Opinion
जनता की जुबान पर एक बार फिर से आनंद मोहन सिंह का नाम क्यों है?
5 दिसंबर, 1994 को बिहार की एक उत्तेजित शव यात्रा हिंसक हो गई. वैशाली-मुजफ्फरपुर हाईवे की ओर बढ़ती हुई इस शव यात्रा का नेतृत्व कुछ एक राजनेताओं द्वारा भी किया जा रहा था जिसमें आनंद मोहन सिंह जैसे बाहुबली नेता भी शामिल थे. माफिया आनंद मोहन सिंह अपराध की दुनिया से निकालकर विधायक बना था और वर्तमान में लगभग खत्म हो चली बिहार पीपल्स पार्टी (बीपीपी) का संस्थापक है. यह शव यात्रा कौशलेंद्र कुमार उर्फ छोटन शुक्ला की थी और वो भी पूर्व में गैंगस्टर था और बाद में बीपीपी का नेता बन गया था.
आक्रोश और दुख से उबलती चली जा रही शोककुल भीड़ की नजर 1985 बैच के युवा आईएअस अफसर और गोपालगंज के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (डीएम) जी कृष्णय्या के वाहन पर पड़ी. यह वाहन पटना की ओर जा रहा था.
आनंद मोहन सिंह के उकसावे पर भीड़ जल्द ही एक क्रुद्ध और हिंसक भीड़ में तब्दील हो गई और डीएम कृष्णय्या पर अपना गुस्सा उतारने लगी. एक भूमिहीन दलित परिवार में जन्मे कृष्णय्या अविभाजित आंध्रप्रदेश के महबूबनगर जिले से थे जो कि वर्तमान में तेलंगाना में स्थित है. भीड़ ने उन्हे कार से खींचकर बाहर निकाला और पीट-पीटकर मार डाला.
इस घटना के 13 साल बाद 2007 में आनंद मोहन को संबंधित मामले में सहायक जिला जज आरएस राय द्वारा भीड़ को उकसाने के अपराध में मौत की सजा सुनाई गई. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 147 (दंगा करने) और 427(तोड़फोड़ करने) के तहत दोषी पाया गया. 2008 में पटना हाई कोर्ट ने उसकी मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने उसकी दोष सिद्धि और उम्रकैद को बरकरार रखा.
लेकिन इसी महीने की 10 तारीख को बिहार सरकार ने एक नोटिस जारी किया है जिसमें एक ऐसा बदलाव था जो कि आनंद मोहन सिंह की जेल की सजा को कम कर सकता है.
नोटिस में कहा गया है कि दोषी करार दिए जा चुके अपराधियों की वो श्रेणियां जिनके तहत आने वाले अपराधियों को सजा की मियाद पूरी करने से पहले रिहा नहीं किया जा सकता, में से एक श्रेणी को इस नियम से बाहर कर दिया गया है.
पूर्व आईपीएस अफसर अमिताभ ठाकुर दास ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि नियमों में इस तरह के बदलाव से पहले जिला कारागार नियमावली में तीन श्रेणियों के अपराधियों - बलात्कारी, आतंकवादी और ऑन ड्यूटी सरकारी कर्मचारी की हत्यारों, के लिए सजा की मियाद पूरी होने से पूर्व रिहाई का कोई प्रावधान नहीं था.
आनंद मोहन सिंह अपने इस तीसरे अपराध के लिए पिछले 15 सालों से जेल में हैं. अब उन्हें सजा की मियाद पूरी होने से पहले ही रिहाई के लिए योग्य मान लिया जाएगा.
सरकार के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे छिपे सियासी कारणों को राजनीतिक विश्लेषकों ने अपने-अपने चश्मे से देखने की कोशिश की है, कि कैसे सोच-समझकर अपनी जरूरतों के हिसाब से एक ऐसा नियम तैयार किया गया है जिसके लागू होते ही कभी एक खूंखार बाहुबली और पूर्व सांसद रहा व्यक्ति सजा की मियाद पूरी होने से पहले ही खुद ब खुद रिहाई के काबिल हो जाएगा.
