Report
जलवायु परिवर्तन: नए तौर-तरीके अपना रहे हिमालय के किसान
उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के धनखोली गांव में विनोद कुमार एक खेतीहर किसान से स्टॉकब्रीडर बन गए हैं. गाय-भैंसों के साथ उन्होंने अलग-अलग प्रजाति की मुर्गियों को पालना शुरू किया है जो उनकी आमदमी का अच्छा स्रोत बन गई हैं.
एक स्वस्थ काले मुर्गे को दिखाते हुए विनोद कहते हैं, “ये कड़कनाथ है. इसकी कीमत हमें बाजार में एक सामान्य मुर्गे से 3 या 4 गुना अधिक मिलती है. इसका मीट 1200 से 1300 रुपये प्रति किलो बिकता है. इसका एक अंडा 50 से 60 रुपये तक बिकता है.”
दूध, घी और पनीर के कारोबार के साथ मुर्गीपालन विनोद जैसे कई लोगों के लिये फायदे का सौदा साबित हो रहा है.
धनखोली से करीब पांच किलोमीटर दूर मुझौली गांव में 45 साल के पान सिंह परिहार एक कदम आगे हैं. वह कहते हैं कि मुर्गी पालन से अधिक मुनाफा बटेर पालन में है. वह इसकी ब्रीडिंग व्यवसायिक स्तर पर कर रहे हैं.
वह कहते हैं, “बटेर पालन में बहुत कम समय लगता है. यह एक महीने में तैयार हो जाता है और करीब 50 दिनों में अंडे देना शुरू कर देती है. इसलिए स्वाभाविक रूप से मेरा मुनाफा बढ़ जाता है. अभी कमाई पहले के मुकाबले 4 गुना बढ़ गई है. इन्हें कोई बीमारी नहीं होती और फीड में हम किसी तरह का एंटीबायोटिक नहीं मिलाते तो ग्राहक भी खुश हैं.”
पिछले कुछ सालों में हिमालयी क्षेत्रों में ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे बड़ा प्रभाव कृषि पर पड़ा. बर्फ तेजी से पिघली है और कृषि योग्य बरसात नहीं हो रही.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की रिसर्च के मुताबिक, सदी के अंत तक हिमालयी क्षेत्र में उगाई जा रही फसलें प्रभावित होंगी. मिसाल के तौर पर यहां गेहूं की पैदावार में 12 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है. इसी तरह दूसरी फसलों पर भी असर पड़ेगा. ऐसे में जहां किसान नई फसलों और प्रजातियों के प्रयोग कर रहे हैं वहीं पशुपालन, मुर्गीपालन और मछलीपालन के प्रयोग भी.
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (दक्षिण एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं कि फसलों की पैदावार पर असर का आकलन पिछले कुछ दशकों में ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव के आधार पर है. नई रिसर्च बता रही हैं कि तापमान वृद्धि अधिक तेजी से हो रही है. इस कारण पैदावार पर अनुमानित आंकड़े से कहीं अधिक प्रभाव हो सकते हैं.
उनके मुताबिक, “किसानों द्वारा अपनाए जा रहे यह तरीके अनुकूलन (क्लाइमेट एडाप्टेशन) के अच्छे उदाहरण हैं और आने वाले दिनों की चुनौतियों के हिसाब से हिमालयी क्षेत्र में किसान जितने ऐसे सफल प्रयोग करेंगे, उनके लिये उतना ही बेहतर होगा.”
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) से जुड़े विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा के निदेशक डॉ. लक्ष्मीकांत कहते हैं कि बारिश और तापमान का पैटर्न अनियमित होता जा रहा है.
उन्होंने कहा, “पहाड़ों पर कभी अतिवृष्टि हो रही है तो कभी सूखा पड़ रहा है. इसी तरह अधिकतम तापमान बढ़ रहा है और न्यूनतम तापमान कम हो रहा है. इससे औसत तापमान भले ही एक सा दिखता हो, लेकिन असल में तापमानों के बीच अन्तर बढ़ रहा है और फसलें प्रभावित हो रही हैं जैसे इस साल रबी की फसल बहुत प्रभावित हुई है. इस तरह हमारी खरीफ की फसल के उत्पादन पर भी असर पड़ रहा है.”
गेहूं, धान, बाजरा और मक्का जैसी फसलों के अलावा दलहन की फसल पर असर पड़ा है. लक्ष्मीकांत कहते हैं कि मक्का और टमाटर की फसलों में कीड़ा लगने की घटनाएं देखी गई हैं और जलवायु प्रत्यास्थी (क्लाइमेट रेजिलियेंट) फसलों की जरूरत है.
