Report
मुजफ्फरनगर में दलित युवक की मौत में कांवड़ियों का हाथ और पुलिस की संदिग्ध भूमिका
23 जुलाई का दिन था. मोहित कुमार हर रोज की तरह खतौली, मुजफ्फरनगर में अपनी ई-रिक्शा पर सवारियां ढो रहा था. इस बीच उसका ई-रिक्शा एक कांवड़िये को छू गया. आरोप है कि इसके बाद कांवड़ियों ने मोहित की बुरी तरह पिटाई कर दी और ई-रिक्शा भी तोड़ दी.
मामले में बीच बचाव करने स्थानीय पुलिस भी पहुंच गई. किसी तरह कांवड़ियों को शांत किया. घायल मोहित को खतौली स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया. जहां प्राथमिक उपचार के बाद उसे मुजफ्फरनगर स्थित जिला अस्पताल में रेफर कर दिया गया लेकिन मोहित के परिजन उसे अस्पताल की बजाए घर ले गए.
उसका गांव में उपचार कराया जाने लगा. इस बीच 28 तारीख की शाम को उसके पूरी शरीर में दर्द होने लगा. परिजन उसे अस्पताल ले गए. जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. परिवार मोहित के पार्थिव शरीर को घर ले आया और उसकी अंत्येष्टि कर दी. इसके बाद इस मामले ने नया मोड़ ले लिया.
दरअसल, अंतिम संस्कार के बाद परिवार ने आरोप लगाया कि मोहित की मौत कांवड़ियों की पिटाई से हुई. वहीं, पुलिस ने बचाव में कहा कि उसकी मौत बीमारी से हुई है. लेकिन जो पंचनामा या पोस्टमॉर्टम मोहित की मौत की वजह का खुलासा करता वह समय रहते हो नहीं पाया.
पुलिस का कहना है कि मोहित के परिवारवालों ने पंचनामे से मना कर दिया. वहीं, परिवार पुलिस पर आरोप लगा रहा है. उनका कहना है कि पुलिस ने उनसे जैसा कहा उन्होंने वैसा ही किया.
अब इस मामले में दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने जब इस मामले की पड़ताल की तो पाया कि पुलिस ने इस मामले में खुलकर ढिलाई बरती. मोहित की पिटाई वाले दिन से लेकर उसकी मौत के दिन तक की कार्रवाई ने पुलिस की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं. अब मोहित की मौत के जिम्मेदार आरोपियों को सजा दिलाने वाली पुलिस खुद आरोपी बनकर कठघरे में खड़ी है. परिवार का आरोप है कि पुलिस ने उनकी गरीबी और अशिक्षा का फायदा उठाकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की. आइए सिलसिलेवार ढंग से पूरे मामले को समझते हैं.
23 जुलाई को क्या हुआ?
उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर के गांव- रायपुर नंगली निवासी मोहित कुमार पिछले 8-9 महीने से खतौली में ई-रिक्शा चला रहे थे. यह रिक्शा उन्होंने किसी से खरीदा था. फिर 23 जुलाई को उसके साथ घटना हो गई. फिलहाल टूटा हुआ रिक्शा उनके एक दोस्त के घर खड़ा है. 7वीं तक पढ़े मोहित पहले मजदूरी करते थे और वह पांच भाइयों में सबसे छोटे थे.
23 जुलाई की घटना को लेकर उनके बड़े भाई वकील कुमार बताते हैं, “हमें किसी का फोन आया कि आपका भाई खतौली के सरकारी अस्पताल में भर्ती है. जब हम वहां पहुंचे तब तक पुलिस ने उसकी पट्टी वगैरह करवा दी थी. हमें लगा कि मामूली चोटें हैं, ठीक हो जाएंगी. लेकिन घर आने पर पता चला कि उसको काफी गुम चोटें थी. इसके बाद हमने उसका चार दिनों तक गांव के ही डॉक्टर से इलाज करवाया. इस बीच पांचवे दिन उसकी मौत हो गई. हमें मोहित ने भी बताया था कि उसको कांवड़ियों ने बहुत पीटा और पूरे शरीर पर चोटें हैं.”
