Khabar Baazi
पीएम, सीएम और मंत्रियों की बर्खास्तगी वाले बिल पर बंट गए हिंदी- अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय
केंद्र सरकार द्वारा पेश किए गए उस विधेयक को लेकर संपादकीय पन्नों पर तीखी बहस छिड़ गई है, जिसमें प्रावधान है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या कोई मंत्री गंभीर आपराधिक आरोप में गिरफ्तार होकर 30 दिन से अधिक समय तक हिरासत में रहता है तो उसका पद स्वतः समाप्त माना जाएगा. सरकार इसे झूठे आरोपों से प्रतिष्ठा बचाने का कदम बता रही है, जबकि विपक्ष इसे जवाबदेही कम करने की कोशिश मान रहा है. साथ ही विपक्ष का आरोप है कि इसका इस्तेमाल विपक्ष की सरकारों और मंत्रियों को निशाना बनाने के लिए एक नए हथियार के रूप में हो सकता है.
आइए इस मुद्दे को लेकर आज के अखबारों ने अपने संपादकीय में क्या कुछ लिखा उस पर एक नजर डालते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि अखबारों की संपादकीय में इसे लेकर क्या रुख नजर आता है.
हिंदी के प्रमुख अखबारों में शामिल दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और हिंदुस्तान ने इस बिल को अपने संपादकीय में जगह दी है. वहीं, दो अन्य प्रमुख अखबारों ने अमर उजाला और जनसत्ता ने इस बिल को पर आज कोई संपादकीय नहीं लिखा.
इसके अलावा अंग्रेजी अखबारों की बात करें तो हिंदी के बनिस्पत उनमें भाषा ज्यादा तीखी और आलोचनात्मक तो है ही साथ ही इन्हें 'खतरनाक' तक कहा गया. इस मामले में प्रमुख तौर पर अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया का नाम लिया जा सकता है.
आइए पहले हिंदी अखबारों के संपादकीय पर एक नजर डालते हैं.
दैनिक भास्कर ने अपने संपादकीय में इस विधेयक को नैतिक राजनीति के लिए चुनौती बताया है. अख़बार ने आंकड़ों का हवाला देते हुए लिखा कि पिछले दस वर्षों में ईडी की द्वारा दायर मामलों में केवल 8 में सजा हुई है यानि दोषसिद्धि की दर केवल 0.13 प्रतिशत रही है. इसके अलावा ये भी उल्लेखनीय है कि करीब 193 जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
भास्कर ने लिखा है, “नए बिल को लेकर जहां विपक्ष सरकार की मंशा पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहा है, वहीं किसी आरोपी को महज आरोप के आधार पर पदमुक्त करना अपराधशास्त्र के मूल सिद्धांत- अपराध सिद्ध न होने तक निर्दोष मानना- के खिलाफ है. जमानत मिलने पर दोबारा पदासीन होना गर्वनेंस में निरंतरता की अवधारणा की अनदेखी भी है. पहले तो नेता नैतिक आधार पर इस्तीफा देते थे लेकिन बाद में इस आचरण-धर्म की अनदेखी होने लगी.”
हिंदुस्तान टाइम्स हिन्दी ने इसे संवैधानिक विमर्श का विषय बताते हुए राजनीतिक सहमति बनाते हुए दागी नेताओं के लिए कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया है. अख़बार का कहना है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो गिरफ्तारी की स्थिति में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री को इस्तीफा देने के लिए बाध्य करता हो.
संपादकीय में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से लेकर तमिलनाडु के मंत्री सेंथिल तक के उदाहरण शामिल किए हैं. साथ ही अखबार ने लिखा है कि पहली नजर में यह प्रावधान सामान्य दिख सकता है, लेकिन इसके गहरे और व्यापक निहितार्थ हो सकते हैं. अख़बार ने सुझाव दिया कि संयुक्त संसदीय समिति में गहन बहस हो ताकि यह कानून राजनीतिक प्रतिशोध का औज़ार न बन सके और संवैधानिक संतुलन कायम रहे.
हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा, “आज तो कोई दागी नेता पद नहीं छोड़ना चाहता है. ऐसे में, आज या कल, कुछ कानूनी प्रावधान ऐसे करने ही पड़ेंगे, ताकि दागियों के लिए जगह न रहे. अनेक कदम उठाने पड़ेंगे, लेकिन उससे पहले सबसे जरूरी है- राजनीतिक सहमति. सहमति या व्यापक बहुमत से हुआ सुधार ही ठीक से फलीभूत होता है.”
दैनिक जागरण ने इस पूरे विवाद पर सवाल उठाते हुए लिखा कि अगर कोई मंत्री गंभीर आरोप में जेल जाता है तो 30 दिन में स्वतः पदमुक्त होने पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए. अख़बार का मानना है कि विपक्ष अक्सर झूठे आरोप लगाकर नेताओं को बदनाम करता है, इसलिए इस विधेयक को लेकर हंगामा अनावश्यक है. जागरण का संपादकीय सरकार के तर्कों के क़रीब दिखाई देता है और इसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बचाने का प्रयास बताता है, न कि जवाबदेही से भागने की कोशिश.
अखबार ने लिखा, “क्या इसकी अनदेखी कर दी जाए कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगते हैं और कई बार प्रथम दृष्टया वे सही भी दिखते हैं, लेकिन कोई इस्तीफा देने की पहल नहीं करता है…. क्या विपक्ष यह चाहता है कि राजनीति में शुचिता और नैतिकता की स्थापना के लिए कुछ भी न किया जाए?”
वहीं, अंग्रेजी अखबारों की बात करें तो द इंडियन एक्सप्रेस ने इन विधेयकों को “गंभीर रूप से चिंताजनक कानून” कहा है, खासकर “ऐसे माहौल में जब मौजूदा सरकार ने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का हथियार की तरह इस्तेमाल करने में कोई हिचक नहीं दिखाई.”
संपादकीय में कहा गया, “[ये विधेयक] कार्यपालिका को राज्यसत्ता का और अधिक केंद्रीकृत और विस्तारित अधिकार देते हैं और सुरक्षा उपायों, संतुलन और नियंत्रण की व्यवस्थाओं को गंभीर रूप से कमजोर करते हैं. वे शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत को चोट पहुंचाते हैं और संघीय ढांचे की स्वायत्तता का उल्लंघन करते हैं.”
संपादकीय ने आगे लिखा कि ये विधेयक “बीजेपी के संदेहास्पद राजनीतिक हथियारों के भंडार को और बढ़ाते हैं”, खासकर तब, जब 2014 से अब तक “सीबीआई और ईडी द्वारा विपक्षी नेताओं को असमान रूप से निशाना बनाए जाने” के उदाहरण सामने आए हैं.
संपादकीय में आगे कहा गया कि संयुक्त संसदीय समिति को भेजे गए इन विधेयकों को आगे नहीं बढ़ना चाहिए. इन्हें खारिज कर देना चाहिए.”
द ट्रिब्यून के संपादकीय ने कहा कि ये विधेयक “खतरनाक नतीजों से भरे हुए हैं” और “संसदीय लोकतंत्र तथा संवैधानिक संघवाद की आत्मा पर चोट करते हैं.”
अखबार ने लिखा, “अब इन्हें संसद की संयुक्त समिति को भेजा गया है. ये विधेयक गिरफ्तारी और हिरासत के स्तर पर ही दोष सिद्ध मान लेते हैं जबकि मुकदमा शुरू भी नहीं हुआ है. यह स्थिति केंद्रीय जांच एजेंसियों जैसे सीबीआई और ईडी के संदर्भ में बेहद समस्याग्रस्त है, जो कथित अतिरेक को लेकर न्यायिक जांच के दायरे में हैं.”
आगे कहा गया, “आवश्यक है कि ऐसे रास्ते खोजे जाएं जिनसे दोषी मंत्री अपनी कुर्सियों से चिपके न रहें. निष्पक्ष और समयबद्ध जांच तथा शीघ्र मुकदमा अनिवार्य है ताकि दोष सिद्धि या निर्दोषता साबित हो सके. राजनीति में नैतिकता के लिए कानूनी ढांचा मज़बूत आधारों पर खड़ा होना चाहिए: यह केवल संदेह या राजनीतिक प्रतिशोध पर आधारित नहीं होना चाहिए.”
