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कोविड काल में मीडिया: जबरन इस्तीफ़े, वेतन में कटौती, सरकारी निर्देशों की अनदेखी
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 महामारी के दौरान नौकरी से निकाले गए लगभग 80 प्रतिशत पत्रकारों को इस्तीफा देने, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति और पदों से बर्खास्तगी के लिए मजबूर किया गया था. केवल 37 प्रतिशत ही ऐसे थे, जिनको सेवानिवृत्ति भत्ता दिया गया.
यह रिपोर्ट प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के एक जांच पैनल द्वारा कोविड की पहली लहर के बाद मीडिया जगत में भारी पैमाने पर कम हुई नौकरियों के बाद तैयार की गई. इस संबंध में अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, बंगाली भाषाओं के 17 समाचार संगठनों, 12 पत्रकार यूनियन और एसोसिएशनों के कुल 51 पत्रकारों ने समिति के समक्ष गवाही दी थी.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पत्रकारों को "अनिवार्य कर्मचारी " घोषित करने के बावजूद इसे व्यावहारिक तौर पर लागू करने के लिए बहुत कम काम किया गया. साथ ही, रिपोर्ट में अधिकारियों और समाचार संगठनों की ओर से गंभीर चूक की ओर भी इशारा किया गया है.
सरकार ने मार्च 2020 में मीडिया को आवश्यक सेवा घोषित किया था और श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने एक एडवाइजरी प्रकाशित की थी, जिसमें सभी मीडिया के मालिकों से कर्मचारियों की सेवाएं समाप्त न करने या उनके वेतन में कटौती न करने को कहा गया था. लेकिन रिपोर्ट में बताया गया कि अधिकांश मीडिया कंपनियों ने केंद्र सरकार के इस निर्देश की अनदेखी की.
एक उपसमिति द्वारा तैयार कथित रिपोर्ट को दो बार गठित करना पड़ा था. पहली बार इसका कार्यकाल समाप्त होने के कारण और दूसरी बार महामारी के कारण काम बाधित होने के कारण.
समिति ने जहां अपने पहले कार्यकाल में मीडिया आउटलेट्स से कुछ आंकड़े और प्रतिक्रियाएं प्राप्त की थी वहीं अपने दूसरे कार्यकाल में राज्य श्रम आयुक्तों को पत्र, प्रेस विज्ञप्ति और उसके बाद एक ऑनलाइन फ़ॉर्म के साथ-साथ दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में सार्वजनिक सुनवाई के माध्यम से जानकारी एकत्र करने का निर्णय लिया.
बता दें कि पहली उप समिति का गठन दिसंबर 2020 में किया गया था, और अंतिम रिपोर्ट पर इस साल 28 अगस्त को हस्ताक्षर किए गए थे.
छंटनी और प्रशंसापत्र
रिपोर्ट के अनुसार, महामारी के दौरान लगभग 2,500 पत्रकारों की छंटनी की गई. (पूर्व पीसीआई सदस्य बलविंदर सिंह जम्मू और स्वतंत्र पत्रकार सिरिल सैम के स्वतंत्र रूप से किए गए आकलन /जांच/शोध के अनुसार). वास्तविक आंकड़े इससे भी अधिक होने की संभावना है, क्योंकि उनका डेटा मुख्यतः अंग्रेजी भाषा के मीडिया तक ही सीमित है.
समिति के समक्ष गवाही देने वाले पत्रकारों में से केवल 25 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें छंटनी के बारे में अपनी कंपनियों से औपचारिक ईमेल प्राप्त हुए, जबकि लगभग 75 प्रतिशत ने कहा कि पद से हटाने के बारे में जानकारी केवल मौखिक रूप से दी गई. इस संबंध में लगभग सारे पत्रकारों के अनुभव एक जैसे ही थे.
गवाही के लिए समिति के समक्ष उपस्थित में 80 प्रतिशत पत्रकारों ने दावा किया कि उन्हें “इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया” और उन्हें वेतन कटौती और छंटनी के बारे में कोई अग्रिम सूचना या किसी भी प्रकार की औपचारिक बातचीत नहीं की गई.
