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अखिलेश की वापसी: पीडीए का चमत्कार और संविधान का सम्मान
लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी की सफलता की खुशी पार्टी के एक नेता छिपा नहीं पा रहे थे. उन्होंने कहा, “देश के सबसे गरीब गुरबा ने धनपशुओं की गर्दन दबा दी है.” उनका इशारा उत्तर प्रदेश खासकर पूर्वांचल के अपेक्षाकृत पिछड़े और गरीब इलाके में सपा को मिली जबरदस्त सफलता की ओर था.
लोकसभा चुनाव के नतीजों, खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों ने सबको हैरान किया है. इन नतीजों के सामने सभी एग्जिट पोल ने दम तोड़ दिया. इस बार प्रदेश में सपा ने 37 सीटें जीती जबकि भाजपा ने 33 और कांग्रेस को 6 सीटों पर जीत मिली.
वहीं राष्ट्रीय लोक दल ने दो, आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) और अपना दल (सोनेलाल) ने एक-एक सीट जीती है.
इस तरह लोकसभा में भाजपा और कांग्रेस के बाद समाजवादी पार्टी तीसरी सबसे सबसे बड़ी पार्टी होगी. भाजपा को देश भर से कुल 240, कांग्रेस को 99 और समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिली हैं.
गौरतलब है कि सपा पिछले दो लोकसभा चुनावों में महज 5 सीटों पर सिमट गई थी. इस लिहाज से तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरना देश की राजनीति में एक मत्वपूर्ण बदलाव है. इस सफलता ने समाजवादी पार्टी को एक बार फिर से वहां पहुंचा दिया है, जहां 2004 के चुनावों के बाद सपा थी. हालांकि, तब सरकार कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन की बनी थी, इस बार सरकार भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की बनने जा रही है. सत्ता में हिस्सेदारी की बजाय सपा के लिए मजबूत विपक्ष की भूमिका बची है.
सपा के साथ-साथ अखिलेश यादव के लिए भी इस चमत्कारिक सफलता के कई मायने हैं. 2012 के बाद से अखिलेश यादव अपने नेतृत्व में सपा को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं दिला पाए थे. 2012 की सफलता का श्रेय काफी हद तक मुलायम सिंह को जाता है क्योंकि तब वो राजनीतिक रूप से सक्रिय थे और चुनावों की कमान संभाल रहे थे.
इसके बाद से अखिलेश के खाते में चार बड़ी हार दर्ज हो चुकी थी. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 और 2022 का विधानसभा चुनाव. इस रिकॉर्ड के नजरिए से देखें तो 2024 की सफलता अखिलेश के लिए बहुत सही वक्त पर मिली, बहुत जरूरी सफलता है. इससे सपा के काडर में जोश पैदा होगा, अखिलेश ने जिस पद को बहुत मुश्किल से हासिल किया था, खासकर चाचा शिवपाल यादव के भयंकर विद्रोह के बाद, उस पर अब वो हक और ठसक से बैठ पाएंगे.
जाहिर है इस जीत की जमकर व्याख्या और चीरफाड़ होगी, जिसने मोदी के चुनावी रथ को पंचर कर दिया. कुछ सवाल भी उठेंगे, मसलन क्या अखिलेश यादव ने अपने दम पर यह कारनामा कर दिखाया? क्या राहुल गांधी के सहारे अखिलेश ने ये कामयाबी पायी? इस जीत में अखिलेश की पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति का कितना योगदान है?
पीडीए: गेम चेंजर
लंबे समय से समाजवादी पार्टी की राजनीति M-Y यानी मुस्लिम और यादव वोटों के इर्द-गिर्द घूमती थी, लेकिन अखिलेश यादव ने उसमें बदलाव कर इस बार PDA यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नया आयाम जोड़ा था. अपने पहले ही प्रयास में अखिलेश यादव की इस रणनीति को बड़ी सफलता मिलती दिख रही है.
