Book Review
गीताश्री की कहानियां: कस्बाई महिलाओं की उपस्थिति का ऐलान
अंग्रेज़ उपन्यासकार डीएच लॉरेंस ने अपने विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘द फर्स्ट लेडी चैटर्ली लवर’ में एक जगह लिखा है- ‘इच्छाओं और कामनाओं का परवाह ही जीवन है.’
डी.एच. लॉरेंस ने यह बात अपने उपन्यास की नायिका के लिए कही थी, जो न केवल समृद्ध थी बल्कि अपने अधिकारों के प्रति सचेत भी थी. गीताश्री की नायिकाएं असंख्य हैं. वे न तो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं और न ही अपने अधिकारों के प्रति उतनी सचेत. फिर भी लॉरेंस की यह पंक्ति जितनी उनके उपन्यास की नायिका के लिए कही गई है, उससे कहीं ज्यादा गीताश्री की कहानियों की नायिकों के प्रति कही जान पड़ती है.
गीताश्री का कहानी संग्रह ‘कामनाओं की मुंडेर पर’ उन नायिकाओं के व्यक्तित्व का समुच्च्य है, जिनकी कामना हम अपने समाज, अपने घर और अपने आस-पास होने की करते हैं, मगर अपने पुरुषोचित स्वभाव के कारण हम अपनी ज़िंदगी में उन्हें शामिल करने से क़तराते हैं. किन्हीं कारणों-वश अगर इस तरह की आज़ाद ख़्यालों वाली स्त्री हमारे जीवन में आ जाती हैं और अपने अधिकारों को खुलकर प्रयोग करने लगती हैं, तो वह एक तरह से हमारे लिए समस्या बन जाती है. हालांकि, अगर इन नायिकाओं और उनकी बातों को मनुष्यत्व के आईने में देखा जाए तो उनके अधिकार, उनकी आज़ादी और उनके सपने ‘समस्या’ से ज्यादा उनकी मनुष्योचित इच्छा ही नज़र आती हैं.
अपने इस संग्रह में गीताश्री ने दस कहानियों को शामिल किया है. संग्रह की हर कहानी अपनी पृष्ठभूमि, पारिवारिक स्थिति और नायक-नायिकाओं की विभिन्न समस्याओं का बयानिया होते हुए भी एक-सी जान पड़ती है. इन कहानियों में दिल्ली जैसे महानगरों में गांव-देहात से आकर बसने वाले प्रवासी परिवारों की रूदाद है तो अपर क्लास लोगों का टीसता हुआ अकेलापन भी है. कस्बों का पारिवारिक जीवन है तो उनमें किसी ज़हरीले सांप की तरह फुंफकारता जातिवाद भी है.
इसमें संदेह नहीं कि लेखिका का आबाई इलाक़ा होने के कारण संग्रह की ज़्यादातर कहानियों की पृष्ठभूमि बिहार और उसका लोक है. इस लोक में बसने वाले परिवार, ऊंची जातियों द्वारा नीची जाति के लोगों के साथ किए जाने वाला व्यवहार, नीची जातियों का भी अपने से नीची जातियों के साथ मेल-जोल और उस पर राजनीति का तड़का एक अलग ही आस्वाद पैदा करता है. इन कहानियों से गुज़रते हुए यूं लगता है कि जैसे हम ख़ुद उस लोक हिस्सा हैं और जो कुछ भी कहानी में हो रहा है, वह हमारे आस-पास ही घटित हो रहा है.
गीताश्री की कहानियों की इन्हीं विशेषताओं पर वरिष्ठ लेखिका वंदना राग कहती हैं, ‘गीताश्री हमारे समय की एक विशिष्ट रचनाकार हैं. पत्रकारिता के प्रशिक्षण ने उन्हें एक ऐसी सूक्ष्म दृष्टि प्रदान की है, जो उनके थीम्स के चयन के मार्फ़त हमें चौंकाती है और एक नई दुनिया को बिना किसी मिलावट के हमारे सामने नग्न कर देती है. समाज की रूढ़ियों, वर्जित विषयों और हाशिये पर खड़े लोगों पर गीताश्री ने संवेदनशील कहानियां लिखी हैं. उनमें से कुछ उनके इस संग्रह में शामिल हैं. उसकी बानगी है 'न्याय चक्र'. जाति व्यवस्था किस तरह सामूहिक वर्ग-भेद (क्लास सिस्टम) के भीतर बनी रहती है और हाशिये का समाज कैसे इस दोहरी मार से उबर नहीं पाता है, इसका अद्भुत विश्लेषण करती है यह कहानी.’
