Madhya Pradesh Elections 2023
मध्य प्रदेश: आदिवासियों से दूर सरकारी योजनाएं, कहीं गरीबी तो कहीं अति कुपोषण की चपेट में लोग
15 साल राज के बाद साल 2018 में कांग्रेस मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी. हालांकि, कुछ विधायकों की खरीद फरोख्त के बाद 15 महीने बाद भाजपा फिर से सत्ता में आ गई. अगर 15 महीने का वह शासन हटा दें तो करीब 18 साल से भाजपा अपनी योजनाओं और विकास कार्यों को लेकर जनता के बीच है. वहीं, कांग्रेस ने वचन पत्र जारी कर जनता से सैकड़ों वादे किए हैं. दोनों ही पार्टियों के केंद्र में यहां आदिवासी हैं. इसकी वजह है कि प्रदेश की आबादी में आदिवासियों की संख्या 21 प्रतिशत है. लिहाजा इन्हें लुभाने के लिए हर तरह के दावे और वादे किए जा रहे हैं.
आदिवासियों के मुद्दों और उनके लिए चलाई गईं सरकारी योजनाओं की जमीनी पड़ताल के लिए न्यूज़लॉन्ड्री और द मूकनायक की टीम ने आदिवासी बाहुल्य इलाकों- श्योपुर, अलीराजपुर, अनूपपुर और बालाघाट जिलों का दौरा किया.
श्योपुर जिला
आदिवासी मध्य प्रदेश में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों पर कहां खड़े हैं. क्या 18 साल तक शासन में रहने वाली भाजपा और 15 महीने शासन में रहने वाली कांग्रेस आदिवासियों तक पहुंच पाई? इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने हम सबसे पहले श्योपुर पहुंचे. यह जिला देश की विशेष पिछड़ी जनजाति (पीवीटीजीएस) सहरिया बाहुल्य है. यहां तीन ब्लॉक और दो विधानसभा क्षेत्र हैं. श्योपुर सीट से कांग्रेस के बाबू जंडेल विधायक हैं और जिले की दूसरी विधानसभा सीट विजयपुर से सीताराम आदिवासी बीजेपी के विधायक हैं. सरकार के हजार दावों से इतर श्योपुर की जमीनी हकीकत एकदम अलग है. श्योपुर जिले को ‘भारत का इथोपिया’ कहा जाता है. यहां आज भी कुपोषण सबसे बड़ी समस्या है. इस मामले में महिला एवं बाल विकास विभाग के अधिकारी कागजी आंकड़ेबाजी में जिले से कुपोषण का ग्राफ बेहद कम होने का दावा कर रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि कुपोषण के ग्राफ में कमी नहीं आई है.
श्योपुर के कराहल और विजयपुर में 150 से ज्यादा सहरिया आदिवासी बाहुल्य गांव हैं. करीब आधा दर्जन गांवों का दौरा करने पर हमने पाया कि लगभग हर गांव में कुपोषित बच्चे थे. यहां हमें कई गंभीर कुपोषित बच्चे भी मिले, जिन्हें जिला मुख्यालय के पोषण पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) में भर्ती कराया गया था.
कुपोषण नहीं छोड़ रहा पीछा
कूनो नेशनल पार्क से सटे टिकटोली, मोरावन आदि दर्जनों गावों की स्थिति भयावह है. झोपड़ीनुमा कच्ची मिट्टी के घर सहरिया समुदाय की गरीबी को बयान करते हैं. रोजगार के साधन नहीं होने के कारण बहुत से लोग यहां के सीमावर्ती राज्य राजस्थान में मजदूरी के लिए पलायन कर जाते हैं. महीनों बाद वापस जब घर लौटते हैं तभी इन परिवारों को भरपेट खाना नसीब होता है. लोगों में जागरूकता की कमी और सरकार योजनाओं पर अमल में नाकामी के कारण यहां कुपोषण पर पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका.
कराहल ब्लॉक के जेतवाड़ा गांव में सरतीजो का परिवार रहता है. परिवार में दो बेटे, उनकी बहू और बच्चे हैं. बेटे फिलहाल मजदूरी के लिए गांव से बाहर गए हैं. ऐसे में घर की देखरेख की जिम्मेदारी सरतीजो पर है. सरतीजो के बड़े बेटे की पत्नी मचली ने तीन साल पहले जुड़वा बच्चों को जन्म दिया था. जन्म के बाद से ही दोनों बच्चे कुपोषित रहे. बच्चों की हालात बेहद गंभीर होने पर उन्हें पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती कराया गया. अब दोनों बच्चे स्वस्थ हैं.
