उसका मैकेनिक दिमाग उसे कुरेदता है और वो एक पैड फाड़कर देखता है तो 2 रुपये की चीज़ का 55 रुपये में बेचा जाना उसे हैरान करता है. यहां पर वो खुद ही पैड बनाने का निर्णय लेता है.

पैड बनाने के लिए वह शहर पहुंचता है जहां एक प्रोफ़ेसर उसका मनोबल गिराते हुए कहते हैं कि करोड़ों की मशीन आती है पैड बनाने की, इतने बड़े-बड़े डायलॉग्स बोलते हो, ख़रीद लो. वह मशीनीकरण को ग़ौर से समझता है और मशीन तैयार करता है.

इस संघर्ष की प्रक्रिया में लक्ष्मी ने तमाम उतार-चढ़ाव देखे जो पूरी फिल्म को दिलचस्प बनाते हैं और साथ ही निर्देशक बाल्की की सामाजिक ताने-बाने की बारीक समझ को भी स्थापित करते हैं.

विशेष:

फ़िल्म आज से 17 वर्ष पूर्व की पृष्ठभूमि पर आधारित है. यह कोयंबटूर के अरुणाचलम मुरुगनंथम के जीवन पर आधारित है. ये वह दौर था जब सैनिट्री नैपकिन के विज्ञापन आते ही लोग बगलें झांकने लगते और चैनल बदल देते थे. आज जो कुछ बदला है वह इतना ही कि उन महिलाओं की संख्या जो पैड इस्तेमाल करती हैं 12% से 18%  हो गयी है.

पीरियड्स जैसा शब्द सुनते ही झेंप जाने वाले समाज के लिए यह फ़िल्म इस वक़्त की ज़रूरत है. ग़ौरतलब है कि मासिक धर्म पर बनी यह बॉलीवुड की पहली फ़िल्म नहीं है. इससे पहले 2017 में ‘फुल्लू’ आयी थी जिसका निर्देशन अभिषेक सक्सेना ने किया था पर चूंकि फ़िल्म में कोई खिलाड़ी कुमार नहीं था, उसे निराश होना पड़ा.

ग़ैरज़रूरी दिखावे से बचते हुए एक बहुत ज़रूरी समस्या को साधारण तरीके से कैनवस पर उतारने का काम फ़िल्म में दिखता है. ज़रूरत है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पोलियो बूथ कैम्प्स जैसे जगह-जगह नुक्कड़ लगें और पुरुष-स्त्री सभी बैठकर इसे देखें. ज़रूरत है कि सेक्स व प्यूबर्टी एजुकेशन के नाम पर सभी स्कूलों में ऐसी फ़िल्म दिखायी जाएं ताकि लड़कियों के सातवीं कक्षा में पहुंचने पर स्कूल में उनकी अलग से काउंसलिंग की ज़रूरत न बचे.

निर्देशक: आर. बालाकृष्णन

मुख्य कलाकार: अक्षय कुमार, राधिका आप्टे, सोनम कपूर

शैली: बायोग्राफ़िकल ड्रामा

अवधि: 2 घंटे 20 मिनट