एक तस्वीर जिसमें तराजू को पेन की नोक पर रखा गया है.
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मुबारक हो! मीडिया को ‘दरबारी’ बनाने के लिए सरकार नहीं आप ही भुगतान कर रहे हैंं 

सरकार ने प्रिंट मीडिया को मिलने वाले विज्ञापन की दरों को 26 फीसदी बढ़ाने का फैसला लिया है. 

क्या आपने किसी टीवी चैनल या अखबार के पहले पन्ने पर इस बारे में कोई ख़बर देखी? या फिर कोई संपादकीय, यह सवाल इसलिए क्योंकि अक्सर उनमें छोटे-मोटे मुद्दों पर भी भारी-भरकम टिप्पणियां होती हैं. या फिर कोई लेख या प्राइम टाइम पर कोई चर्चा?

नहीं? पता है क्यों?

ऐसा इसलिए नहीं कि ये कोई छोटी बात है. सही मायनों में इसका लोकतंत्र की सेहत पर बड़ा और गहरा असर पड़ने वाला है. आइए मैं आपको समझाता हूं.  

बापू यानि महात्मा गांधी विज्ञापन मुक्त पत्रकारिता के समर्थक थे. उन्होंने जितने भी समाचार पत्र प्रकाशित किए, उसके लिए कोई विज्ञापन नहीं लिया. बेशक उनके ये समाचार पत्र अपने अमीर सहयोगियों की बदौलत चल रहे थे. और, शायद यही उनकी कमज़ोरी थी. इसलिए भारत जब एक स्वतंत्र राष्ट्र बना तो बापू के सिद्धांत को मानते हुए सरकार ने पत्रकारिता को विज्ञापन मुक्त रखने के लिए एक तरीका निकाला.

सरकार का संरक्षण पत्रकारिता को ज़िंदा रखने का जरिया बन गया. बड़ी-बड़ी और महंगी ज़मीने प्रसिद्ध मीडिया संस्थानों को इस शर्त पर दी गईं कि उस ज़मीन के 66.6 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल व्यावसायिक मकसद से आमदनी के लिए होगा और 33.3 प्रतिशत परिसर का इस्तेमाल समाचारों का व्यवसाय चलाने के लिए होगा. हालांकि, इसमें कुछ की शर्तें अलग भी थी लेकिन मोटे तौर पर इस व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाचार पत्रों को सरकार द्वारा पोषित करना था. ऐसी सोच थी कि ये व्यवस्था उन्हें विज्ञापन की आय के दबाव से बचाएगी. 

इसलिए आप पाएंगे कि तमाम बड़े मीडिया संस्थान बड़े शहरों में हजारों करोड़ की जमीन पर काबिज हैं. आप भूले न हों तो नेशनल हेराल्ड केस, इसी बारे में है कि कैसे कांग्रेस पार्टी इस भवन का इस्तेमाल समाचार पत्रों के लिए नहीं बल्कि व्यावसायिक तौर पर कर रही थी.  

एक और मजेदार बात बताता हूं. नेशनल हेराल्ड इस लीज़ समझौते का उल्लंघन करने वाला इकलौता संस्थान नहीं है. लेकिन ये इकलौता समाचार पत्र जरूर है जिसके खिलाफ हमारी जन सरोकारी सरकार ने इतनी आक्रामकता दिखाई है. हमारा मीडिया इस मुद्दे को लेकर अब इतना नरम पड़ चुका है कि उसे इस बात से फ़र्क़ ही नहीं पड़ता की इनमें से ज्यादातर इसी तरीके से करोड़ों कमा रहे हैं. 

इसके बाद बारी आती है जनता के पैसों से मीडिया को दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों की. जो लोग न्यूज़लॉन्ड्री से हाल ही में जुड़े हैं, उन्हें बता दें कि हमने इस पर साल 2013 और 2014 के बीच काफी रिपोर्टिंग की थी. हमने पाया था की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ‘भारत निर्माण’ के विज्ञापनों पर भारी खर्च कर रही थी जो बेहद घटिया किस्म के थे. इनमें हमें बताया जा रहा था कि यूपीए सरकार कितनी बढ़िया है. लिहाजा हमने इसकी जमकर खिल्ली उड़ाई थी. 

