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विनोद वर्मा के बहाने: पत्रकार कौन है, कौन कर रहा है पत्रकारिता?

अमर उजाला, बीबीसी और देशबंधु अखबार के महत्वपूर्ण पदों पर रहे विनोद वर्मा की छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा गिरफ्तारी ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. उनमें से एक सवाल ऐसा है, जिससे पत्रकारिता के पेशे और लोकतंत्र का सीधा वास्ता है.

विनोद वर्मा ने लगभग दो दशक तक मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद कुछ मीडिया संगठनों के लिए सलाहकार का काम किया और बीजेपी का कहना है कि वे अब छत्तीसगढ़ कांग्रेस को मीडिया मामलों में सलाह देते हैं. विनोद वर्मा अपना परिचय पत्रकार के रूप में देते हैं. जब उनकी गिरफ्तारी हुई तो इसका विरोध एडिटर्स गिल्ड और प्रेस एसोसिएश ऑफ इंडिया से लेकर तमाम पत्रकार संगठनों ने किया. इस गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए जब दिल्ली के प्रेस क्लब में सभा बुलाई गई तो उसमें दो सौ के आसपास पत्रकार इकट्ठा हुए.

एक व्यक्ति, जब किसी मीडिया संस्थान में काम नहीं कर रहा है और किसी और पेशे, जैसे मीडिया कंसल्टेंसी का काम कर रहा है, तब भी क्या वह पत्रकार है और क्या उसे वे संरक्षण मिलने चाहिए जो पत्रकारों को मिलने चाहिए? क्या अगर कोई आदमी मीडिया संगठन में नहीं है या विधिवत नियमित तौर पर पत्रकारिता की नौकरी नहीं कर रहा है, तो क्या वह पत्रकार हो सकता है? अगर वह नियमित सूचनाएं इंटरनेट पर संचारित कर रहा है और हजारों-लाखों लोग उसे पढ़ या देख रहे हैं, तो क्या यह माना जाना चाहिए कि वह बेशक मीडिया संस्थान में नहीं है, लेकिन वह पत्रकारिता कर रहा है?

ये इक्कीसवीं सदी के प्रश्न हैं क्योंकि टेक्नोलॉजी के विकास की वजह से, कुछ सवालों को दस या बीस साल पहले पूछ पाना मुमकिन नहीं था, विनोद वर्मा के मामले में यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विनोद वर्मा नौकरी छोड़ने के बाद बेशक किसी मीडिया संस्थान से जुड़कर काम नहीं कर रहे थे, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे पत्रकारिता नहीं कर रहे थे. वे इंटरनेट और सोशल मीडिया पर लगातार कम्युनिकेट कर रहे थे, और कोई यह नहीं कह सकता है कि उनके इन लेखों की पहुंच किसी अखबार या पत्रकारिता के लेखों से कम है.

इस नाते कोई कह सकता है कि पत्रकारिता करने वालों को मिलने वाले संरक्षण विनोद वर्मा को भी मिलने चाहिए. यह तर्क कमजोर है कि किसी पार्टी के लिए मीडिया प्रबंधन करने वाला पत्रकार कैसे हो सकता है. संसद को ही देखें तो कई सांसद ऐसे हैं जो राजनीतिक दलों के टिकट पर चुने गए लेकिन संपादक या पत्रकार बने हुए हैं और अपनी दोनों पहचानों को निभा रहे हैं. इस समय तो ऐसे सर्वाधिक सांसद सत्ताधारी दल के साथ हैं. विनोद वर्मा का किसी विपक्षी पार्टी के मीडिया सेल से जुड़ा होना, उन्हें कमतर पत्रकार नहीं बना देता.
बड़ा सवाल यह है कि अगर विनोद वर्मा पत्रकार न होते और इंटरनेट पर अपनी बात ढेर सारे लोगों तक पहुंचा रहे होते, तो भी क्या उन्हें संरक्षण मिलना चाहिए.

ऐसा ही सवाल 1999 में अमेरिका में कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट के सामने आया था. उस दौरान चीन में सरकार ने छह लोगों को इस आधार पर गिरफ्तार कर लिया था कि वे देशविरोधी और तोड़फोड़ वाली गतिविधियों का प्रसार इंटरनेट पर करते हैं. कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट की मीटिंग में इस बात पर विचार किया गया कि क्या उन्हें इस गिरफ्तारी का विरोध करना चाहिए. बैठक के बाद यह राय बनी कि बेशक ये लोग परंपरागत अर्थों में पत्रकार नहीं है, और पत्रकार होने की नौकरी नहीं करते, लेकिन सूचनाएं, समाचार और विचार संकलित करने और उसे लोगों तक पहुंचाने का काम ये करते हैं. कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट ने तय किया वह इस मामले को उठाएगा और उनकी रिहाई के लिए कोशिश करेगा.