सरतीजो ने बताया कि उनके परिवार से कुपोषण पीछा नहीं छोड़ रहा. पहले दो बच्चे कमजोर हो गए थे. जिन्हें 15 दिन अस्पताल में भर्ती रखना पड़ा था, अब छोटे बेटे की बच्ची कुपोषण की शिकार होकर कमजोर हो गई है.
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बैजंती गुर्जर कहती हैं, “गांव में हर महीने कुपोषित बच्चे मिलते हैं. फिलहाल एक बच्ची कुपोषित है जिसको हम एनआरसी श्योपुर में भर्ती कराएंगे.”
श्योपुर जिला चिकित्सालय के पोषण पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) केंद्र में हमने पाया कि कुल 12 कुपोषित बच्चे भर्ती थे. इसके अलावा कुछ बच्चे कुपोषण के चलते अन्य बीमारियों की चपेट में आ गए थे, उन्हें अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था.
एनआरसी प्रभारी डॉ. मंगल ने हमें बताया, “ज्यादातर बच्चे जन्म के बाद से ही कुपोषित हो जाते हैं. धीरे-धीरे इसके लक्षण सामने आते हैं. बच्चों का हाथ-पैर पतला होना, खाने के बाद पेट फूलना, स्किन से जुड़ी समस्याएं होना, ये सभी कुपोषण के लक्षण हैं.”
वह आगे कहते हैं, “बच्चों की लंबाई नहीं बढ़ना भी कुपोषण के लक्षणों में से एक है. शुरुआत में आंगनबाड़ी द्वारा इनका उपचार किया जाता है. जब स्थिति गंभीर होती है, तब उन्हें उपचार के लिए एनआरसी में भर्ती कराया जाता है.”
मालूम हो कि मध्य प्रदेश महिला बाल विकास विभाग प्रदेश के प्रति बच्चे के पोषण पर आठ रुपए का खर्च कर रहा है. इसमें 0 से 6 साल तक के बच्चे शामिल हैं. श्योपुर जिले में 0-6 साल तक बच्चों की लगभग संख्या 88 हजार है. महिला बाल विकास विभाग 0-3 साल तक के बच्चों के लिए 650 ग्राम का पोषण आहार पैकेट सप्ताह में प्रति मंगलवार को वितरित करता है. वहीं, 3-6 साल के बच्चों को आंगनवाड़ियों में ही दलिया, खिचड़ी, बेसन का हलवा और पोषण आहार का पैकेट दिया जाता है.
अलग-अलग योजनाओं के जरिए खर्च
चाइल्ड बजट वर्ष 2022-23 की रिपोर्ट के मुताबिक, महिला बाल विकास विभाग को पूरक पोषण आहार कार्यक्रम के अंतर्गत वित्तीय वर्ष 2022-23 में 73,06,088 रुपए के बजट का प्रावधान किया गया. इस योजना से 22 लाख बच्चे लाभान्वित हुए हैं. वहीं, वर्ष 2021-22 में यह राशि 71,98,886 रुपए थी यानी पिछले वित्तीय वर्ष के मुताबिक वर्ष 2023 में बजट की राशि को बढ़ाया गया.
मुख्यमंत्री सुपोषण योजना के अंतर्गत आंगनवाड़ियों द्वारा 0-5 वर्ष के बच्चों को कुपोषण और एनिमिया से मुक्त कराने एवं 15-49 वर्ष तक की महिलाओं को एनिमिया मुक्ति अभियान के अंतर्गत गर्म भोजन, दलिया, मूंगफली, लड्डू, अंडा, चिक्की आदि उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय वर्ष 2022-23 में 61 लाख रुपए बजट का प्रावधान किया गया. इस योजना के तहत, 4,33,000 महिलाओं को लाभ मिला.
श्योपुर जिले के आदिवासी इलाकों में कुपोषण के चलते पिछले पांच सालों में कई बच्चों की जान भी गई है. इनमें कुछ ऐसे हैं जो सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं हो पाए.
