Opinion
गांधी से राहुल तक: लोकतंत्र बचाने में क्या देश, क्या विदेश
लड़ाई मैदान में थी- एकदम आमने- सामने की! युद्ध के इस मैदान से महात्मा गांधी ने देश से और वायसराय से दो अलग-अलग बातें कहीं थी. देश से कहा कि अब साबरमती आश्रम लौटूंगा तभी जब आजादी मेरे हाथ में होगी, कुत्ते की मौत भले मरूं लेकिन आजादी बिना आश्रम नहीं आऊंगा, दूसरी तरफ वायसराय को खुली चुनौती दी कि आपको अपना नमक कानून रद्द करना ही पड़ेगा! आग दोनों तरफ लगी थी, और ऐसे में किसी अमरीकी अखबार वाले ने (आज के ‘मीडिया वाले’ जरा ध्यान दें) पूछा, “इस लड़ाई में आप दुनिया से क्या कहना चाहते हैं?” तुरंत कागज की पर्ची पर गांधी ने लिखा, “आई वांट वर्ल्ड सिंपैथी इन दिस बैटल ऑफ राइट एगेंस्ट माइट यानी मैं सत्ता की अंधाधुंधी बनाम जनता के अधिकार की इस लड़ाई में विश्व की सहानुभूति चाहता हूं.”
पत्रकार भारत का कोई ‘राहुल गांधी’ नहीं था, सीधा अमेरिका का था; लड़ाई चुनावी नहीं थी, साम्राज्यवाद के अस्तित्व की थी; लेकिन दिल्ली में बैठे वायसराय ने या लंदन में बैठे उनके किसी आका ने नहीं कहा कि गांधी भारत के आंतरिक मामले में विदेशी हस्तक्षेप को बुलावा दे रहे हैं.
ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ कि गांधी ने भारत की आजादी की लड़ाई में दुनिया के विभिन्न नागरिकों को उनकी भूमिका निभाने का आमंत्रण दिया. उन्होंने सारे ब्रितानी (ब्रिटिश) नागरिकों को, सारे अमरीकियों को खुला पत्र लिखा कि वे भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष को ठीक से समझें तथा अपनी सरकारों पर दवाब डालें कि वह इस लड़ाई में हमारा समर्थन करें, क्योंकि सत्य व अहिंसा के रास्ते लड़ी जा रही इस लड़ाई से विश्व का व्यापक हित जुड़ा है. कभी कहीं से ऐसी चूं भी नहीं उठी कि गांधी को माफी मांगनी चाहिए कि उन्होंने विदेशी ताकतों को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित किया.
ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी व उसकी सरकार को यह इतिहास मालूम नहीं है लेकिन उसे यह भी तो मालूम है कि इस इतिहास को बनाने में उसका कोई हाथ नहीं है. इसलिए प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक का कोई भी इस इतिहास का जिक्र नहीं करता है. वे लगातार वही राग अलापते हैं, जो बार-बार हमें बताता है कि जिन्हें वह राग ही नहीं मालूम है, उन्हें गान कैसे समझ में आएगा.
राहुल गांधी ने लंदन में जो कुछ कहा, उसमें उनके माफी मांगने जैसा कुछ है ही नहीं; बल्कि वे माफी मांगेंगे तो बड़े कमजोर और खोखले राजनेता साबित होंगे; क्योंकि भारत के लोकतंत्र के जिस वैश्विक आयाम की बात उन्होंने वहां उठाई, उसने मेरे जैसे लोकतंत्र के सिपाहियों को मुदित किया कि राहुल हमारे लोकतंत्र के इस आयाम को समझते भी हैं तथा उसे इस तरह अभिव्यक्त भी कर सकते हैं. यह छुद्र दलीय राजनीति का मामला नहीं है इसलिए पार्टीबाज इसे न समझेंगे, न समझना चाहेंगे.
यह मामला सीधा लोकतंत्र की अस्मिता का है. भारतीय लोकतंत्र का यही वह आयाम है जिसे बांग्लादेश संघर्ष के वक्त जयप्रकाश नारायण ने सारी दुनिया से कहा था: लोकतंत्र किसी देश का आंतरिक मामला नहीं हो सकता है. उसका दमन सारे संसार की चिंता का विषय होना चाहिए. 1975 में, चंडीगढ़ की अपनी राजनीतिक नजर बंदी के दौरान जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी को पत्र लिख कर यही समझाना चाहा था. इंदिरा जी ने उसे तब नहीं समझा था, राहुल गांधी को जरूरत लगती है कि लोकतंत्र का दम भरने वाले दुनिया के देश उसे अब समझें. लंदन में उनकी बात का यही संदेश था.