स्वतंत्र पत्रकार कविता अय्यर, जिन्हें कंपनी में 18 साल बिताने के बाद 27 जुलाई, 2020 को इंडियन एक्सप्रेस के मुंबई ब्यूरो से हटा दिया गया था, ने कहा कि उन्हें एक बैठक में बताया गया कि उन्हें “इस्तीफा देना होगा” और रिलीविंग लेटर स्वीकार करना होगा या उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा. इंडियन एक्सप्रेस की तत्कालीन एसोसिएट एडिटर को भी अपना फोन बैठक कक्ष के बाहर छोड़ने को कहा गया.
रिपोर्ट में 2020 में अपने सहकर्मियों को भेजे गए एक ईमेल का भी हवाला दिया गया है. उसने लिखा था कि अगर उसे कुछ दिन पहले भी सूचित किया गया होता, “यह बताते हुए कि नौकरियां अपरिहार्य रूप से जाने वाली हैं और यह पूर्णत: एक व्यावसायिक निर्णय है जिसका मेरे काम पर कोई असर नहीं पड़ता, तो भी मैं बाहर निकलने से नाखुश होती, लेकिन इस संगठन और मानवता के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर मेरा गर्व बना रहता. यह दुख की बात है कि हम सभी अब थोड़े कम मानव और थोड़े ज़्यादा ‘दानव’ (वायरस) बन गए हैं.”
बेनेट कोलमैन के मुंबई मिरर में कार्यरत फोटोग्राफर दीपक तुर्भेकर को जनवरी 2021 में एचआर द्वारा व्हाट्सएप कॉल के जरिए इस्तीफा देने के लिए कहा गया था. रिपोर्ट में समिति ने उनके बयान के हवाले से कहा है, "मुझे जब पहली बार इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो मैंने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया. लेकिन इसके बाद कुछ हफ्तों तक इस्तीफे को लेकर व्हाट्सएप कॉल पर मुझे दिन में कई बार परेशान किया गया."
तुर्भेकर समिति के समक्ष अपनी वित्तीय स्थिति और आर्थिक संघर्ष के बारे में बात करते हुए रो पड़े.
उन्होंने कहा, “16 साल तक कंपनी के लिए काम करने के बाद उन्हें एक महीने का वेतन मुआवज़े के तौर पर दिया गया. उन्होंने मुंबई में अपने घर का लोन चुकाने के लिए पीएफ के पैसे का इस्तेमाल किया और गिरवी के तौर पर अपना बीमा सरेंडर कर दिया. इसके अलावा, उन्हें अपनी बड़ी बेटी की शिक्षा के लिए अपनी पत्नी के गहने बेचने पर मजबूर होना पड़ा. उनका एक छोटा बेटा है, जो तीसरी कक्षा में पढ़ता है.”
रिपोर्ट में आगे तुर्भेकर के हवाले से कहा गया है कि उनके पास फोटोग्राफी के लिए आवश्यक उपकरण खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं और वह अब न्यूज़ फोटोग्राफी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह नौकरी टिकाऊ नहीं है.
3 अगस्त, 2020 को लिंक्डइन पर समाचार संगठनों को लिखे एक खुले पत्र में आशीष रुखैयार, जिन्हें उसी वर्ष जून में द हिंदू से निकाल दिया गया था, ने कहा कि पत्रकारों को फोन पर बर्खास्त कर दिया गया और कुछ को कार्यालय बुलाकर तुरंत इस्तीफा देने के लिए कहा गया.
रिपोर्ट में पत्र के हवाले से कहा गया है, "उन्हें धमकी दी गई कि यदि वे इस्तीफा नहीं देंगे तो उन्हें कानून के तहत मिलने वाले भुगतान से वंचित कर दिया जाएगा. यह विशुद्ध पागलपन था,जिसमें कोई तरीका और कोई नियम नहीं था. पहले से कोई ज्ञापन नहीं, कार्य स्तर सुधारने के लिए कोई चेतावनी नहीं, मूल्यांकन को लेकर किसी तरह का रेड फ्लैग नहीं ”
इस संबंध में गवाही देने वाले लगभग 80 प्रतिशत लोग तीन प्रमुख प्रकाशकों से थे. इनमें बेनेट कोलमैन से 19, एचटी मीडिया से 14 और द हिन्दू से आठ लोग शामिल थे. ये सभी मुख्य रूप से दिल्ली और मुंबई में स्थित हैं.