हिंदुस्तान टाइम्स के संपादकीय का शीर्षक था, “उपयुक्त, लेकिन व्यावहारिक नहीं”. संपादकीय में कहा गया कि संविधान संशोधन विधेयक शायद एक “आदर्श राज्य, जहां संस्थाएं मज़बूत हों और जांच एजेंसियां गैर-राजनीतिक हों” वहां ये उपयुक्त हो सकता था. लेकिन वर्तमान हालात “आदर्श से बहुत दूर” हैं.
संपादकीय में कहा आगे कहा गया, “भारतीय राजनीति शायद ही कभी इतनी ध्रुवीकृत रही हो: सरकार और विपक्ष के बीच किसी भी कार्य संबंध का पूरी तरह टूट जाना; राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में जनविश्वास का निचले स्तर पर होना; अधिकांश संस्थाओं और पुलिस बलों का राजनीतिकरण हो जाना; और देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा बार-बार केंद्रीय एजेंसियों की जांचों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना. ऐसे माहौल में यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि ये तीन विधेयक पुलिस या जांच एजेंसियों को राजनीतिक हथियार में बदल सकते हैं, जैसे एक समय अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल गैर-मित्र सरकारों को अस्थिर करने के लिए किया गया था.”
द टाइम्स ऑफ इंडिया ने आज अपने संपादकीय में कहा कि विधेयक “दोषसिद्धि से हिरासत” तक का गोलपोस्ट खिसका देते हैं, जो “मूलभूत कानूनी सिद्धांत- जब तक दोष सिद्ध न हो, निर्दोष माना जाए- के खिलाफ है.”
अखबार ने लिखा, “जैसा कि मौजूदा प्रावधान हैं, वे प्रक्रिया के अधिकार की धारणा को दरकिनार करते दिखते हैं. हां, यह तर्क दिया जा सकता है कि गंभीर अपराधों में आरोपितों को इस्तीफा दे देना चाहिए. लेकिन कोई कानून, जो केवल एक महीने की कैद पर पदच्युत करता है, वह जनता की इच्छा- यानी जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को केवल दोषसिद्धि के बाद ही पद के लिए अयोग्य माना जा सकता है- को नज़रअंदाज करता है.”
अखबार ने लिखा कि संयुक्त संसदीय समिति को इसी सिद्धांत से काम करना चाहिए और संशोधन सुझाने चाहिए… आखिरकार केवल राजनीतिक दल ही इन परिणामों को बदल सकते हैं. जहां तक कानूनों की बात है, उन्हें सुव्यवस्थित और सर्वमान्य सिद्धांतों का सम्मान करना चाहिए.
इस तरह देखें तो हिंदी और अंग्रेजी अख़बारों के संपादकीय साफ तौर पर इस मामले को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं. ऐसे में सवाल यह है कि क्या यह राजनीतिक प्रतिशोध का औज़ार बन सकता है या झूठे मामलों से बचाव की ढाल साबित होगा?
समाधान शायद उसी दिशा में है जहां संवैधानिक जवाबदेही और राजनीतिक शुचिता दोनों का संतुलन बने. लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब कानून, राजनीति और नैतिकता एक-दूसरे को संतुलित करें, न कि एक-दूसरे पर हावी हों.
भ्रामक और गलत सूचनाओं के इस दौर में आपको ऐसी खबरों की ज़रूरत है जो तथ्यपरक और भरोसेमंद हों. न्यूज़लॉन्ड्री को सब्सक्राइब करें और हमारी भरोसेमंद पत्रकारिता का आनंद लें.
Also Read
-
‘Why can’t playtime be equal?’: A champion’s homecoming rewrites what Agra’s girls can be
-
Pixel 10 Review: The AI obsession is leading Google astray
-
Do you live on the coast in India? You may need to move away sooner than you think
-
TV Newsance 321: Delhi blast and how media lost the plot
-
Bihar’s verdict: Why people chose familiar failures over unknown risks