महिला एवं बाल विकास विभाग के आंकड़ों के अनुसार श्योपुर जिले में 823 बच्चे कुपोषित और 243 गंभीर कुपोषित मिले थे. यह आंकड़ा वर्ष 2022 का है. वर्तमान में भी श्योपुर ग्रामीण से लगातार कुपोषित बच्चे मिल रहे हैं.
पोषण आहार अनुदान योजना की राशि नदारद
सरकार ने कुपोषण से मुक्ति के लिए पोषण आहार अनुदान योजना की शुरुआत की थी. इस योजना के अंतर्गत अति पिछड़ी जनजातियों से संबंधित वर्ग को एक हजार रुपए प्रति महीने की सहायता राशि दी जाती थी लेकिन पिछले सात महीनों से यह राशि खातों में नहीं पहुंची.
पोषण आहार अनुदान योजना का सच जानने के लिए हम जिले के वर्धा और कलारना गांव पहुंचे. यहां हमारी मुलाकात कुछ महिलाओं से हुई जो बहुत गुस्से में थीं. पोषण अनुदान की राशि के बारे में पूछते ही उनका गुस्सा फूट पड़ा. आदिवासी महिलाओं का कहना है कि पिछले सात महीनों से वे बैंक के चक्कर लगा रहीं हैं लेकिन खाते में पैसे नहीं पहुंचे.
गांव में रहने वाली आहुति ने बताया कि पिछले सात महीनों से उनके खाते में पोषण आहार अनुदान की राशि नहीं पहुंची है. इसके लिए वह कई बार बैंक गईं लेकिन खाते में पैसे नहीं पहुंचे.
गांव की ही अनारदा कहती हैं कि वह योजना की राशि को लेकर कलेक्टर कार्यालय गईं थीं लेकिन अधिकारी इंतजार करने की बात कह कर मामले को टालते गए. अनारदा और आहुति आदिवासी हैं.
मध्य प्रदेश आदिम जाति कल्याण विभाग के आयुक्त संजीव सिंह से जब हमने आदिवासी इलाकों की इस समस्या पर बात की तो उन्होंने कहा, “विभाग अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों के कल्याण के लिए निरंतर काम कर रहा है. यदि प्रदेश के किसी जिले में कोई समस्या है तो आप हमारे विभाग को भेजें, हम जांच कराकर कार्रवाई करेंगे.
श्योपुर में आदिवासी उत्थान के लिए काम कर रही संस्था एकता परिषद के सदस्य जय सिंह जादौन ने बताया कि पोषण आहार की राशि आदिवासी महिलाओं के खातों में नहीं भेजे जाने से आने वाले समय में कुपोषण के मामले बढ़ सकते हैं.
प्रदेश सरकार ने अगस्त 2023 तक आहार अनुदान योजना के अंतर्गत 1.81 लाख महिलाओं पर दिसम्बर 2017 से अब तक 1391 करोड़ रुपए से ज्यादा की राशि खर्च की है. इस योजना में विशेष पिछड़ी जनजाति समुदाय में भारिया, बैगा, सहरिया शामिल हैं. यह योजना 23 दिसंबर, 2017 को शुरू की गई थी.
वहीं, विधानसभा क्षेत्र के विकास के लिए प्रति वर्ष विधायकों को विधायक निधि प्रदान की जाती है. श्योपुर के विजयपुर विधानसभा के विधायक सीताराम आदिवासी को अप्रैल 2023 में 2.50 करोड़ रुपए विधायक निधि मिली थी. यह राशि विधायक द्वारा विभिन्न प्रस्तावों के तहत खर्च कर दी गई.
इस पर विधायक सीताराम आदिवासी बताते हैं कि वह अपनी विधायक निधि की पूरी राशि क्षेत्र के विकास में खर्च कर चुके हैं. लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि विशेष रूप से कुपोषण या स्वास्थ्य सेवाओं पर कितना खर्च किया.
मध्य प्रदेश में पोषण आहार घोटाला
मध्य प्रदेश में वर्ष 2022 में पोषण आहार में घोटाले का मामला सामने आया था. पोषण आहार में गड़बड़ी के आरोप लगे थे. इस मामले की गंभीरता तब सामने आई जब कैग की एक रिपोर्ट में इस गड़बड़ी का जिक्र आया. दरअसल, पोषण आहार को लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी जिन निजी कंपनियों को दी गई थी, उन्होंने सिर्फ कागजों में इसकी खानापूर्ति कर दी.