पुलिस ने मामला दर्ज क्यों नहीं किया?
मोहित को चोटें आईं और उसे जिला अस्पताल तक रेफर करना पड़ा लेकिन पुलिस ने इस बारे में कोई मामला दर्ज नहीं किया. इस बारे में हमने सीओ खतौली रामाशीष यादव से बात की. उन्होंने कहा कि परिवार ने उस दिन कोई लिखित शिकायत नहीं दी इसीलिए मामला दर्ज नहीं हुआ.
सरकारी अस्पताल के पर्चे में क्या लिखा है
न्यूजलॉन्ड्री के पास मोहित का सामुदायिक अस्पताल का मेडिकल रिकॉर्ड है. इसके मुताबिक, मोहित को खतौली अस्पताल में तीन टीके लगाए गए. इनमें एक दर्द, दूसरा गैस और तीसरा इंफेक्शन से बचाव का था. इसके अलावा उनके घावों पर मरहम पट्टी की गई.
रिकॉर्ड के मुताबिक, “उन्हें आगे के इलाज के लिए जिला अस्पताल रेफर किया गया. जिसमें उन्हें शरीर के तीन हिस्सों का एक्स-रे कराने की सलाह दी गई. इनमें सिर, टांग और टखने का एक्स-रे शामिल है.”
हमें ये भी जानकारी मिली कि मोहित को यहां स्थानीय थाना खतौली की पुलिस ही अस्पताल लेकर पहुंची थी.
28 जुलाई को क्या हुआ?
मोहित की बहन नीलम के मुताबिक, 23 जुलाई के बाद से मोहित का जीवन चाय बिस्कुट पर ही चल रहा था. उसका खाना-पीना लगभग बंद हो गया था.
28 जुलाई को मोहित के बड़े भाई वकील कुमार अपनी पत्नी और बेटी के साथ हरिद्वार से जल लेकर पैदल लौट रहे थे. इस बीच उन्हें भाई की मौत की खबर मिली. वह तुरंत ही गाड़ी से घर लौट आए.
वकील न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, “मोहित के एक ही पैर में तीन जगहों पर पट्टी बंधी थी. बाकी पूरे शरीर पर नीले निशान थे, लाठियों के छापे भी साफ दिखाई पड़ रहे थे.”
मोहित की बहन नीलम ने बताया कि 28 जुलाई को वे पूरे शरीर में दर्द की शिकायत के बाद गांव से दो-तीन किलोमीटर दूर डॉ. पवन के पास भैंसी गांव लेकर गए थे. उसके बाद वहां से सरकारी अस्पताल खतौली लेकर गए. जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया. इस बीच पुलिस भी वहां पहुंच गई.
10 रुपये के स्टाम्प से मोहित का पोस्टमॉर्टम रुका!
पुलिस ने एक 10 रुपये की कीमत के स्टाम्प पेपर के बदले में मोहित का शव परिवार को सौंप दिया. स्टाम्प पर लिखा था, “मोहित की मृत्यु बीमारी से हुई है. हम अपने भाई का पोस्टमॉर्टम नहीं चाहते.”
इसके बाद परिवार मोहित का शव लेकर घर आ गया और उसका विधि- विधान से अंतिम संस्कार कर दिया.
दो दिन बाद परिवार ने मीडिया को बयान दिया कि मोहित की मौत कांवड़ियों की पिटाई से हुई है. जिस पर मुजफ्फरनगर पुलिस ने सोशल मीडिया पर एक स्पष्टीकरण जारी किया. जो कि बाद में डिलीट कर लिया गया. पुलिस ने लिखा, “यह कथन असत्य व निराधार है कि ई-रिक्शा चालक को साइड लगने के कारण कांवड़ियों ने पीटा था, जिससे उसकी मृत्यु हो गई. जबकि मोहित का ई-रिक्शा कांवड़ियों से टकरा गया था. जिसके बाद उसने मौके से भागने की कोशिश की और उसका ई-रिक्शा अनियंत्रित होकर पलट गया. इसके बादकांवड़ियों ने उसके साथ मारपीट की. मोहित को मामूली चोटें आई थी, अस्पताल से प्राथमिक उपचार के बाद वह घर चला गया था."