ऐसे हाल में कई उद्यमी पशुपालन और वानिकी में रोजगार के विकल्प तलाश रहे हैं. भीमताल के पास कारोबारी संजीव भगत पिछले कुछ सालों से कई तरह के जूस, जैम, अचार और मुरब्बे बना एवं बेच रहे हैं. वह बताते हैं कि अनियमित या कम बारिश होने से कृषि को भारी नुकसान हो रहा है. इस साल पहाड़ों में इस कारण दलहन की फसल की बहुत क्षति हुई लेकिन हॉर्टिकल्चर (बागवानी) पर आधारित हमारा कारोबार लगातार बढ़ रहा है.
संजीव कहते हैं, “आज हम 85 अलग-अलग पैकिंग में 45 प्रोडक्ट बना रहे हैं. इनमें 12 तरह के अचार और जूस, 5 तरह के जैम, दो प्रकार की चटनी और तीन तरह के मुरब्बे शामिल हैं. हमने करीब 30 लोगों को नियमित रोजगार दिया है लेकिन जब बुरांश का मौसम होता है तो उस सीजन में 200 अन्य लोग हमारे साथ जुड़ जाते हैं.”
इन सबके अलावा मधुमक्खी पालन और बकरी पालन की ओर लोगों का काफी रुझान है. अल्मोड़ा में ही मलयाल गांव के नंद किशोर के मुताबिक, युवाओं को बकरी पालन में काफी मुनाफा हुआ. वह कहते हैं, “बकरी पालन में अगर कोई 30 हजार रुपये का निवेश करता है तो वह साल भर के भीतर 50 हजार रुपये की आय कमा सकता है.”
उत्तराखंड के गांवों में पलायन एक बड़ी समस्या है. राज्य सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक, 1500 गांव ऐसे हैं जो या तो बिल्कुल खाली हो चुके हैं या इक्का-दुक्का परिवार वहां बचे हैं. अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं के अभाव के साथ कृषि संकट भी पलायन के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक है.
उत्तराखंड वन विभाग के सलाहकार रह चुके और लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेन्द्र सिंह बिष्ट नए उद्यम की चुनौती गिनाते हुए कहते हैं कि प्रमुख चुनौती नई आजीविका गतिविधियों को अपनाने की योग्यता हासिल करना है. साथ ही, इनपुट लागत घटाने की जरूरत है क्योंकि ऐसे प्रयोग में ज्यादातर सामग्री बाहर से हासिल करनी होती है.
बिष्ट के मुताबिक, “यह पारम्परिक आजीविका प्रणाली के विपरीत है. जहां ज्ञान और अन्य आवश्यकतायें स्थानीय स्तर पर पूरी की जाती थीं. इसलिये कौशल विकास और आपूर्ति श्रंखला विकास की आवश्यकता है.”
लक्ष्मीकांत और जोगेन्द्र सिंह बिष्ट दोनों ही मानते हैं कि किसानों की सोच और व्यवहार उद्यमियों की तरह होना चाहिए. ऐसे में ग्रामीणों के समूह बनाकर उन्हें अलग-अलग व्यवसायों की ट्रेनिंग दी जा रही है.
लक्ष्मीकांत बताते हैं कि उत्तराखंड के गांवों में जलवायु की मार के साथ बन्दरों और सूअरों द्वारा फसल नष्ट किये जाने का बड़ा ख़तरा है लेकिन कई किसानों को बन्द कमरे में मशरूम की खेती करना सिखाया गया है. मशरूम उत्पादन से किसान 1 लाख रुपये सालाना तक की आमदनी कर सकते हैं.
डॉ. लक्ष्मीकांत कहते हैं, “अपनी विक्रय शक्ति को बढ़ाने के लिए पर्वतीय लोगों को वह चीजें उगानी होंगी जो मैदानी क्षेत्रों में नहीं उगाई जा सकती. पहाड़ी दालों (भट्ट, गहत जैसे प्रकार) के साथ मडुआ और कुट्टू जैसा अनाज काफी अच्छी कीमतों बिकता है. इस तरह पलायन को रोकने और ग्रामीण युवाओं को इस उद्यम से जोड़ने में मदद मिल रही है.”
साभार- डाउन टू अर्थ
Also Read
-
How booth-level officers in Bihar are deleting voters arbitrarily
-
TV Newsance Live: What’s happening with the Gen-Z protest in Nepal?
-
More men die in Bihar, but more women vanish from its voter rolls
-
20 months on, no answers in Haldwani violence deaths
-
South Central 43: Umar Khalid’s UAPA bail rejection and southern leaders' secularism dilemma