कैग रिपोर्ट के मुताबिक भोपाल, छिंदवाड़ा, धार झाबुआ, रीवा, सागर, सतना, शिवपुरी और श्योपुर जिलों में करीब 97 हजार मीट्रिक टन पोषण आहार के स्टॉक की सूचना दी गई लेकिन उसमें से सिर्फ 87 हजार मीट्रिक टन पोषण आहार का ही वितरण हुआ. करीब 10 हजार टन आहार में गड़बड़ी हुई. हेराफेरी कर कागजों में बंटे इस आहार की कीमत करीब 62 करोड़ रुपए बताई गई थी. इस घोटाले की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगता है कि शिवपुरी जिले के दो विकासखंडों- खनियाधाना और कोलारस- में सिर्फ आठ महीने के भीतर पांच करोड़ रुपए के आहार के भुगतान की अनुमति दे दी गई, लेकिन जांच करने पर स्टॉक के रजिस्टर तक नहीं मिले.
एमपी के सबसे गरीब जिले में क्या बदला!
श्योपुर जिले की कुपोषण स्थिति को समझने के बाद हम अलीराजपुर पहुंचे. वर्ष 2021 में आई नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक अलीराजपुर भारत का सबसे गरीबी वाला जिला है. आयोग ने ‘मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स’ यानी 'बहुआयामी गरीबी सूचकांक' में यह बात साझा की. यह रिपोर्ट वर्ष 2019 और 2020 के बीच हुए ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई थी.
अलीराजपुर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम ककराना गांव के नर्मदा नदी के तट पर पहुंचे. यहां कुछ मोटर बोट और सामान्य कश्तियां किनारे पर लगी हुई थीं. नदी के उस पार कई गांव हैं, जैसे पेरियातर, झंडाना, सुगट, बेरखेड़ी, नदिसिरखड़ी, आंजनबारा, डूबखेड़ा, बड़ा आम्बा, जल सिंधी, सिलकदा, रोलीगांव. ये गांव, उत्तरी या पूर्वी भारत जैसे गांवों की तरह नहीं हैं जहां कई मकान एक साथ होते हैं. इन गांवों में नर्मदा के किनारे छोटे-छोटे टापूओं पर घर बने हैं.
हम नदी के दूसरी तरफ झंडाना होते हुए ककराना गांव पहुंचे. नदी के आस-पास छोटे पहाड़ (टापू) बने हुए हैं. इन्हें गांव के लोग फलिया कहते हैं. हर एक फलिया पर 2 से 6 मकान हैं. ऐसे ही नर्मदा के किनारे इन गांव में सैकड़ों घर बने हुए हैं.
हम नदी के किनारे गांव की फलिया पर पहुंचे. यहां हमें ललिता और उनका परिवार मिला. ललिता अपने पति सुरेश और उसके भाई, की पत्नी एवं चार बच्चों सहित एक छोटी सी झोपड़ी के बने घर में रहती हैं. इनके घर में रोजाना उपयोग के लिए 2-4 बर्तन ही हैं. सुरेश और उसका भाई मजदूरी करके अपने परिवार का पालन कर रहें है. मजदूरी इतनी कम है कि इन्हें अपने परिवार चलाने में परेशानी आ रही है.
ललिता ने बताया, “हमें कोई सरकारी मदद नहीं मिल रही. नदी में आई बाढ़ के कारण खेती की जमीन डूब गई, नाव भी डूब गई. ईश्वर से हर दिन प्रार्थना करती हूं कि कोई बीमार न पड़े. नहीं तो उन्हें अस्पताल कैसे ले जाऊंगी…!! इलाज कराने के लिए पैसे ही नहीं हैं.”
अलीराजपुर जिला आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है. जिसकी कुल आबादी 7 लाख 28 हजार है. यहां की साक्षरता दर 36 प्रतिशत है, यहां अति निर्धन लोग 71 प्रतिशत जबकि ग्रामीण आबादी 92 प्रतिशत है. यहां 90 प्रतिशत से अधिक जनजातीय समुदाय के लोग रहते हैं.