सामूहिक वर्ग-भेद केवल बिहार ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत में कितने गहरे तक व्याप्त है, इस बारे में हममें से हर कोई जानता है, चाहे वह हिंदू धर्म से संबंधित हो या किसी अन्य धर्म से. मगर यह सामूहिक वर्ग-भेद अपने जिस हिंसक और वीभत्स रूप में बिहारी समाज में पूरी स्पष्टता के साथ नज़र आता है, यह भी सच है कि उतना शायद ही किसी और क्षेत्र में नज़र आता हो. बिहारी समाज में गहरे तक पैठ जमाए इस जातिवाद को उस क्षेत्र से आने वाले हर लेखक ने महसूस किया है, चाहे वह रेणु हो, दिनकर हो या फिर बाबा नागार्जुन हो.
गीताश्री की इन कहानियों से हमें यह भी मालूम होता है कि भले ही हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गए हो मगर हमारा समाज मानसिक रूप से अभी भी आदिम युग में ही सांस ले रहा है.
गीताश्री के इस संग्रह की यह भी अपनी एक विशेषता है कि इस संग्रह में भले ही जातिवाद पर आधारित कहानियों का बहुमत हो फिर भी इसमें अन्य क्षेत्रों की कहानियां भी पूरी मजबूती के साथ अपनी वास्तविकताओं में दर्ज हुई हैं. संग्रह की पहली कहानी ‘अफ़सानाबाज़’ कश्मीर पर लिखी गई है.
सरकार और गोदी मीडिया चाहे कुछ भी कहे, कश्मीर में कश्मीरी लोग किन स्थितियों में सांस ले रहे हैं, यह हम सब जानते हैं. यह एक माना हुआ तथ्य है कि कश्मीर पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा सैनिकों की मौजूदगी वाला क्षेत्र है, जो इस तथ्य को और स्पष्ट करता है कि कश्मीर भले ही कविताओं में ‘जन्नातुल फ़िरदौस’ हो मगर वास्तविकता में वह एक खुली जेल से ज़्यादा कुछ भी नहीं है.
गीताश्री की यह कहानी एक ऐसी महिला के ज़रिये आगे बढ़ती है, जो महानगर की एकरस ज़िंदगी से ऊबकर सुकून की तलाश में कश्मीर जाती हैं. कश्मीर में उसका गाइड, जो एक नौजवान कश्मीरी है, वह अपने दुख के साथ उसके दुख को जज़्ब करके कम करने की नाकाम कोशिश करता है. कहानी नायिका के अतीत और कश्मीर की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार घटनाओं के साथ आगे बढ़ती है.
इस कहानी के बारे में वरिष्ठ कथाकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मृदुला गर्ग लिखती हैं, ‘'हंस' में कहानी 'अफ़सानाबाज़' पढ़ी. दर्द को मन में पूरी तरह जज़्ब करके लिखी है यह कहानी, जो कहानी नहीं, सच लगती रहती है बराबर. उनके पहाड़ जैसे सन्ताप के सामने हमारे अपने निजी दुख कितने छोटे नज़र आने लगते हैं. गीताश्री ने लिखी नहीं, कहानी जी है.’
मृदुला गर्ग ने जो बात संग्रह की कहानी ‘अफ़सानाबाज़’ के लिए कही है, वह संग्रह की लगभग हर कहानी के लिए कही जा सकती है.