लेकिन यूपीए द्वारा बनाए गए इन पीएमएलए और यूएपीए जैसे कानूनों (जिन्हें यूपीए ने नागरिकों से लेकर विपक्ष और मीडिया तक, सभी पर अपना प्रभाव डालने का एक बहुत चतुर तरीका समझा) के बाद, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने भी सरकारी विज्ञापनों को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. इसका सीधा असर आपको आज हमारे हर दिन की मीडिया कवरेज में दिखता है जहां वह सरकार के लिए प्रॉपगैंडा चलाने का जरिया बन गया है.

मुझे नहीं लगता कि इसे और विस्तार से समझाने की जरूरत है. दूर क्यों जाते हैं, आप प्रधानमंत्री से पूछे जाने वाले सवालों को ही देख लीजिए. 

अब एक बार फिर से सरकार मीडिया संस्थानों के लिए मसीहा बनकर उभरी है. मोदी सरकार ने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए विज्ञापन दरों में 26 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी है. यह पैसा आपकी जेब से ही जाएगा. 

हमने पहले भी समाचारों पर हो रहे बेतहाशा सरकारी खर्च पर कई रिपोर्ट्स की हैं जिन्हें आप यहां, यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं. इसीलिए आप ये उम्मीद छोड़ दीजिए कि समाचार पत्र सरकार से सवाल पूछेंगे या कोई इन्वेस्टीगेशन करेंगे. ये तरीका अख़बारों को भी खबरिया चैनलों की बर्बादी वाले रास्ते ले जाएगा.

मोदी सरकार ने प्रिंट मीडिया के लिए विज्ञापन की दरों में 26 प्रतिशत का इजाफा कर कर दिया है. ठीक है. जवाब में न्यूजलॉन्ड्री और द न्यूज मिनट ने अपने सब्स्क्रिप्शन की कीमतों को 26 प्रतिशत घटा दिया है. यह ऑफर नवंबर का अंत तक जारी रहेगा. क्योंकि जब जब वो खर्च बढ़ाएंगे तब हम विज्ञापन मुक्त पत्रकारिता का खर्च घटायेंगे. 26 फीसदी छूट वाले ऑफर का लाभ उठाने के लिए यहां क्लिक करें और अपनी जिम्मेदारी निभायें. 

और अगर आप पहले से ही सब्स्क्राइबर हैं तो आपका बहुत धन्यवाद! साथ ही संभव हो तो हमारा यह ऑफर वाला सब्सक्रिप्शन उपहार के रूप में आगे बढ़ाएं, खासकर उस इंसान तक, जिसे लोकतांत्रिक ढांचे में मौजूद इस बड़ी बुराई को समझने की ज़रूरत है.

ये कोई कांग्रेस-भाजपा या एनडीए-यूपीए का मसला नहीं है. असल में यह पत्रकारिता के आर्थिक मॉडल की बात है. आपको यह अधिकार होना चाहिए कि आप किस तरह की पत्रकारिता का समर्थन करते हैं. एक बेहतर देश और बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है कि आप जानकारी से समृद्ध हों और जानकारी सरकारी दवाब से मुक्त हो. 

हमारा ये संदेश, हर उस शख्स तक पहुंचाइए जो स्वतंत्र मीडिया को समझता हो और उसकी अहमियत को जानता हो. और सरकार को भी जता दीजिए कि टैक्सपेयर के पैसे से मीडिया को दिए जाने वाले ‘अभय दान’ में वो भले 26 प्रतिशत की बढ़ोतरी करे लेकिन सब्सक्राइबर के दम पर चलने वाले मीडिया की वो बिल्कुल बराबरी नहीं कर सकता. 

क्योंकि जब सत्ता ताकत के घमंड में ऊंचा उड़ती है, तो हम ज़मीन पर खड़े रहकर सच दिखाते हैं. और जब लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला होता है तो हम आपके सहारे और मज़बूत होते हैं. 

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सरकार ने विज्ञापन की दरों में 26 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है लेकिन हम सब्सक्रिप्शन की दरें 26 फीसदी घटा रहे हैं. इस ऑफर का लाभ उठाइए और विज्ञापन मुक्त पत्रकारिता को सशक्त बनाइए.

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