सरकार की योजनाओं का कितना लाभ इन लोगों तक पहुंचा है यह जानने के लिए हमने अलीराजपुर के कलेक्टर डॉ. अभय अरविंद बेडेकर से बात की. इस दौरान हमने उन्हें नर्मदा किनारे, झंडाना, ककराना सहित अन्य गांव के लोगों की समस्याओं के बारे में भी बताया.
वे कहते हैं, “प्रशासन उनकी परेशानियों को दूर करने के लिए काम कर रहा है. प्रशासन के लोग समय-समय पर जाते हैं. कुछ आदिवासियों को अन्य जगह जमीनों के पट्टे भी दिए गए हैं.”
हालांकि, उन्होंने राज्य में आचार सहिंता लागू होने का हवाला देते हुए किसी भी आंकड़े को हमसे साझा करने से मना कर दिया.
आजादी के बाद से गांव में नहीं आई बिजली
अलीराजपुर के बाद हम प्रदेश के एक और आदिवासी बाहुल जिले अनूपपुर की पुष्पराजगढ़ विधानसभा पहुंचे. राजधानी भोपाल से यह जिला करीब 600 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.
अनूपपुर में जनजातीय समुदाय की अति पिछड़ी जाति बैगा समाज के लोग रहते हैं. सबसे पहले हम ग्राम पंचायत बोधा के अंतर्गत गढ़ीदादर गांव में पहुंचे. आदिवासी बाहुल्य इस गांव की आबादी 900 के करीब है. लेकिन इस गांव में देश की आजादी के बाद से अब तक बिजली नहीं पहुंची. गांव के लोग इस बार चुनाव का बहिष्कार कर चुके हैं. उनका कहना है कि जब तक गांव में बिजली नहीं आती तब तक वह लोग मतदान नहीं करेंगे.
गांव की इंद्रवती कहती हैं कि सात साल पहले सुरेंद्र सिंह से उनका विवाह हुआ था. जब वह विदा होकर अपने सुसराल पहुंची तो यहां बिजली नहीं थी. उन्हें बताया गया कि कुछ दिनों बाद बिजली आएगी लेकिन अब तक भी बिजली नहीं पहुंची.
मालूम हो कि मध्य प्रदेश ऊर्जा विभाग का साल 2021-22 का बजट 17 हजार 908 करोड़ रुपए था. जिसे 30 प्रतिशत बढ़ाकर वर्ष 2022-23 के लिए 23 हजार 255 करोड़ रुपए कर दिया. बावजूद प्रदेश के कई गांवों में बिजली नहीं पहुंच पाई.
पानी और सड़क के लिए समुदाय का संघर्ष
वहीं, हम पुष्पराजगढ़ के बैगानटोला गांव में पहुंचे. यह गांव सड़क से करीब पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां तक जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है.
यहां के सरपंच दादूराम आदिवासी के साथ हम पैदल ही एक संकरे से रास्ते से गांव की ओर रवाना हुए. यहां की आबादी करीब 200 लोगों की है. जो दो अलग-अलग टोला बना कर रह रहे हैं. गांव के लोग खेती करते हैं. इसके अलावा कुछ लोग मजदूरी करने गांव से बाहर भी जाते हैं.
गांव के लोगों ने बताया, “यह भूमि वन विभाग के अंतर्गत आती है. हमारे पूर्वज यहीं रहा करते थे. इसलिए हम भी यहीं रह रहे हैं. वन विभाग की भूमि होने के कारण पटवारी, तसीलदार या अन्य कोई अधिकारी कभी इस गांव में नहीं आए.”
पांच किलोमीटर का संकरा और पथरीला पैदल रास्ता चलकर जाना कठिन है. शायद इसलिए इस गांव में आजतक कोई अधिकारी नहीं पहुंचा. गांव की शामली देवी ने बताया कि सिर्फ सरपंच और पंचायत सचिव नीचे के गांव से महीने में एक बार आते हैं.