सपा ने इस बार कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा. गठबंधन के तहत सपा को 80 में से 62 सीटें मिली थी. बाकी पर गठबंधन के अन्य सहयोगी थे. अखिलेश ने पीडीए रणनीति के तहत इस बार टिकट बंटवारे में गैर यादव जातियों का खासा ख्याल रखा. 62 में सिर्फ 5 टिकट यादवों को दिया, वो भी सब उनके परिवार के ही हैं. परिवार के बाहर किसी यादव को नहीं दिया.
पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें तो समाजवादी पार्टी ने बसपा के साथ गठबंधन में 37 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें 10 यादवों को टिकट दिया था. वहीं, 2014 में 78 सीटों पर चुनाव लड़ा और 12 यादव उम्मीदवार उतारे थे.
इस बार अखिलेश यादव ने 27 पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को टिकट दिया. इनमें भी 10 कुर्मी और पटेल बिरादरी के हैं. मेरठ और अयोध्या जैसी हॉट सीट पर सपा ने दलित उम्मीदवार उतारे. जबकि ये दोनों सामान्य सीटें थीं. नतीजा देखिए अयोध्या फैजाबाद मंडल की सभी पांच सीटें सपा और कांग्रेस के खाते में गई हैं.
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजकुमार भाटी कहते हैं, “पार्टी ने शुरू से ही पीडीए को ध्यान में रखकर चुनाव लड़ा है.”
वह बताते हैं, “पीडीए वो समूह है, जिनके साथ लगातार भेदभाव हो रहा है. खासतौर से भाजपा के शासन में पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यक और महिलाओं के साथ. हमने 11 महिलाओं को टिकट दिए जबकि चुनाव लड़ा सिर्फ 62 सीटों पर. वहीं, भाजपा 75 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी फिर भी उसने मात्र छह सीटों पर महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया, जबकि वह नारी सशक्तिकरण का हल्ला करती रहती है. इन छोटी-छोटी चीजों का ध्यान पार्टी ने टिकटों के बंटवारे में रखा.”
सभी दवाब से मुक्त हैं अखिलेश यादव
भाटी के मुताबिक, अब अखिलेश यादव सभी दवाबों से मुक्त हो गए हैं. अब वो खुद निर्णय लेते हैं.
वे आगे कहते हैं, “इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव जनता के मुद्दे उठा रहे थे. जैसे- बेरोजगारी, अग्निवीर, सामाजिक न्याय, जातिगत जनगणना, बेटियों की सुरक्षा, किसानों को एमएसपी और शिक्षा-चिकित्सा जैसे मुद्दे. इस पर लोगों ने उन्हें पसंद किया और समर्थन दिया.”
अखिलेश यादव की जीत की एक और वजह बताते हुए भाटी कहते हैं, “भाजपा के नेता संविधान बदलने की बात कर रहे थे, उनके चुनाव के दौरान के तमाम वीडियो सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं. संविधान बदलने वाली बात को लोगों ने गंभीरता से लिया. खासतौर पर दलित समाज को यह बात चुभ गई, दूसरी ओर मायावती का रवैया बता रहा था कि वह भाजपा के साथ मिली हुई हैं. इसलिए दलित वोट भी इस बार इंडिया गठबंधन को मिला. अखलेश यादव ने अपनी रैलियों में संविधान और बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का खूब प्रचार किया.”
रणनीति में बदलाव
बता दें कि एक समय था जब मायावती द्वारा बहुजन नायकों के नाम पर रखे जिलों के नामों को अखिलेश सरकार ने पलट दिया था.
मायावती ने 2007-2012 की अपनी सरकार में अमरोहा का नाम ज्योतिबा फूले नगर, शामली जिले का प्रबुद्ध नगर, संभल का भीम नगर, हापुड़ का पंचशील नगर, हाथरस का महामाया नगर, कासगंज का काशीराम नगर, अमेठी का छत्रपति शाहूजी महाराज नगर, कानपुर देहात का रमाबाई नगर और भदोही जिले का नाम संत रविदास नगर रखा था.