पहले चरण को लेकर मीडिया आउटलेट्स की प्रतिक्रिया
पीसीआई ने 15 मार्च, 2021 को द टेलीग्राफ, हिंदुस्तान टाइम्स, सकाळ टाइम्स, गोमांतक टाइम्स, विकान्तक, टाइम्स ग्रुप, द हिंदू, डेली एतेमाद, द सियासत और बिजनेस स्टैंडर्ड को दो भागों वाली प्रश्नावली भेजी. प्रश्नावली का भाग 1 महामारी के दौरान शटडाउन, छंटनी, नौकरी छूटना, सेवानिवृत्ति, अनुबंध समाप्ति और इस्तीफे से संबंधित था. इसमें कर्मचारियों की संख्या, वेतन कटौती की गुंजाइश और विभागीय पुनर्गठन के बारे में जानकारी मांगी गई.
इस बीच, भाग 2 पत्रकारों पर कोविड के प्रभाव से संबंधित था. इसमें कर्मचारियों के कोरोना संक्रमण को लेकर जानकारी, संगठनात्मक प्रोटोकॉल, पीपीई के लिए प्रावधान से संबंधित सवाल थे.
टेलीग्राफ और टाइम्स ग्रुप ने अपने जवाब में कहा कि पत्रकारों के निष्कासन या बर्खास्तगी का मामला कर्मचारी और नियोक्ता से संबंधित है और यह पीसीआई के “अधिकार क्षेत्र से बाहर” है.
सकाल टाइम्स और गोमांतक टाइम्स ने कहा कि कर्मचारियों ने “स्वेच्छा से इस्तीफा दिया” और उनके प्रिंट संस्करण हमेशा के लिए बंद हो गए. हालांकि, उन्होंने प्रभावित पत्रकारों की संख्या का उल्लेख नहीं किया.
विकान्तक ने कहा, "100 कर्मचारियों ने स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया" और एक कर्मचारी जिसे 8 जुलाई, 2020 को निकाल दिया गया था, उसने औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत विवाद उठाया था.
द हिंदू ने बताया कि उसने जुलाई 2020 में अपना मुंबई संस्करण बंद कर दिया और प्रभावित पत्रकारों की संख्या का उल्लेख नहीं किया.
इस बीच, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स ने जवाब दिया कि उन्होंने कानूनी दायित्वों का पालन किया है और शिकायत करने वाला कोई भी कर्मचारी उचित मंच से संपर्क कर सकता है.
हिंदुस्तान टाइम्स ने कहा कि प्रिंट मीडिया “निकट भविष्य में पतन के कगार पर है, जिसके परिणामस्वरूप और भी अधिक नौकरियां खत्म हो जाएंगी और प्रिंट मीडिया को अपूरणीय क्षति भी हो सकती है.
पत्रकारों पर प्रभाव और सरकारी निर्देशों की अनदेखी
समिति के समक्ष गवाही देने वाले पत्रकारों के अनुसार, जहां छंटनी से पत्रकारों पर भावनात्मक प्रभाव पड़ा, वहीं उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को भी गहरा धक्का लगा.
30 पत्रकारों ने अवसाद की शिकायत की और 27 ने सामाजिक अलगाव का अनुभव किया. विशेष तौर पर वरिष्ठ पत्रकार भावनात्मक रूप से सबसे अधिक प्रभावित हुए.
रिपोर्ट में कहा गया है, "यह प्रत्यक्ष सुनवाई के दौरान भी देखा गया, जहां कई वरिष्ठ पत्रकारों को भावनात्मक उथल-पुथल का सामना करना पड़ा और इन बातों का ज़िक्र करते हुए वे समिति के समक्ष रो पड़े."
पत्रकार बिना किसी सुरक्षा उपकरण और संस्थागत सहायता के, अस्पतालों, शवदाह गृहों और समाचार कक्षों सहित अग्रिम मोर्चे पर लंबे समय तक काम कर रहे थे.एनडब्ल्यूएमआई के अनुसार, 626 पत्रकार अपना कर्तव्य निभाते हुए मारे गये.
रिपोर्ट में न्यूज़लॉन्ड्री और कारवां की रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा गया है कि कम से कम दो न्यूज़रूम कोविड हॉटस्पॉट के रूप में उभरे हैं, जहां से वायरस अपने समुदायों में फैल रहा है.