गांव में शासकीय योजनाओं का लाभ तो दूर की बात है. यह लोग मूलभूत सुविधाओं के लिए लड़ रहे हैं. गांव में पानी की समस्या है. यहां झिरिया (छोटे-छोटे गड्ढे) खोद कर पेय जल लिया जा रहा है. गांव के लोगों द्वारा पहाड़ पर छोटे-छोटे गड्ढे खोदे जाते हैं. इन्हें बड़े-छोटे पत्थरों की मदद से चारों और से बांध दिया जाता है. करीब 7-8 फिट गहरे खोदे गए गड्ढे रात में पहाड़ों से रिसने वाले प्राकृतिक पानी से भर जाते हैं. इसी पानी का इस्तेमाल गांव के लोग करते हैं. झिरिया के बगल में एक छोटी खंती बनाते हैं. जिसमें अतिरिक्त बचे हुए पानी को स्टोर किया जाता है. यह पानी पालतू मवेशियों के पीने के लिए और खेती के लिए उपयोग किया जाता है.
गांव के सरपंच दादूराम पनाडिया ने बताया, “गांव के लोग दूषित पानी पी रहे हैं. इस कारण वह बीमार हो जाते हैं. कई लोगों की मौत सिर्फ इसलिए हो जाती है कि हम रोगी को अस्पताल लेकर नहीं जा पा रहे. जंगल और पहाड़ों के बीच बसे बैगानटोला में न सड़क है, न बजली और न ही पानी की समुचित व्यवस्था. यहां के लोग इन आवश्यक मूलभूत सुविधा से पूरी तरह वंचित हैं.”
मालूम हो कि भारत सरकार के वर्ष 2022 के बजट में शुद्ध नल का पानी उपलब्ध कराने के लिए हर घर, नल से जल कार्यक्रम के तहत अतिरिक्त 3.8 करोड़ घरों को कवर करने के लिए 60,000 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की थी. जल शक्ति मंत्रालय के तहत पेयजल और स्वच्छता विभाग 2022-23 के बजट में योजना के लिए आवंटित 60,000 करोड़ रुपए में से जनवरी 2023 तक लगभग 60 प्रतिशत खर्च हो चुका है.
शिक्षा से दूर हैं ग्रामवासी
बैगानटोला के लोग शिक्षा से दूर हैं. हालांकि, समुदाय की अगुवाई करने वाले यहां के सरपंच दादूराम पढ़े-लिखे हैं. दादूराम ने कहा वह सड़क किनारे गांव में रहते हैं. जिसके कारण उनका स्कूल जाना आसान था लेकिन बैगानटोला के लोग शिक्षा से नहीं जुड़ पा रहे. जिसका कारण गांव से सड़क तक का खराब रास्ता है. गांव में एक प्राथमिक स्कूल है, जिसमें कई-कई दिन शिक्षक नहीं आते, जिससे स्कूल लगभग बंद रहता है. इसके अलावा माध्यमिक स्कूल के लिए बच्चों को ग्राम गुट्टीपारा जाना पड़ता है. जहां रोजाना बच्चों का पहुंचना कठिन है.
इधर, राज्य सरकार शिक्षा को सुदृढ़ करने के लिए उपाय किए जाने का दावा करती है. स्कूल शिक्षा विभाग के लिए वर्ष 2022-23 में कुल 27 हजार 792 करोड़ रुपए का प्रावधान प्रस्तावित किया गया है. बजट में सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं की स्थापना हेतू 10345 करोड़ का प्रावधान किया गया. वहीं माध्यमिक शालाओं के लिए 6212 करोड़ का प्रावधान किया गया.
सरपंच दादूराम ने कहा, “आदिवासियों के लिए संचालित पोषण आहार अनुदान, टंट्या मामा आर्थिक ऋण योजना और संबल योजना या अन्य आर्थिक रूप से पिछड़ेपन को दूर करने के लिए संचालित सरकारी योजनाओं का लाभ समुदाय को नहीं मिल रहा है”. उन्होंने कहा कि कई बार पंचायत की ओर से रास्ता बनाने को लेकर प्रस्ताव दिया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती.
अनूपपुर जिले की पुष्पराजगढ़ विधानसभा सीट से कांग्रेस पार्टी के विधायक फुन्देलाल मार्को ने कहा, “क्षेत्र बहुत पिछड़ा हुआ है. सिर्फ विधायक निधि की राशि से विकास हो पाना संवभ नहीं है. मौजूदा भाजपा सरकार का ध्यान आदिवासियों की समस्याओं की बजाय उनके वोट पर है.”