विनोद वर्मा की बीजेपी शासन द्वारा गिरफ्तारी के बहाने यह सवाल भारत में भी खड़ा हो गया है कि पत्रकार कौन है और पत्रकारिता कौन कर रहा है.

दरअसल, यह सवाल इंटरनेट और सोशल मीडिया युग का सवाल है. इससे पहले तक, प्रिंट, रेडियो और टीवी मीडियम के पत्रकार सांस्थानिक होते थे. वे या तो किसी मीडिया संस्थान से जुड़े होते थे, या फिर किसी मीडिया संस्थान के लिए काम करते थे. खासकर संवाददाताओं का पहचान पत्र होता था और उन्हें सरकार से मान्यता भी मिलती थी (यह अब भी होता है). उस समय यह नहीं पूछा जाता था कि कौन पत्रकार है और पत्रकारिता कौन कर रहा है.

लेकिन 1990 के दशक में ब्लॉग और फिर आगे चलकर बेशुमार छोटी-बड़ी वेबसाइट और फिर सोशल मीडिया के आने के बाद पत्रकार और पत्रकारिता को लेकर सवाल पूछने का तरीका बदल गया. अब सवाल यह नहीं है कि – “पत्रकार कौन है, सवाल यह है कि पत्रकारिता कौन कर रहा है?”

इस सवाल को सबसे पहले शोधकर्ता ऐन कूपर ने कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू में 2008 में पूछा. उन्होंने चीनी पत्रकारों का उदाहरण देते हुए कहा कि इंटरनेट के दौर में अब सिर्फ यह पूछा जाना चाहिए कि पत्रकारिता कौन कर रहा है. उनकी दृष्टि में, जो भी व्यक्ति सूचना, समाचार या समाचार विश्लेषण का प्रसार कर रहा है, वह पत्रकार है. इस विचार को काफी तेजी से सांस्थानिक मान्यता भी मिली. 2009 आते आते संयुक्त राष्ट्र से लेकर अमेरिका और यूरोप के कई देशों में ब्लॉगर्स को सरकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस में बुलाया जाने लगा.

अपने देश में भी देखें तो वह बहुत पुरानी बात नहीं है, जब केंद्र सरकार के लिए प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो और राज्य सरकारों के लिए वहां का जनसंपर्क विभाग प्रेस रिलीज तैयार करता था और वो प्रेस रिलीज पत्रकारों को दिए जाते थे. पत्रकार हर दिन राज्य सरकार से आने वाली उन प्रेस रिलीज का इंतजार करते थे. इन प्रेस रिलीज के जरिए जनता को अगले दिन पता चलता था कि सरकारें क्या कर रही हैं, क्या घोषणाएं हुईं हैं या किसी मुद्दे पर सरकार का क्या पक्ष है. यानी पत्रकार को सरकारी सूचनाएं पहले पाने का प्रिविलेज यानी विशेषाधिकार था. जनता और सरकार के बीच पत्रकार एक पुल की तरह था. टीवी पत्रकारिता के शुरुआती दौर तक यह जारी रहा.

2017 में अब ऐसा कुछ नहीं होता या बहुत कम होता है. प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो और जनसंपर्क विभाग अब प्रेस रिलीज के कागज पत्रकारों में नहीं बांटते. प्रेस रिलीज अब वे अपनी साइट पर अपलोड कर देते हैं. ये रिलीज एक साथ पत्रकारों और आम जनता को उपलब्ध होती हैं. प्रेस कॉन्फ्रैंस को भी लाइव दिखाने का चलन बढ़ा है, यानी कोई सरकारी सूचना जिस समय पत्रकारों को मिल रही है, उसी समय वह हर किसी को उपलब्ध हो जा रही है. अगर ये सूचना सोशल मीडिया पर आ गई, तो तमाम लोग उस पर प्रतिक्रिया जताते हैं और अखबारों या चैनलों का विचार या ओपिनियन देने का काम भी लोग खुद ही कर ले रहे है.