लेकिन सन 2012 में अखिलेश यादव जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मायावती सरकार के द्वारा बदले गए सभी जिलों के बदले नाम वापस पुराने रख दिए.
अखिलेश यादव के तीन काम
लक्ष्मण यादव पूर्व में दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक थे. फिलहाल वो समाजवादी पार्टी के लिए काम कर रहे हैं. लोकसभा चुनावों के दौरान वह कई मौकों पर अखिलेश यादव के साथ दिखाई दिए. लक्ष्मण, अखिलेश यादव की पीडीए रणनीति की टीम का हिस्सा हैं.
वे कहते हैं कि अखिलेश यादव ने तीन काम ऐसे किए जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश की जनता उनके साथ खड़ी हो गई. इन कामों के चलते जाति और मजहब की सीमाएं टूट गईं.
लक्ष्मण के मुताबिक, पहला काम था भारत के संविधान को हाथ में लेकर लड़ाई का केंद्र बना देना. लोगों तक ये मैसेज देना कि संविधान खतरे में है और हम संविधान की हिफाजत करना चाहते हैं. इस बात को अखिलेश यादव ने गांव-गांव तक पहुंचाया. यही वजह रही की संविधान को मानने वाले लोग खासकर दलित और उनमें भी जाटव समाज के लोगों ने पार्टी को वोट दिया. संविधान को बचाना है ये बात लोगों के मन में घर कर गई.
यादव के मुताबिक, सफलता का दूसरा सूत्र है पीडीए फार्मूला- यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक. इसको अखिलेश यादव ने अपनी राजनीति के केंद्र में स्थापित किया. उनका नारा था- पीडीए एनडीए को हराएगा.
समाजवादी पार्टी को बदनाम किया गया था कि वह एक जाति (यादव) और एक मजहब (मुस्लिम) की पार्टी है. उस टैग को तोड़ते हुए अखिलेश यादव ने जीत की इबारत लिखी. पीडीए के तहत डॉ. अंबेडकर और डॉ. लोहिया की सिर्फ बात ही नहीं कि बल्कि उन लोगों को हिस्सेदारी भी दी.
सपा सिर्फ 62 सीटों पर चुनाव लड़ी. इन 62 में पूरा पीडीए खड़ा है. इनमें 10 टिकट कुर्मी समाज को दिए, 7 टिकट कुशवाहा समाज को दिए. इसके अलावा राजभर, पासी, बिंद, निषाद और मल्लाह यानी सभी जातियों के लोगों का ध्यान रखा.
तीसरी चीज अखिलेश यादव की शख्सियत है. जिस स्तर पर जाकर उन्होंने चुनाव लड़ा न तो वो डरे, न परेशान हुए. खासकर ईडी, सीबीआई आदि के आगे ज्यादातर पार्टियां और नेता घुटने टेकते नजर आए. अखिलेश ने डटकर इसका मुकाबला किया.
मैनिफेस्टो का कितना असर
लक्ष्मण यादव सपा की मैनिफेस्टो बनाने वाली टीम का भी हिस्सा रहे. वे बताते हैं कि मैनिफेस्टो संविधान का एक दस्तावेज है. हमारे मैनिफेस्टो का नाम ही “जनता का मांग पत्र, हमारा अधिकार” है.
इसका पहला पन्ना ही संवैधानिक अधिकारों का है यानि कि ये चुनाव संविधान को बचाने का चुनाव है. दूसरा पन्ना है पीडीए का यानि पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यकों को हिस्सेदारी और भागीदारी दिलाना है.
उसके बाद मैनिफेस्टो में जातीय जनगणना कराने, निजी क्षेत्र में सबकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने, एससी-एसटी के खाली पदों को भरने जैसे वादे हैं. वह कहते हैं कि हमने इन वादों के साथ लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की.
