Report
हरित तीर्थ यात्रा: आस्था और संरक्षण के बीच बेहतरीन तालमेल का मॉडल
भारत के तीन टाइगर रिजर्व क्षेत्रों में धार्मिक गतिविधियों और संरक्षण के बीच तालमेल बिठाने के तरीकों को समझने के लिए एक दीर्घकालिक अध्ययन किया गया था. इस अध्ययन में व्यापक दिशानिर्देशों के साथ एक ऐसे मॉडल पर काम करने की बात कही गई है जो भारत के बाघ अभ्यारण्यों में की जाने वाली तीर्थयात्राओं के प्रबंधन के लिए ठोस सुझाव देता है. हाल ही में जारी किए गए ये दिशानिर्देश संरक्षित क्षेत्रों में मौजूद पवित्र स्थलों पर की जाने वाली तीर्थयात्राओं और त्योहारों जैसे बड़े आयोजनों के प्रबंधन के लिए काफी मायने रखती है.
पिछले कुछ सालों से टाइगर रिजर्व में मौजूद धार्मिक स्थलों पर लोगों की संख्या में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई है. इसकी वजह से अमूल्य जीवों और वनस्पतियों को सहेज कर रखने वाले प्राचीन जंगलों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंच रहा है. इसका एक जीता-जागता उदाहरण केरल का पेरियार टाइगर रिजर्व है. यहां के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में सालाना पचास से साठ लाख तीर्थयात्रियों आते हैं, जो संवेंदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को कई तरह के पर्यावरणीय नुकसान पहुंचा रहा है.
इस समस्या से निपटने के लिए नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) ने हर रिजर्व को धार्मिक पर्यटन के प्रबंधन के लिए योजना बनाने का निर्देश दिया है. अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) और एलायंस ऑफ रिलीजन एंड कंजर्वेशन (एआरसी) के 2019 के एक अध्ययन में कहा गया है कि सामुदायिक मुलाकात के अधिकार (कम्युनिटी विजिटेशन राइट) के साथ संरक्षण को संतुलित करने के सामने आने वाली चुनौतियों ने इसके कार्यान्वयन में बाधा डाली हुई है.
अब एटीआरईई,एआरसी और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने अपने रिसर्च और संरक्षण कार्यों के आधार पर दिशानिर्देश जारी किए हैं, खासतौर पर पश्चिमी घाट में कलाकड़ मुंडनथुराई टाइगर रिजर्व (केएमटीआर), मध्य भारत में रणथंभौर टाइगर रिजर्व (आरटीआर) और हिमालय में कॉर्बेट टाइगर रिजर्व (सीटीआर) के बफर जोन में. इन दिशानिर्देशों को बनाते समय कलाकड़ मुंडनथुराई टाइगर रिजर्व के केस अध्ययन को मुख्य रूप से ध्यान में रखा गया था. परियोजना से जुड़े संगठनों ने 15 सालों से अधिक समय तक हरित धार्मिक तीर्थयात्रा पर काम किया है.
सौबद्रा देवी एटीआरईई में सीनियर फेलो और 2019 के अध्ययन और हाल ही में बने दिशानिर्देशों के लेखकों में से एक हैं. उन्होंने कहा कि भारत में वन्यजीव संरक्षण के लिए तीन महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए इन क्षेत्रों को अध्ययन के लिए चुना गया था.
प्लास्टिक कचरा, जल प्रदूषण और पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं
इन संरक्षित क्षेत्रों में अध्ययन के दौरान पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं में नॉन-बायोडिग्रेडेबल अपशिष्ट, जल प्रदूषण और जंगल में वन्य जीवों और पौधों पर पड़ता असर शामिल था. त्योहारों और तीर्थयात्राओं के समय में जंगल के प्रमुख क्षेत्रों में अचानक से काफी शोर के बढ़ने और तेज रोशनी का इस्तेमाल करने से जंगली जानवरो को काफी परेशानी होती है. इस दौरान सड़क पर होने वाली मौतों की संख्या में भी काफी बढ़ोतरी देखी गई. वहीं अस्थायी शिविरों बनाने के लिए कई पेड़-पौधे को नुकसान भी पहुंचाया जाता है.