बालाघाट के हालात
अनूपपुर के बाद हम बालाघाट जिले में पहुंचे. यह जिला गौंड आदिवासी बाहुल्य है. मध्य प्रदेश सरकार अनुसूचित जाति/जनजाति युवाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए कई तरह की योजनाओं का संचालन कर रही है. जिसके लिए करोड़ों रुपए अनुदान राशि बजट स्वीकृत की गई है. लेकिन इन योजनाओं का लाभ यहां धरातल पर नहीं पहुंच रहा.
मध्य प्रदेश आदिवासी वित्त विकास निगम तीन ऋण योजनाओं का संचालन कर रही है. जिसमें एक लाख से दो करोड़ रुपए तक के लोन में अनुदान दिए जाने का प्रावधान है. लेकिन योजना के लक्ष्य में लोन से लेकर आवंटन तक किए गए मामलों में बहुत अंतर है.
बालाघाट से करीब 20 किलोमीटर दूर पीपरटोला गांव है. यहां बाबा सियो की चाय नाश्ते की दुकान है. वे पहले मजदूरी करते थे. जब मजदूरी मिलना कम हुई तो उन्होंने गांव के कुछ लोगों से पैसा उधार लेकर दुकान खोल ली. हालांकि, दुकान में इतना मुनाफा नहीं है कि वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा कर पाएं. बाबा सियो के परिवार में उनकी पत्नी दो बच्चे और माता-पिता हैं.
बाबा सियो की पत्नी लक्ष्मी सियो भी दुकान में काम कर पति का हाथ बंटाती हैं. वे कहती हैं, “दुकान की आय से घर का खर्च भी ठीक से नहीं चल पाता है. लेकिन इसके अलावा हमारे पास और कोई साधन नहीं है.”
बाबा सियो ने कहा कि उन्हें सरकार की ऋण योजना की कोई जानकारी नहीं है. अगर सरकार की ऋण योजना के तहत उन्हें ऋण मिलेगा तो वह अपनी दुकान को बढ़ाएंगे.
सरकार की ऋण योजना के आंकड़े
अनुसूचित जनजाति वर्ग के युवाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए राज्य सरकार के आदिवासी वित्त विकास निगम के द्वारा तीन योजनाओं का संचालन किया जाता है. लेकिन हमारी पड़ताल में इन योजनाओं की जानकारी आदिवासी युवाओं को नहीं है. आवेदन करने के बाद भी योजनाओं का लाभ कम ही आवेदकों को मिल पा रहा है.
टंट्या मामा आर्थिक कल्याण योजना के तहत अनुसूचित जनजाति के युवाओं को सेवा व्यवसाय हेतु 10 हजार से 1 लाख रुपए तक का ऋण दिया जाता है. योजना में वित्तीय वर्ष 2022-23 में लक्ष्य 10,000 का रखा गया था. जिसमें कुल आवेदन 8533 प्राप्त हुए जिसमें सिर्फ 1715 आवेदन स्वीकृत हो पाए. इसी योजना के अंतर्गत वित्तीय वर्ष 2023-24 में लक्ष्य 10,000 आवेदन का तय किया गया, जिसमें 4632 आवेदन प्राप्त हुए और सिर्फ 185 लोगों का लोन स्वीकृत हुआ.
भगवान बिरसा मुंडा स्वरोजगार योजना के अंतर्गत 1 लाख से 50 लाख तक सेवा व रोजगार के लिए आदिवासी युवाओं को लोन दिया जाता है. योजना में वित्तीय वर्ष 2022-23 में लक्ष्य 10,000 का रखा था, लेकिन आवेदन 8323 के मिले और 1299 को लोन स्वीकृत हुआ. वित्तीय वर्ष 2023-24 में लक्ष्य 10,000 का तय किया, जिसमें 4523 आवेदन निगम को प्राप्त हुए लेकिन सिर्फ 265 को ही लाभ मिल पाया.
प्रदेश सरकार अनुसूचित जाति वर्ग के युवाओं के लिए भी चार योजनाओं के तहत लोन देती है. वहीं एसटी वर्ग के लिए तीन योजनाएं संचालित की जा रही हैं. अनुसूचित जनजाति को टंट्या मामा आर्थिक कल्याण योजना, भगवान बिरसा मुंडा स्वरोजगार योजना और मुख्यमंत्री अनुसूचित जनजाति विशेष परियोजना वित्त पोषण योजना के तहत एक लाख से दो करोड़ रुपये तक की योजनाएं संचालित की जा रही हैं.