बल्कि पिछले छह महीनों में उसे तीन बार पैरोल मिल चुकी है. इससे जुड़ा सबसे हालिया मामला बेटे की शादी के लिए पैरोल मिलना है. इस सबने इस धारणा को और मजबूती ही दी है कि नीतीश कुमार की अगुवाई वाला महागठबंधन आनंद मोहन सिंह पर नरमी बरत रहा है.
बिहार के राजनैतिक टिप्पणीकार दूसरे हालिया संकेतकों को भी याद कर रहे हैं. नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) ने एक पार्टी कार्यक्रम का आयोजन किया जिसके द्वारा राजपूतों तक पहुंच बनाने की कोशिशों के स्पष्ट संकेत मिलते हैं- वही जाति जिससे आनंद मोहन आते हैं और इस जाति में अब भी आनंद मोहन का काफी दबदबा है. राजपूत नायक महाराणा प्रताप की स्मृति में आयोजित किए गए इस कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री ने नौजवानों द्वारा आनंद मोहन सिंह की रिहाई से जुड़े सवालों के जवाब दिए.
"हम इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं," उन्होंने एक ऐसी टोन में कहा जो उन्हें शांत कराने की कोशिश भर लगी हालांकि उसमें आश्वस्त करने का भाव भी था.
कारागार नियमावली में बदलाव के साथ ही इसने एक और नया मुकाम तय कर लिया है.
पिछले कुछ सालों से राज्य की दोनों कद्दावर पार्टियों- जनता दल यूनाइटेड
(जदयू) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) - अपने ओबीसी केंद्रित मताधार को सवर्ण जातियों तक पहुंच बनाकर बढ़ाना चाहती हैं. राजद जिसके पास पूर्व में राजपूत समर्थकों के कुछ खंड थे वो अब अपने आपको एक ऐसी पार्टी के तौर पर रीब्रांड करने को लेकर उत्साहित है जो सामाजिक समर्थन के 'ए टू ज़ेड' पर नजर गड़ाए हुए है.
आसान शब्दों में यह एक ऐसा आउटरीच कार्यक्रम है जो नाराज सवर्ण मतदाताओं और गैर ओबोसी समूहों को अपनी ओर खींचने के लिए अमल में लाया जा रहा है. ऐसी कोशिशों के जरिए पार्टी कुछ निर्वाचन क्षेत्रों पर आंख जमाए बैठी है, हालांकि यह एक मुश्किल काम है और कई बार पार्टी के मुख्य मतदाता समूह (कोर वोटर ग्रुप) के लिए प्रतिकूल प्रभाव वाला है.
राजद की वर्तमान सहयोगी लेकिन लंबे समय तक प्रतिद्वंदी रहने वाली पार्टी जदयू, भी सवर्ण जातियों के बीच जगह तलाश रही है. जहां बहुत से लोग कारागार नियमावली में वर्तमान बदलावों को राजपूत मतदाताओं के कुछ तबकों को तुष्ट करने के दांव के तौर पर देखने को प्रवृत्त हैं वहीं यह राज्य की उस दशा को उजागर करता है कि कैसे राज्य की कुछ जातियां गैंग्स के सशस्त्र नेताओं को जातीय गर्व और शक्ति की नजर से देखती हैं.
कृष्णय्या की हत्या के तीन साल पहले आनंद मोहन सिंह को हिंदी की पाक्षिक पत्रिका माया के 31 दिसंबर, 1991 के अंक के आवरण पर देखा गया था. उन्होंने अपने बंदूकधारियों के साथ कैमरे को पोज दिया और साथ ही आवरण पर यह वाक्य छपा था "ये बिहार है!" उन्हें विधायक के तौर पर चिन्हित किया गया. यह रिपोर्ट ऐसे माफिया डॉन्स की एक व्यवस्थित सारणी के बारे में थी जो राज्य में अलग-अलग तरह के क्राइम सिंडिकेट नियंत्रित कर रहे थें और सत्ता को चुनौती देने के साथ ही साथ उसकी कमान पर भी कुछ हद तक कब्जा जमाने की ताक में बैठे थें.
इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि जहां एक ओर उन्हें राजनैतिक संरक्षण के जरिए बचाया जा रहा था वहीं दूसरी ओर वे इस प्रतिद्वंद्वी हिंसा वाली राजनीति का हिस्सा भी बन रहे थे. 1990 के दशक में ऐसे अनेक कुख्यातों की लंबी सूची में आनंद मोहन सिंह मात्र एक नाम था. अशोक सम्राट, सूरज भान सिंह, मोहम्मद शहाबुद्दीन, छोटन शुक्ला और पप्पू यादव इस लंबी सूची के कुछ अन्य नाम थे. जहां इनमें से कुछ की पुलिस मुठभेड़ों और गैंगवार में आकस्मिक मौत हो गई वहीं बहुतों ने अपना कैरियर बनाने के लिए राजनीतिक की ओर रुख किया.
राज्य की निविदाओं और अनुबंधों पर दावों को नियंत्रित करने वाले अपराध माफियाओं और सिंडिकेटों के विस्तार को देखने का भी एक नजरिया है. बिहार जैसी अर्ध-सामंती और अर्ध-पूंजीवादी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में, जहां निजी पूंजी के पास निवेश और उद्यम के कुछ ही रास्ते थे, वहां अपराध निवेश के लिए एक आकर्षक विकल्प बन गया. एक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के तौर पर यह लगभग उद्यमशील था जिसमें निजी उद्यम के बहुत ज्यादा उत्पादक तरीके नहीं थे, और निजी क्षेत्र बिल्कुल नगण्य था.
आपराधिक हिंसा की क्षमता भी एक हद तक, राज्य के संसाधनों और सत्ता पर अपना दावा जताने का एक तरीका बन गई थी. जाति प्रतिनिधित्व जैसी सामाजिक पहचान एक सोशल लुब्रिकेंट के साथ-साथ इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप उपजने वाली एक सामाजिक पूंजी बन गई. विद्वान और सामाजिक टिप्पणीकार अरविंद एन दास ने भी अपनी किताब द रिपब्लिक ऑफ बिहार (पेंगुइन, 1992) में, इस बात पर विचार किया है कि कैसे आजादी के बाद बिहार में अपराध आदिम संचय का वाहक बन गया.
कुछ मायनों में कारागार नियमावली में किए गए बदलावों से जुड़े विवादों ने लोगों का ध्यान आपराधिक सिंडिकेट्स, राजनैतिक सत्ता और सामाजिक अस्मिता के बीच धुंधली पड़ चुकी रेखा और सत्ता में इन तीनों कारकों द्वारा निभाई जा रही भूमिका की ओर खींचा है. हालांकि अब इनको नवीन सामाजिक शक्तियों और मतदाताओं के एक ऐसे तबके के साथ मोल-भाव करना पड़ेगा जो इन कारकों के कठोर हस्तक्षेप के प्रति आंखें मूंद कर नहीं बैठा है. यह एक ऐसा मामला है जिसके प्रति राजनैतिक दल जमीन में सिर गाड़े हुए शुतुरमुर्ग जैसा रवैया नहीं अपना सकते फिर भले ही एक झटके में यहां-वहां किए गए कुछ एक बदलाव कुछ मतदाताओं का उनका कृपा-पात्र जरूर बना दे.
इस स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
Also Read
-
From Hauz Khas to SDA: Delhi’s posh colonies have stolen your footpaths
-
TV Newsance 312: Kalli vs NDTV and Navika loves Ranveer
-
As Trump tariffs hit India, Baba Ramdev is here to save the day
-
The Rs 444 question: Why India banned online money games
-
एसएससी: ‘प्रदर्शन के चक्कर में पढ़ाई बर्बाद हो गई’, आंदोलन खत्म करने का दोषी किसे मानते हैं छात्र