2016 में वन विभाग के साथ हरित तीर्थ प्रबंधन अभियान के दो दिन से अधिक समय में रणथंभौर टाइगर रिजर्व के मुख्य प्रवेश द्वार पर तीर्थयात्रियों से बीड़ी, सिगरेट, माचिस, तम्बाकू पाउच आदि जैसे 260 किलोग्राम नॉन-डिग्रेडेबल कचरा और एक बार इस्तेमाल किए जाने वाले 550 किलोग्राम पॉलिथीन बैग बरामद किए गए थे. दिशानिर्देशों में आगे कहा गया है कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के पास गर्जिया माता मंदिर में, तीर्थयात्री अनुष्ठान के दौरान पवित्र कोसी नदी में डुबकी लगाते हैं, वहां नहाते हैं, नदी के आसपास ही शौच करते हैं. कुछ उदाहरणों में तो, नदी के किनारे पशु बलि तक दी जाती है.
देखा जाए तो जंगल में आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या पर नियंत्रित रखने की जरूरत है, लेकिन अचानक से अगर नियम-कायदे लागू कर दिए गए तो इनका असर उल्टा पड़ सकता है. डेवी ने कहा, “हमें वन विभाग, संरक्षण और धार्मिक संगठनों के साथ-साथ समुदायों के साथ बातचीत करके इस मसले को हल करना होगा.”
संरक्षण के लिए धारणा में बदलाव जरूरी
शोधकर्ताओं के मुताबिक, उनका मानना है कि तीर्थयात्रियों की धारणा और व्यवहार में बदलाव लाया जा सकता है अगर उन्हें यह बताया जाए कि उनकी धार्मिक मान्यताएं किस तरह से पर्यावरण संरक्षण के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के ‘बिलिफ एंड वैल्यू प्रोग्राम’ के प्रमुख चैंटल एल्किन ने कहा कि धार्मिक गुरुओं की ओर से जारी आस्था के साथ जुड़े संरक्षण संदेशों में, लोगों को अपने धर्म और भक्ति के साथ संरक्षण की जिम्मेदारी निभाने की काफी क्षमता है. यह कदम भारत में खतरे वाले आवासों और जंगली प्रजातियों की सुरक्षा के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित होगा.
प्रयासों के सफल होने और दीर्घकालिक नतीजों के लिए इस मुद्दे से जुड़े हितधारकों की भागीदारी काफी मायने रखती है. उदाहरण के तौर पर, अगर जल प्रदूषण को रोकने के लिए तीर्थयात्रियों को नदी के पास शौच न करने के लिए कहा जाता है, तो मंदिर के संबंधित अधिकारियों या वन प्रशासन को लोगों के लिए पर्याप्त शौचालय की व्यवस्था करनी होगी. एल्किन ने रणथंभौर रिजर्व का एक उदाहरण साझा किया, जहां भक्तों के लिए फ्री में खाना और पानी उपलब्ध कराना एक नेक काज माना जाता है. वहां गठित हरित तीर्थ प्रबंधन समिति ने डिस्पोजेबल प्लास्टिक कप और प्लेटों के बेतहाशा इस्तेमाल और वहां उस कचरे को प्रभावी ढंग से निपटारा न किए जाने की वजह से, उस गतिविधि पर एक साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया था. एक साल बाद इसे फिर से शुरू कर दिया गया. लेकिन यह तभी संभव हुआ जब कचरे के उचित निपटान के लिए उपाय किए गए और रिजर्व के अंदर प्लास्टिक के इस्तेमाल को सीमित कर दिया गया.