संग्रह की कहानी ‘श्मशान वैराग्य’ दो औरतों की कहानी है, जो घर-परिवार में अपनी स्थिति को लेकर संघर्षरत है. मगर इन दोनों का संघर्ष केवल घर-परिवार में अपनी स्थिति को लेकर होने वाला रिवायती ही संघर्ष नहीं है, बल्कि उनका यह संघर्ष धर्म और आधुनिकता के बीच का संघर्ष भी है. यह हिंदू धर्म में औरतों की स्थिति का संघर्ष भी है, जो आज भी अपने धर्म-ग्रंथों और प्रथाओं के ज़रिये औरत को उसी हाल में रखने के लिए आतुर है, जिसमें वह आज से एक हज़ार साल पहले थी.
आधुनिकता का जो पुट हमें संग्रह की ‘श्मशान वैराग्य’ कहानी में नज़र आता है, वही तीख़ापन इससे अगली कहानी में जाकर अपनी पूरी व्यापकता के साथ दृष्टिगोचर होता है, जहां किशोर युवक-युवतियां मोबाइल और इंटरनेट के ज़रिये अपने कौशल को न सिर्फ़ निख़ार रहे हैं, उससे पैसा कमा रहे हैं.
‘सरकार से नाराज़ नहीं है ब्यूटी चौरसिया’ ऐसी ही एक देहाती लड़की की कहानी है, जो अपने शॉर्ट्स वीडियो के ज़रिये सोशल मीडिया पर मशहूर हो जाती है. मगर उसकी ज़िंदगी में भूचाल तब आता है, जब एक सुबह वह सोकर उठती है और देखती है कि उसका सोशल मीडिया अकाउंट हैक हो चुका है. उसके साथ पहली बार नहीं हुआ है. भले ही पहली बार उसका सोशल मीडिया अकाउंट्स हैकर्स के द्वारा हैक हुआ है, मगर इससे पहले भी वह ऐसे ही एक और हादसे की शिकार तब हुई थी, जब केंद्र सरकार ने चीनी सोशल मीडिया ऐप टिकटॉक पर राष्ट्रव्यापी बैन लगा दिया था.
सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले ऐसे किशोर के साथ इस तरह के हादसे किसी सदमे से कम नहीं होते. फिर भी वे अपनी अदम्य जीजीविषिका के चलते दोबारा उठ खड़े होते हैं और अपनी ज़िंदगी को फिर से, वहीं से शुरू करते हैं, जहां से वह एक बार पहले ही कर चुके होते हैं.
गीताश्री की स्त्री नायिका वैसे नायिकाएं नहीं हैं, जिन्हें अभी तक हम हिंदी साहित्य में देखते रहे हैं. जो अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए पुरुषों पर आश्रित होती रही हैं. गीताश्री की नायिकाएं आधुनिक स्त्री की उन्मुक्त उड़ान भरती नज़र आती हैं. वे अपना आकाश चाहती हैं. जीवन को अपने तरीक़े से जीना चाहती हैं. अपनी कामनाओं और इच्छाओं के प्रवाह में बह जाना चाहती है.
सरल और सहज ढंग से कही गई इन कहानियों में क़िस्सापन का ऐसे पुट समाहित है कि पढ़ते हुए पाठक कई बार खिलखिला कर हंस पड़ता है तो अगले ही पल अफ़सोस के साथ यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि आज के युग में भी हमारे समाज में यह सब हो रहा है.
हंस के संपादक और कथाकार संजय सहाय गीताश्री की इन्हीं नायिकाओं के लिए कहते हैं- गीताश्री की कहानियों में आधुनिक स्त्री की उन्मुक्त उड़ान है तो परम्पराओं में क़ैद नारी की यौनिक आज़ादी व स्वतंत्र अस्तित्व के लिए छटपटाहट भी. वे अपनी कहानियों में लोक कथाओं का बघार लगाना भी बख़ूबी जानती हैं. गीता की समस्या यह है कि वे साहित्य की मर्दवादी दुनिया में एक एनिग्मा की तरह देखी जाती हैं. जो भी हो, आप उनकी कहानियों की आलोनचा कर सकते हैं, आप उनकी कहानियां की प्रशंसा कर सकते हैं किन्तु अप्रभावित नहीं रह सकते.
समीक्षक शहादत, युवा कथाकार और अनुवादक है.
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