नेता और मंत्री भी अब अक्सर बड़ी घोषणाएं पत्रकारों के बीच करने की जगह सीधे फेसबुक या ट्विटर पर करते हैं. नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं और उनकी घोषणाएं अक्सर पहले ट्वीटर और बाद में चैनलों और अखबारों तक पहुंचती हैं, यह दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक नरेंद्र मोदी ने एक भी संवाददाता सम्मेलन नहीं किया है. संवाददाता सम्मेलन न करने के बावजूद नरेंद्र मोदी पर यह आरोप नहीं लग सकता कि वे अपनी बात लोगों तक नहीं पहुंचाते. उन्होंने बस इतना किया है कि अपने और आम जनता के बीच से पत्रकारों को हटा दिया है. हालांकि यह कहा जा सकता है कि उन्होंने सवालों से बचने के लिए ऐसा किया है, लेकिन यह एक और बहस है.

कॉरपोरेट सेक्टर में कंपनियां भी अपने एनुअल रिपोर्ट और तमाम अन्य घोषणाएं और सूचनाएं वेब साइट और सोशल मीडिया पर सीधे डालने लगी हैं. कई संस्थाएं भी यह करने लगी हैं. वे भी फेसबुक लाइव जैसे टूल के जरिए अपनी बात सीधे लोगों तक पहुंचाने लगी हैं.

यह तो हुई खबरों के संगठित क्षेत्र यानी प्रेस रिलीज, प्रेस कॉन्फ्रेंस, मीडिया ब्रीफिंग, आदि की बात. यहां पत्रकारों ने अपनी भूमिका खोई है. खबरों के असंगठित क्षेत्र यानी घटना और दुर्घटना की पहली सूचनाएं भी अब अक्सर चैनल और अखबारों के पत्रकारों से पहले किसी आम आदमी के जरिए लोगों मिलती है. मिसाल के तौर पर, किसी ट्रेन हादसे का पहला वीडिया, मुमकिन है कि, किसी यात्री के मोबाइल कैमरे के जरिए सारी दुनिया तक सबसे पहले पहुंचे.

अब यहां सवाल उठता है कि जिस यात्री ने अपने मोबाइल से घटना के बारे में सारी दुनिया को सबसे पहले बताया, वह पत्रकार है या नहीं.

नहीं, परंपरागत अर्थों में वह पत्रकार नहीं है. न तो उसने पत्रकारिता की डिग्री ली है और न ही वह किसी मीडिया संस्थान के लिए काम करता है. लेकिन घटना की तस्वीर या वीडिया लोगों तक पहुंचाकर उसने पत्रकारिता जरूर की है.

इस मायने में दुनिया लाखों और करोड़ों पत्रकारों के युग में प्रवेश कर चुकी है. कोई व्यक्ति दस रुपए का नेट पैक और चार-पांच हजार के स्मार्टफोन का इस्तेमाल करके वह काम कर सकता है, जो कोई भी पत्रकार करता है.

विनोद वर्मा की गिरफ्तारी के संदर्भ में इस बात का क्या मतलब है?

विनोद वर्मा पेशेवर पत्रकार जरूर रहे हैं, लेकिन उनकी गिरफ्तारी या उन पर ‘पुलिस जुल्म’ का विरोध क्या उनके पत्रकार होने के कारण करना चाहिए?

दरअसल भारतीय संविधान में पत्रकारों के लिए किसी अलग अधिकार या विशेषाधिकार का कोई प्रावधान नहीं है. आईपीसी या कोई और कानून भी उन्हें कोई विशेष दर्जा नहीं देता. पत्रकार को भारत में वही अधिकार हासिल हैं जो किसी भी नागरिक को हासिल हैं और वह भी उन्हीं कानूनों और नियमों से बंधा है, जिन नियम-कानूनों से कोई भी नागरिक बंधा है. पत्रकार होने का पहचान पत्र और सरकारी मान्यता की वजह से वह बेशक उन दफ्तरों और कार्यक्रमों तक पहुंच पाता है, जहां आम लोग नहीं पहुंच पाते, लेकिन इसका महत्व भी तेजी से घट रहा है.

विनोद वर्मा की गिरफ्तारी में, दरअसल, व्यक्ति के नागरिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला बनता है. कोई यह कह सकता है कि एक नागरिक होने के कानून कानून से उन्हें जो संरक्षण प्राप्त हुआ है, उसका प्रथम दृष्टया उल्लंघन छत्तीसगढ़ पुलिस ने किया है. इस मामले में लोगों को कानूनी कार्रवाई और अदालतों के फैसले का इंतजार करना होगा.
विनोद वर्मा की गिरफ्तारी को विरोध उसी आधार पर होना चाहिए जिस आधार पर न्यूयार्क की कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट ने चीन के छह नागरिकों की गिरफ्तारी का विरोध किया था. वे पत्रकार नहीं थे. लेकिन वे सूचनाएं, समाचार और विचार लोगों तक पहुंचाकर पत्रकारिता कर रहे थे. विनोद वर्मा भी यह काम कर रहे थे.