पुलिस ने आगे लिखा, “दिनांक 28 की रात को मोहित के सीने में तेज दर्द हुआ. परिजनों द्वारा उसे उपचार के लिए अस्पताल ले जाया गया. जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया. मोहित के परिजनों ने बताया कि उसकी मौत पूर्व से चल रही बीमारी के कारण हुई है. किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही की आवश्यकता नहीं है.”
अंतिम संस्कार के बाद पुलिस और परिवार आमने-सामने!
मोहित के परिवार का आरोप है कि पुलिस ने उनसे 10 रुपये के स्टाम्प पेपर पर जबरन लिखवा लिया कि मोहित की मौत बीमारी से हो गई है. इसीलिए वह पोस्टमॉर्टम नहीं चाहते. इस स्टाम्प पेपर पर तीन लोगों के नाम लिखे हैं लेकिन दस्तखत सिर्फ अर्जुन के हैं.
मोहित के बड़े भाई अर्जुन कहते हैं, “एक कॉन्स्टेबल मुझे मोटरसाइकिल से साथ लेकर स्टाम्प लेने गया. वहीं, कॉन्स्टेबल ने टाइप करवाया और ये सब लिखवाया. स्टाम्प 25 रुपये का मिला था, जिसका पेमेंट भी मैंने ही किया था.”
इस स्टाम्प को लेकर वकील कुमार कहते हैं, “हम सीधे लोग हैं. पढ़े लिखे नहीं हैं. पुलिस ने जैसा कहा वैसा हमने लिखवा दिया. मेरे भाई-बहन तो अनपढ़ हैं, उन्होंने कुछ नहीं लिखा. पुलिस ने अपने बचाव के चक्कर में ये सब लिखवा दिया कि हम पोस्टमॉर्टम नहीं करवाना चाहते हैं और न ही हमें कोई कार्रवाई करनी है. यह भी लिखवा दिया कि वो पहले से बीमार था. जबकि ये बात गलत है. मोहित को कोई बीमारी थी ही नहीं.” मोहित के भाई वकील कुमार अब इस मामले में आगे कार्रवाई की बात कह रहे हैं.
वहीं, मोहित की बड़ी बहन नीलम कहती हैं, “पुलिस बीमार बता रही है. वह अच्छा खासा नौजवान था. ई-रिक्शा चलाता था तो बीमार कहां से हो गया? हम अनपढ़ हैं पढ़े लिखे नहीं हैं. पुलिस ने हमसे जो कहा हमने लिख दिया. हमें पता नहीं था पुलिस ऐसा करके अपना बचाव कर रही है.”
परिवार शिकायत से पीछे क्यों हटा?
क्या आपने इस घटना की कहीं शिकायत की? यह पूछने पर वकील एक पुरानी घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं, “पांच साल पहले मेरे एक भतीजे का मेरठ हरिद्वार बाईपास पर एक्सीडेंट हो गया था. दिल्ली में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई थी. तब हमने पोस्टमॉर्टम भी कराया था. हमें कहा गया था कि मुआवजा मिलेगा. हमने कर्जा लेकर उस पर करीब सवा लाख रुपये खर्च किए थे. लेकिन बाद में वकील ने कहा कि हम मुकदमा हार गए. हमने बमुश्किल वह कर्जा उतारा. इसलिए हम फिर से किसी पचड़े में नहीं फंसना चाहते थे.”
वह आगे बताते हैं, “ऐसे ही सात साल पहले मेरी मां की भी एक सड़क हादसे में मौत हो गई. उसमें भी हमें कुछ नहीं मिला. इसके चलते हमने कोई कार्रवाई नहीं करने का फैसला लिया था.”
पुलिस की जवाबदेही और जिम्मेदारी कितनी?
इस मामले को लेकर हमने सुप्रीम कोर्ट के वकील असगर खान से बात की. वह इसे गैरइरादतन हत्या का मामला मानते हैं. उनका कहना है कि पुलिस को इस मामले में खुद से कार्रवाई करनी चाहिए थी.
