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लखनऊ: स्वच्छ सर्वेक्षण और सड़कों पर डाले पर्दों के पीछे से आती सड़ांध
साल 2024–25 के स्वच्छ सर्वेक्षण में लखनऊ ने जबरदस्त प्रदर्शन किया.12500 में से 12001 यानि 96% अंकों के साथ लखनऊ शहर को देश में तीसरा स्थान मिला है. इसके अलावा 7 स्टार जीएफसी यानि गार्बेज फ्री सर्टिफिकेट और वाटर प्लस ओडीएफ सर्टिफिकेट का तमग़ा भी मिला और उत्तर प्रदेश में लखनऊ सबसे स्वच्छ शहरों में पहले स्थान पर है.
नगर निगम का दावा है कि यह तस्वीर पूरे शहर की है, तो हम निकल पड़े इस दावे की पड़ताल करने. कम से कम कागज़ पर तो यह उपलब्धियां वाक़ई काबिले तारीफ हैं. हालांकि, हकीकत इसके बिल्कुल बरअक्स नजर आती है. रिपोर्टिंग के दौरान हमने शहर के दो अलग-अलग चेहरे देखे. हज़रतगंज और गोमतीनगर जैसे इलाक़ों में चौड़ी, चमचमाती सड़कों पर नियमित सफाई, ग्रीन बेल्ट और रंगीन दीवारों से एक आदर्श शहर की छवि बनती है. यह वही हिस्सा है जिसे अक्सर नगर निगम और सरकारी विज्ञापन लखनऊ की उपलब्धि के प्रतीक के रूप में दिखाते हैं.
लेकिन जैसे ही कदम अनौपचारिक बस्तियों की ओर बढ़ते हैं, कहानी बदल जाती है. फ़ैज़ुल्लाहगंज, नवीन मंडी, वसंतकुंज, बालागंज, हुसैनाबाद, पीर बुखारा, मोती झील किनारे की झुग्गियां और कई अन्य इलाक़ों में गंदगी और कचरे के ढेर आम नज़ारा हैं. संकरी गलियों में नालियों और सड़क के बीच के फर्क करना मुश्किल होता है. बरसात के मौसम में यह पानी घरों तक पहुंच जाता है, जिससे डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है. कई परिवारों ने बताया कि कचरा गाड़ी हफ्ते में केवल दो–तीन बार ही आती है.
लखनऊ की उपलब्धियां निश्चित रूप से सराहनीय हैं, लेकिन आंकड़ों और धरातल के बीच का फासला साफ़ दिखता है.
देखिए यह रिपोर्ट -
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