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क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जलवायु परिवर्तन का संकट हल करने में मिलेगी मदद?
चैट जीपीटी का नाम तो आपने सुना होगा. हो सकता है आपका इसका प्रयोग भी कर रहे हों. यह आधुनिक युग में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई और मशीन लर्निंग (एमएल) का सबसे स्पष्ट उदाहरण है. यानी मशीन लर्निंग आधारित चैट बॉट जो आपके लिए कविता, निबंध और नौकरी के लिए अर्ज़ी या इस्तीफ़ा लिखने के अलावा बहुत सारे सवालों के जवाब पलक झपकते ही दे सकता है.
आर्टिफिशल इंटेलिजेंस दुनिया में ऐसी ही क्रांति ला रही है और कहा जा रहा है कि इस ताक़त का इस्तेमाल जलवायु संकट यानी क्लाइमेट क्राइसिस से लड़ने में भी किया जा सकता है. लेकिन संभावनाओं के बीच यह एक सवाल भी है. कई विशेषज्ञ याद दिलाते हैं कि जो कंपनियां एआई की मदद से क्लाइमेट चेंज प्रभाव को कम करने की बात करती हैं, वही उपभोक्तावाद को बढ़ाकर क्लाइमेट संकट का ग्राफ उठा रही हैं, क्योंकि उपभोग में कटौती और समावेशी जीवनशैली जलवायु संकट से लड़ने की अनिवार्य शर्त है.
एआई से क्लाइमेट चेंज संकट कैसा हल होगा?
जलवायु परिवर्तन एक ग्लोबल इमरजेंसी है और अगर आप इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो आपको बीसियों लेख और रिसर्च आर्टिकल मिलेंगे बताते हैं कि कैसे एआई की मदद से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने में मदद मिल सकती है. जलवायु परिवर्तन एक मानव जनित समस्या है, जिसे समझने के लिए अनगिनत जटिल आंकड़ों और वैज्ञानिक गणनाओं से जूझना होता है ताकि एक सूचनापरक और प्रभावी नीतिगत फैसला लिया जा सके.
एआई इसमें कम से कम तीन क्षेत्रों में मदद कर सकता है.
डाटा एनालिसिस (आंकड़ों को इकट्ठा करना और उनका विश्लेषण)
प्रोसेस ऑप्टिमाइजेशन (संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल से प्रक्रिया के सबसे प्रभावी बनाना )
मॉडलिंग (वर्तमान में हो रहे कार्बन इमीशन की गणना के आधार पर भविष्य में पैदा होने वाली सबसे सटीक स्थितियों का पता लगाना)
वैश्विक तापमान में वृद्धि के साथ चरमी मौसमी घटनाओं (बाढ़, सूखा, चक्रवाती तूफान, ग्लेशियरों का पिघलना) की मारक क्षमता और संख्या में बढ़ोतरी हो रही है. यह मुमकिन है कि एआई के प्रयोग से वैज्ञानिक उपलब्ध विशाल और जटिल डाटा समूहों का अध्ययन कर, बहुत जल्दी जलवायु आपदाओं के बारे में अधिक सटीक जानकारियां इकट्ठी कर लें और पूर्वानुमान का बेहतर मॉडल हमारे पास हो.
जानकार बताते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग की मदद से साफ ऊर्जा के संयंत्रों (सौर पार्क और पवनचक्कियों) के आकार, लोकेशन और स्वरूप को लेकर बहुत बारीक और सही जानकारियां मिल पाएंगी. मिसाल के तौर पर तटीय या अपतटीय इलाके में कहां पर विन्ड मिल (पवनचक्कियां) लगाई जाएं. उनका आकार क्या रखा जाए और बनाने में मटीरियल कैसा और कितना इस्तेमाल हो, ताकि सर्वश्रेष्ठ नतीजे हासिल हो और ये पवनचक्कियां चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाओं को सफलतापूर्वक झेल सकें.
शोधकर्ताओं ने यह दिखाया है कि कृषि मौसम सलाहकार एआई टूल की मदद से किसानों को बता सकते हैं कि वह पानी के न्यूनतम प्रयोग से अधिकतम फसल कैसे पैदा करें. नासिक में अंगूर की खेती के लिए एक प्रायोगिक मॉडल (पायलट) तैयार किया गया. आईआईटी मुम्बई, भारतीय ऊष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे (आईआईटीएम) और सेंसरटिक्स प्राइवेट लिमिटेड का दावा है कि साल के किस वक्त खेती हो इसे ध्यान में रखकर 17 से 45% तक पानी बचा जा सकता है.
इसी तरह साल 2018 में माइक्रोसॉफ्ट और पीडब्लूसी द्वारा प्रकाशित एक रिसर्च के मुताबिक एआई के प्रयोग से जीडीपी में 4.4% की बढ़ोतरी की जा सकती है जबकि ग्रीन हाउस गैस इमीशन 1.5 से 4% तक घटाए जा सकते हैं.