भारत ने जब से संसदीय लोकतंत्र अपनाया है, उसके बाद से कोई 75 साल बीत रहे हैं कि वह इस रास्ते से विचलित नहीं हुआ है. उसके साथ या उससे आगे-पीछे स्वतंत्र हुए अधिकांश देशों ने लोकतंत्र का रास्ता छोड़ कर कोई दूसरा रास्ता पकड़ लिया है. विचलन हमारे यहां भी हुआ है, लेकिन गाड़ी लौट कर पटरी पर आती रही है. आज हमारे लोकतंत्र का अंतरराष्ट्रीय आयाम यह है कि यहां यदि यह कमजोर पड़ता है या इसका संसदीय स्वरूप बदल कर कुछ दूसरा रूप लेता है तो संसार भर में लोकतंत्र की दिशा में हो रही यात्रा ठिठक जाएगी या दूसरी पटरी पर चली जाएगी.
संसदीय लोकतंत्र के हमारे प्रयोग के अब अंतरराष्ट्रीय आयाम उभरने लगे हैं. हमारा यह प्रयोग लोकतंत्र की तरफ नये देशों को खींचने का कारण बन रहा है. सत्ता के अतिरेक व सत्ताधीशों की सत्तालोलुपता के खिलाफ सभी तरह के जनांदोलनों के प्रतीक गांधी बन जाते हैं, यह अकारण नहीं है. हमने अपने लोकतंत्र की स्थापना व उसके संचालन में जहां गांधी की बेहद उपेक्षा की है वहीं हम भी व दुनिया भी यह समझ पा रही है कि गांधी लोकतंत्र की पहचान हैं.
हम देख रहे हैं कि दुनिया भर में दक्षिण पंथ की लहर-सी उठी हुई है. वामपंथ या उस जैसा तेवर रखने वाली सत्ताएं, संसदीय लोकतंत्र को तोड़-मरोड़ कर सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने में लगी सरकारें बिखर जा रही हैं और सत्ता पर सांप्रदायिक, धुर जाहिल पुराणपंथी तत्व काबिज हो रहे हैं. ऐसे में हमारा संसदीय लोकतंत्र किसी प्रकाश-स्तंभ की तरह है. वही आशा है कि यह लहर लौटेगी तो संसदीय लोकतंत्र के किनारों पर ठौर पाएगी.
लंदन में राहुल ने इसे हमारे लोकतंत्र का अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बताते हुए पश्चिमी लोकतांत्रिक शक्तियों को आगाह किया कि अपना संसदीय लोकतंत्र बचाने का हम जो प्रयास कर रहे हैं, उसे आप सही संदर्भ में समझें और उसके हित में खड़े हों.
आज सब बाजार के आगे सर कटा-झुका रहे हैं. सबसे तेज अर्थव्यवस्था या पांच खरब की अर्थ-व्यवस्था जैसी बातों में किसी प्रकार का राष्ट्रीय गौरव दिखाने वाले लोग यह छिपा जाते हैं कि ऐसा कुछ पाने के लिए संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा व प्रकृति के विनाश की लक्ष्मण-रेखा पार करनी होगी. इसकी इजाजत हम किसी को कैसे दे सकते हैं कि वह लोकतंत्र के मृत चेहरे को इतना सजा दें कि वह जीवित होने का भ्रम पैदा करने लगे? हम मानवीय चेहरे वाला वह लोकतंत्र बनाना चाहते हैं जो अपने हर घटक को जीने का समान अवसर व सम्मान दे कर ही स्वंय की सार्थकता मानता है. यहां गति दम तोड़ने वाली नहीं, समरसता बनाने वाली होगी- प्रकृति व जीवन के बीच समरसता!
राहुल ने जो कहा उसके दो ही जवाब हो सकते हैं: भारत सरकार लोकतांत्रिक मानदंडों को झुका कर, खुद को उनके बराबर बताने का छद्म बंद करे. वह अपना लोकतांत्रिक व्यवहार व प्रदर्शन इतना ऊंचा उठाए कि उसका अपना लोकतांत्रिक चारित्र्य उभर कर सामने आए. राहुल को तीसरा कोई जवाब दिया नहीं जा सकता है. 1930 और 2023 के बीच इतनी बड़ी खाई नहीं बनाएं हम.
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)
Also Read
-
TV media sinks lower as independent media offers glimmer of hope in 2025
-
Bollywood after #MeToo: What changed – and what didn’t
-
TV Newsance 326: A very curly tale, or how taxpayers’ money was used for govt PR
-
Inside Mamdani’s campaign: The story of 2025’s defining election
-
How India’s Rs 34,000 crore CSR spending is distributed