आस्था और संरक्षण करने के कदम साथ-साथ चलें
इन दिशानिर्देशों से जंगलों को होने वाले फायदों को देखते हुए इन्हें आगे की योजनाओं में शामिल किया जा सकता है. ये दिशा-निर्देश आस्था और संरक्षण के बीच प्रभावी ढंग से तालमेल बैठाने के लिए पांच चरणों की ओर इशारा करते हैं. इसमें से एक ये है कि जैव विविधता पर पड़ने वाले प्रभावों और खतरों के साथ-साथ धार्मिक पर्यटन को समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. इसके बाद तीर्थयात्राओं से पहले, उसके दौरान और बाद में रिजर्व के बेहतर प्रबंधन के लिए सिफारिशें की जानी चाहिए. इसके अलावा संरक्षण के अनुकूल तीर्थयात्रा के लिए सभी के साथ मिलकर योजनाएं तैयार की जानी चाहिए और सबसे बड़ी बात इन सभी सभी दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए बहु-हितधारक समितियों की स्थापना करनी होगी.
आस्था से जुड़े संदेशों का प्रचार नाटकों और नुक्कड़ नाटकों, कला, लोकगीत, धार्मिक गुरुओं के मीडिया संदेश, धार्मिक संदेशों, बैनरों और पोस्टरों आदि के जरिए किया जा सकता है. डेवी ने कहा कि कलाकड़ मुंडनथुराई टाइगर रिजर्व में, उन्होंने स्थानीय देवता सोरी मुथु अय्यनार से जुड़ा एक नुक्कड़ नाटक किया था. इसके नाटक में सोरी मुख्य किरदार में है, जो यह लोगों को बताता है कि वह इस बात से कितना परेशान है कि जिस प्राचीन जंगल में वह कभी घूमता था, वह अब कूड़ा-करकट में बदल गया और गंदा हो गया है. उन्होंने कहा, “हमने धीरे-धीरे इस सबसे पड़ने वाले प्रभाव के आंकड़े पेश किए, खासकर थमिराबरानी नदी पर। रणथंभौर में हमने संदेश में स्थानीय आहार से जुड़े कुछ स्थानीय संदर्भों का इस्तेमाल करके राजस्थानी भाषा में एक जिंगल बनाया था.”
मॉडल के दीर्घकालिक परिणाम सुनिश्चित करने के लिए प्रभावों पर नजर रखना और चुनौतियों से निपटना बेहद महत्वपूर्ण है. डेवी द्वारा तैयार किया गया यह हरित धार्मिक पर्यटन मॉडल वन विभाग की प्रबंधन योजनाओं और फंड से जुड़ी चुनौतियों की बात भी करता है. डेवी ने कहा, सरकारी अधिकारियों का ट्रांसफर भी इसे अपनाए जाने में बाधाएं पैदा करता है। इससे भी निपटने की जरूरत है.
एल्किन का मानना है कि इस मॉडल को संरक्षित क्षेत्रों में लागू करने की काफी संभावनाएं हैं. उन्होंने कहा, “हमारे काम ने दिखा दिया है कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के दिशानिर्देशों को उन तरीकों से पूरा करना संभव है जो आधुनिक धार्मिक पर्यटन की जटिलताओं के प्रति संवेदनशील हैं और जो तीर्थयात्रा कार्यक्रमों के प्रबंधन को स्थायी रूप से बदलने का माद्दा रखती हैं.” डेवी को उम्मीद है कि मॉडल को एनटीसीए स्वीकार कर लेगा , जिससे कई रिजर्व में इसके लागू होने का दायरा बढ़ जाएगा.
साभार- Mongabay हिंदी
Also Read
-
As Modi’s visit looms, tracing the missed warnings that set Manipur on fire
-
Job cuts, production hit, forced discounts: Trump tariff’s toll on Noida’s textile dream
-
मोदी को मां की गाली और बैटल ऑफ बिहार के बीच रामदेव, निशिकांत, गिरिराज
-
Bollywood posters, superhero costumes, fake drones: TV turns SCO into blockbuster trailer
-
Even the largest group of genocide scholars says Gaza is a genocide. Why can’t the media?