क्या हैं चुनौतियां? एआई के जनक ने चेताया
जहां एक ओर एआई के इस्तेमाल से क्लाइमेट चेंज प्रभाव के समाधान मिलने की संभावना है वहीं इस टेक्नोलॉजी के जनक जैफ्री हिंटन ने खुद एआई के ख़तरों के प्रति आगाह किया है और कहा कि एआई जलवायु परिवर्तन से कहीं अधिक बड़ा ख़तरा है. इसका ग़लत इस्तेमाल होने की संभावना है. हिंटन ने गूगल के साथ कई वर्षों तक इस टेक्नोलॉजी को विकसित करने के बाद अपना इस्तीफा दे दिया और अब वह इस तकनीक के विकास से अपने जुड़ाव पर अफसोस करते हैं.
विशाल कार्बन फुटप्रिंट का प्रभाव
एआई के बेज़ा इस्तेमाल की हिंटन की चिंता को छोड़ भी दें, तो इस टेक्नोलॉजी के कार्बन फुट प्रिंट को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. वैज्ञानिक बताते हैं कि किसी उद्देश्य के लिए एल्गोरिद्म तैयार करने हेतु डाटा संग्रह और उनकी प्रोसेसिंग में ढेर सारी एनर्जी का इस्तेमाल होता है. किसी एक डाटा सेंटर में या क्लाउड के माध्यम से कतार में जुड़ी ढेर सारी मशीनें गणना करने में बहुत सारी बिजली का प्रयोग करती हैं, जो कार्बन इमीशन का कारण है.
स्वीडन की यूमिया विश्वविद्यालय में कम्प्यूटर साइंस की प्रोफेसर वर्जिनिया डिग्नम सामाजिक और नैतिक एआई पर काम करती हैं. वह उन 52 विशेषज्ञों की टीम का हिस्सा हैं जो यूरोपीय कमीशन को “भरोसेमन्द और मानव केंद्रित” एआई पर सलाह देती हैं.
उनका कहना है, “हम इस बारे में नहीं सोचते कि इस सब में कितनी बिजली खर्च होती है. पूरी दुनिया, विशेष रूप से उत्तरी यूरोप के देशों और कनाडा में डाटा फार्म हैं जो बहुत विशाल हैं और इनमें से कुछ इतनी बिजली खर्च करते हैं जितनी एक शहर को चलाने में खर्च होती है.”
प्रोफेसर वर्जिनिया डिग्नम अमेरिका के मैसिच्यूसेट्स विश्वविद्यालय की एक स्टडी का हवाला देकर बताती हैं कि मानव भाषा (ह्यूमन लैंग्वेज) पर काम करने के लिए एक बड़े एआई मॉडल को विकसित करने में करीब 3 लाख किलोग्राम के बराबर कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो अमेरिका में एक कार द्वारा किए गए इमीशन का पांच गुना है जिसमें कार के निर्माण में हुआ उत्सर्जन भी शामिल है.
स्वीडन के एक रिसर्चर के मुताबिक, 2025 तक सारी बिजली का 10% इस्तेमाल डाटा सेंटरों को चलाने में ही होगा. अमेरिका में कुछ शोधकर्ताओं ने यह मांग उठाई है कि एआई पर काम कर रहे वैज्ञानिकों को यह स्पष्ट बताना चाहिए कि उनका काम का क्लाइमेट पर कितना प्रभाव पड़ रहा है.
तकनीकी और डाटा में वैश्विक गैर-बराबरी
महत्वपूर्ण है कि डाटा संग्रह और तकनीकी की उपलब्धता को लेकर ग़रीब, विकासशील और विकसित देशों में एक गैरबराबरी है. विशेषज्ञों के मुताबिक एआई की मदद से जलवायु संकट की लड़ाई में गरीब और अमीर देशों को मिलने वाला लाभ एक सा नहीं होगा. ठीक उसी तरह जैसे कि इंटरनेट डिवाइड के कारण समाज के अलग-अलग तबकों में भेदभाव बन जाता है. लेकिन असली मुद्दा यह है एआई का प्रयोग किन लोगों के हाथों में होगा जो इसे संचालित करेंगे. यह चिंता जैफ्री हिंटन और वर्जिनिया डिग्निम प्रकट कर चुके हैं.
मध्य प्रदेश सरकार से जुड़े जलवायु परिवर्तन के नीति विशेषज्ञ लोकेन्द्र ठक्कर कहते हैं, “तकनीकी मददगार हो सकती है लेकिन वह धरती को बचाने की गारंटी नहीं है. समावेशी जीवन शैली को बढ़ावा और उपभोग में कमी करना जलवायु परिवर्तन से लड़ने की पहली शर्त हैं.”
उनके मुताबिक मौसम के रुख़ को पढ़ने में और कृषि जैसे महत्वपूर्ण विषयों में हमारे समाज की मौलिक, वास्तविक, सभी को सहज रूप से सुलभ, अनुभव जन्य पारम्परिक ज्ञान संपदा समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होती रही है. जलवायु परिवर्तन, मौसम और पर्यावरण के मामले में एआई जनित मॉडल समय, स्थान और परिस्थिति की कसौटी पर खरे उतरेंगे और हमेशा सटीक होंगे यह ज़रूरी नहीं है.
(साभार- कार्बन कॉपी)
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