लक्ष्मण आगे कहते हैं, “इस पूरे चुनाव में अखिलेश ने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों सभी का दिल जीता है. लेकिन पहले ऐसी टैगिंग कर दी गई थी कि सपा को सिर्फ मुस्लिम और यादवों की ही पार्टी कहा जाता था. लेकन पीडीए के जरिए जो इलाज हुआ है उसे ऐसे देखिए कि जब अखिलेश सदन में बैठेंगे और उनके पीछे जो 36 सांसद खड़े होंगे तो उनमें समाजवाद और सामाजिक न्याय आपको दिखाई देगा.”
समाजवादी पार्टी ने इस बार 17 दलितों को टिकट दिया. इनमें दो अयोध्या और मेरठ की सामान्य सीटें हैं.
समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता और वर्तमान में राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय सचिव महेश आर्या भी इस बात को स्वीकारते हैं कि निश्चित तौर पर अखिलेश के पीडीए के नारे ने कमाल किया है.
आर्या कहते हैं, "सबसे बड़ी वजह मुझे समझ आती है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने कहा कि उनकी पार्टी को 400 सीटों पर जीत हासिल करनी है. इसके बाद नैरेटिव फैला कि 400 सीटें आई तो भाजपा के लोग संविधान बदल देंगे. दलित, पिछड़ों का आरक्षण खत्म कर देंगे. इस नैरेटिव को पीडीए ने बड़े पैमाने पर फैलाया. अखिलेश और राहुल गांधी जहां भी गए वहां संविधान की किताब लेकर पहुंचे और उन्होंने मतदाताओं के सामने यही बात बार-बार दोहराई कि संविधान खतरे में है. इस बात को दोनों ही नेता लोगों तक पहुंचाने में कामयाब रहे. वहीं, हमारे एनडीए के गठबंधन के लोग इस बात का काउंटर करने में नाकाम रहे. जिसकी वजह से सपा को उत्तर प्रदेश में बड़ी सफलता मिली."
महेश आर्या आगे कहते हैं, “वहीं, बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने अपने ही लोगों का विश्वास खो दिया है. शायद संविधान बचाने की लड़ाई मायावती ने लड़ी होती तो आज यह स्थिति नहीं होती. पूरे चुनाव में बहनजी लड़ाई में कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं, इसलिए उनसे दलित छिटक गए और सपा-कांग्रेस के साथ चले गए.”
इस बार यादव ही नहीं बल्कि सपा ने मुस्लिमों को भी ज्यादा टिकट नहीं दिए. 62 सीटों में से सिर्फ 4 टिकट मुस्लिम समाज के लोगों को दिए.
इस पर सपा प्रवक्ता अमीक जामई कहते हैं, “सपा-बसपा ने 2019 लोकसभा चुनावों में गठबंधन किया था. अखिलेश ने तब कहा था कि जो भीमराव आंबेडकर और राम मनोहर लोहिया मिलकर कमजोर तबके के लिए काम करना चाहते थे, वह अधूरा रह गया था. मुझे अपनी जिंदगी में उस टास्क को पूर करना है. लेकिन चुनाव में उस तरह के नतीजे नहीं आए जैसी उम्मीद थी. इसके बाद सपा-बसपा का गठबंधन भी टूट गया. तब आरएसएस और बीजेपी के लोगों ने कहा कि सपाई दलितों के लिए सबसे बड़े गुंडे हैं. लेकिन हमें पार्टी की ओर से आदेश था कि कोई भी बहनजी या बीएसपी पर कमेंट नहीं करेगा. हमें बोलना है कि वे हमारी बड़ी हैं, उनकी मर्जी है जो करें. और उन्होंने गठबंधन तोड़ दिया."
आने वाले पांच साल बहुत दिलचस्प होंगे. दिल्ली में एक बार फिर से सरकार किसी की होगी, लेकिन सत्ता की कमान किसी और दल के हाथ में होगी. और उत्तर प्रदेश अपनी अलग ठाठ के साथ मौजूद होगा.
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