समाचार मीडिया को 'आवश्यक श्रमिकों' की श्रेणी में शामिल करने का तर्क यह मान्यता थी कि समाचार और सूचना का प्रसार विशेष रूप से संकट की अवधि के दौरान बहुत महत्वपूर्ण है जब लोग दैनिक आधार पर बदलती महामारी की स्थिति से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और जब सूचना के अनौपचारिक चैनलों में अफवाहों के कारण लोगों की समझ धुंधली हो रही है.
हालांकि, हमें यह दर्ज करना होगा कि अधिकांश मीडिया कंपनियों ने ‘आवश्यक कर्मचारियों’ के निर्देश को नजरअंदाज कर दिया और उन्होंने केंद्र सरकार के निर्देश के प्रति बहुत कम सम्मान दिखाया, और अपनी मर्जी से पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया और उनकी छंटनी कर दी.”
रिपोर्ट में कहा गया है, "पत्रकारों के लिए खराब नौकरी सुरक्षा ने उन्हें कोविड-19 अवधि के दौरान विशेष रूप से असुरक्षित बना दिया, जहां कुछ प्रबंधन महामारी के वित्तीय संकट का उपयोग रोजगार के स्तर को कम करने के बहाने के रूप में करते दिखे, जो उनकी वित्तीय आवश्यकताओं के अनुसार उचित नहीं था."
प्रस्तावित अनुशंसाएं: अनुबंध बीमा और जागरूकता
समिति के समक्ष उपस्थित पत्रकारों और सम्बंधित यूनियन ने इस बात पर प्रकाश डाला कि लिखित अनुबंध, स्वास्थ्य बीमा, ग्रेच्युटी भुगतान जैसी सामान्य रोजगार शर्तें मीडिया उद्योग में मौजूद नहीं हैं, “जिससे काम पर रखने और निकालने के चलन को बढ़ावा मिलता है.”
पैनल ने सरकार के साथ-साथ औद्योगिक निकायों से पत्रकारों के लिए एक मानक/मॉडल अनुबंध शुरू करने का आग्रह किया, जिसमें “कुछ अनिवार्य खंड को शामिल किया जा सकता है. जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ न्यूनतम सेवा अवधि– 7 से 10 वर्ष, पीएफ, ग्रेच्युटी, ईएसआई ,और छुट्टी के प्रावधान साथ-साथ वेतन में वार्षिक वृद्धि इत्यादि जैसे प्रावधान भी शामिल हो सकते हैं.”
इसमें कहा गया है कि केंद्र को पत्रकारों को नौकरी से निकाले जाने के विषय में वार्षिक तौर पर आंकड़ों को मैपिंग करने की जरूरत है
रिपोर्ट में कहा गया है, "हमने देखा है, बड़ी संख्या में नौकरियों के नुकसान से हमारे सूचना तंत्र की गुणवत्ता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इसलिए नियमित निगरानी से हमें इस समस्या से अधिक प्रभावी ढंग से निपटने में मदद मिलेगी."
इसमें कहा गया है कि यदि पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा नहीं मिलेगी तो प्रेस की स्वतंत्रता से समझौता होगा.
पैनल ने सिफारिश की है कि पत्रकारों को प्राकृतिक आपदाओं या वैश्विक महामारी जैसी घटनाओं के लिए बीमा प्रदान किया जाना चाहिए, लंबित श्रम विवादों को तेजी से निपटाया जाना चाहिए, मुआवजे और लाभों को सुनिश्चित किया जाना चाहिए. जो पत्रकारों को नहीं दिया जाता है. सरकार को पत्रकारों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कदम उठाए जाने चाहिए.
इसमें पत्रकारों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया. साथ ही एक चेकलिस्ट की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया, जिससे उन्हें रोजगार अनुबंधों में आमतौर पर भ्रामक प्रावधानों की पहचान करने में मदद मिल सके.
इसमें यह भी कहा गया है कि बड़ी संख्या में पत्रकार यूनियनों ने श्रम आयुक्तों और अदालतों के समक्ष शिकायत पत्र के साथ-साथ कानूनी कार्यवाही भी की थी, लेकिन कार्यवाही में हुई देरी ने उनका मनोबल और गिरा दिया.
मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
अनुवादः संध्या वत्स
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