प्रदेश के इन तीन क्षेत्र में रहते हैं आदिवासी
मध्य प्रदेश की कुल आबादी 7.2 करोड़ है. इस आबादी में करीब 21 प्रतिशत आदिवासियों की संख्या है. इस लिहाज से मध्य प्रदेश को देश का आदिवासी राज्य कहा जाए तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. मध्य प्रदेश में देश की कुल आदिवासी आबादी का 14.70 प्रतिशत (वर्ष 2011 की जनगणना) यहां निवास करती है. देश की जनजातीय आबादी 10.4 करोड़ है और मध्य प्रदेश की 1.53 करोड़ है जबकि, प्रदेश में 89 आदिवासी बाहुल्य ब्लॉक हैं.
प्रदेश के मध्य क्षेत्र में नर्मदापुरम, बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट, मंडला, डिंडौरी, रायसेन आदि जिले हैं. इनमें गौंड, बैगा, कोल, कोरकू परधान, भारिया और मुरिया निवास करते हैं.
प्रदेश के पश्चिम क्षेत्र में झाबुआ, आलीराजपुर, धार, खरगोन, बड़वानी और रतलाम जिलों से यह क्षेत्र पहचाना जाता है. इसमें भील, भिलाला, परितबा, बारेला और तड़नी आदिवासी रहते हैं.
तीसरा चंबल क्षेत्र है जिसमें श्योपुर, शिवपुरी, भिंड, मुरैना, गुना, दतिया, ग्वालियर जिलों में सहरिया जनजाति निवास करती है.
हम प्रदेश के तीनों हिस्सों के आदिवासी इलाकों में पहुंचे जहां सरकार के दावे से जमीनी हकीकत अलग नजर आई. जनजाति समाज के विकास के लिए सरकार ने रोजगार के लिए ऋण योजना, शिक्षा सहित अन्य योजनाओं के लिए अरबों रुपयों के बजट का प्रावधान किया है. जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के साथ जरूरी मूलभूत सुविधाएं शामिल हैं. इन इलाकों के विधायक भी लगभग पूरी निधि खर्च करते हैं, इसके बावजूद जमीनी स्तर पर विकास नहीं दिखाई देता.
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनिल सिंह धुर्वे ने कहा, “आजादी के इतने वर्षो के बाद करोड़ों अरबों रूपए खर्च के बाद भी यदि इन क्षेत्रों में आम नागरिकों के सामाजिक आर्थिक जीवन में कोई भी बड़े बदलाव नहीं आए हैं. कोई भी नेता जन सेवा के लिए काम नहीं कर रहा है. सभी अपने-अपने घर भरने में लगे हुए हैं.”
वे आगे कहते हैं, “अभी तक पूंजीपतियों के हित में नीतियां बनाकर आम नागरिकों के जीवन को बर्बाद करने में लगी हुई हैं. अतः सर्वांगीण विकास हेतु पूंजीपति मानसिकता वाले नेतृत्व को सत्ता से दूर कर जनहितैषी नेतृत्व को सत्ता सौंपना आज की आवश्यकता हैं.”
समाजसेवी तिरुमाल प्रेम शाह मरावी कहते हैं, “नागरिकों के कल्याण की तुलना में अब सरकारें पूंजीपति वर्ग के प्रति ज्यादा जिम्मेदार नजर आतीं हैं ताकि उन्हें लाभ मिल सके. अमीर और अमीर बनते जाएं, गरीब और गरीब बनते जाएं, यही हमारे क्षेत्रों में हो रहा है.”
मध्य प्रदेश आदिम जाति कल्याण विभाग के आयुक्त संजीव सिंह से जब हमने आदिवासी इलाकों में ग्राउंड जीरो पर दिखाई पड़ने वाली विभिन्न समस्याओं के बारे में बातचीत की तो उन्होंने जांच कर कराकर कार्रवाई की बात कही.
नोट: यह रिपोर्ट 'एनएल-टीएनएम इलेक्शन फंड' के हिस्से के रूप में प्रकाशित की गई है. फंड में योगदान देने के लिए यहां क्लिक करें. न्यूज़लॉन्ड्री और मूकनायक एक साझेदार के रूप में आप तक यह रिपोर्ट लाएं हैं. मूकनायक को समर्थन देने के लिए यहां क्लिक करें.
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