खान कहते हैं, “पहली बात तो इसमें 10 या 20 रुपये के स्टाम्प पेपर का कोई रोल नहीं है, अगर कुछ लिखवाना है तो वो सादे कागज पर भी लिखवा सकते थे. लेकिन वजन लाने के लिए स्टाम्प का इस्तेमाल किया गया ताकि आगे पुलिस को कोई दिक्कत न हो."
वह आगे कहते हैं, "इस मामले में पुलिस को पोस्टमॉर्टम कराना जरूरी था. अगर यह मामला किसी सड़क दुर्घटना या अस्पताल में बीमारी के चलते मौत का होता तो ऐसा हो सकता था कि परिवार के कहने पर पोस्टमॉर्टम न किया जाता. लेकिन ये मामला झगड़े से संबंधित था तो पुलिस को पोस्टमॉर्टम करवाना चाहिए था. क्योंकि ये सरकारी केस हो गया था."
खान आगे जोड़ते हैं कि दरअसल, पुलिस ने अपने बचाव में एक दलित और परिवार के पढ़ा लिखा नहीं होने का फायदा उठाकर ये सब किया है. खान कहते हैं कि अभी यह मामला अगर कोई कोर्ट लेकर चला जाए तो एफआईआर दर्ज हो सकती है. साथ ही पुलिस के खिलाफ भी केस बनता है.
क्या कहते हैं खतौली थाना के सीओ?
हमने इस बारे में खतौली के सीओ राम आशीष यादव से बात की. स्टाम्प पेपर लिखवाने और पोस्टमॉर्टम नहीं करवाने के सवाल पर वह कहते हैं, “हमें परिवार ने कोई शिकायत नहीं दी थी. इसीलिए हम डेडबॉडी रख नहीं सकते थे.”
परिवार के आरोपों को लेकर वह कहते हैं, “आप वीडियो को सुनिए, हमने पोस्टमॉर्टम के लिए कहा था लेकिन परिवार ने मना कर दिया और लिखकर दिया कि हम नहीं चाहते हैं.” स्पष्टीकरण डिलीट किए जाने को लेकर वह कहते हैं कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है क्योंकि ये सब जिला मुख्यालय से होता है.
ये पूछने पर कि पुलिस ने स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई क्यों नहीं की तो सीओ राम आशीष यादव ने कहा कि हम परिवार से जबरदस्ती नहीं कर सकते थे. अगर हमें परिवार शिकायत देता तो जरूर कार्रवाई करते.
परिवार अगर अब शिकायत करे तो क्या आप कोई एक्शन लेंगे? इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं, “शिकायत किस आधार पर दर्ज करेंगे जब हमारे पास कोई सबूत ही नहीं है. हम कैसे सिद्ध करेंगे की व्यक्ति की मृत्यु कैसे हुई.”
ये वही सवाल है, जो इस वक्त सबके मन में कौंध रहा है कि ये सिद्ध कैसे किया जाए कि मोहित की मौत का जिम्मेदार कौन है. कांवड़ियों द्वारा उसकी पिटाई, परिवार की गरीबी या पुलिस की लापरवाही?
पुलिस की भूमिका पर इस बात से संदेह ज़रूर पैदा होता है कि पहले तो उसने हिंसा के बावजूद केस नहीं दर्ज किया और फिर मौत के बाद परिजनों से स्टाम्प पेपर पर दस्तख़त करवाया ताकि उसके ऊपर कोई आंच न आए. ये पुलिस कार्रवाई के स्थापित मानकों के सख़्त ख़िलाफ़ है.
मीडिया के बारे में शिकायत करना आसान है, क्या आप इसे बेहतर बनाने के लिए कुछ करते हैं? आज ही न्यूज़लॉन्ड्री की सदस्यता लें और स्वतंत्र मीडिया का समर्थन करें.
Also Read
-
‘Inhuman work pressure’: Inside the SIR crisis pushing poll workers to the edge
-
130 kmph tracks, 55 kmph speed: Why are Indian trains still this slow despite Mission Raftaar?
-
Malankara Society’s rise and its deepening financial ties with Boby Chemmanur’s firms
-
Is Modi saving print media? Congrats, you’re paying for it
-
India’s trains are running on luck? RTI points to rampant drunk train driving