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बीबीसी-लिनेकर विवाद: क्या पत्रकार मानवाधिकारों को लेकर ‘निष्पक्ष’ रह सकते हैं?

बीबीसी एक बार फिर ‘देश विरोधी’ होने की वजह से चर्चा में है, लेकिन शायद इस बार अर्नब गोस्वामी को इस मुद्दे पर अपनी छाती पीटने का मौका न मिले. क्योंकि इस बार विवाद में लिप्त ट्रोल देसी राष्ट्रवादी न होकर ब्रिटिश ट्रोल हैं.

वरिष्ठ ब्रिटिश फुटबॉल खिलाड़ी और खेल कमेंटेटर गैरी लिनेकर को हाल ही में बीबीसी ने उनके ‘सरकार-विरोधी’ ट्वीट के जरिए अपने सोशल मीडिया दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने की वजह से निलंबित कर दिया था. लेकिन फुटबॉल जगत, उनके चाहने वालों और सजग नागरिकों द्वारा इस निर्णय का पुरजोर विरोध करने पर उन्हें वापस रख लिया गया. 90 के दशक के अंत से ही लिनेकर बीबीसी के प्रमुख खेल कार्यक्रम मैच ऑफ़ द डे की मेजबानी करते रहे हैं, और वे प्रतिवर्ष 1.35 मिलियन पाउंड पाकर बीबीसी के सबसे ज़्यादा मेहनताना पाने वाले प्रस्तुतकर्ताओं में से एक हैं.

लेकिन ये पूरा विवाद क्या था? लिनेकर ने क्या कहा? वो ‘सरकार-विरोधी’ ट्वीट क्या था? बीबीसी की सोशल मीडिया नीतियां क्या हैं? साथ ही इस सब के बीच, हमारे यानी भारत के सूचना व प्रसारण मंत्री ने इस विषय पर क्या कहा?

विवाद का केंद्र बना ट्वीट और निष्पक्षता का नियम

लिनेकर ने ट्वीट किया था, “कोई बड़ा तांता नहीं लगा हुआ. हम अन्य बड़े यूरोपियन देशों के मुकाबले कहीं कम शरणार्थी लेते हैं. यह सबसे कमजोर लोगों को निशाना बनाने वाली अत्यंत क्रूर नीति है, ये तरीका 30 के दशक में जर्मनी द्वारा इस्तेमाल की गई नीति से कुछ अलग नहीं है, कि मैं सीमा लांघ रहा हूं?

इस ट्वीट में, उन्होंने संकेत दिया कि ऋषि सुनक के नेतृत्व वाली ब्रिटेन सरकार की विवादास्पद शरणार्थी नीति नाजी जर्मनी द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा की याद दिलाती है. इस ट्वीट की पृष्ठभूमि यूके सरकार का "नावों को रोको" अभियान और एक नया आव्रजन बिल है. इस बिल के तहत कंजरवेटिव पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार "अवैध" शरणार्थियों को रोकना चाहती है.

ट्वीट करने के बाद लिनेकर को प्रसारण से हटा दिया गया जिससे बीबीसी का सप्ताहांत का फुटबॉल कवरेज भी प्रभावित हुआ. लेकिन इससे यह सवाल तो उठता है: क्या किसी पत्रकार या खेल प्रस्तुतकर्ता को सोशल मीडिया पर उनके विचारों के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है?

बीबीसी ने कहा कि लिनेकर को "राजनीतिक मामलों में पड़ने" के लिए निलंबित किया गया था. इस वाकये से बीबीसी के निष्पक्षता नियम पर ध्यान गया है. बीबीसी का कहना है कि वह अपनी पूरी सामग्री में उचित निष्पक्षता कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध है, और नियम कहता है कि इसका अर्थ सिर्फ "संतुलन" के एक आम मतलब से ज्यादा है. "इसके लिए हर मुद्दे पर पूर्ण तटस्थता या मूल लोकतांत्रिक सिद्धांतों से अलग होने की आवश्यकता नहीं है, जैसे मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी और कानून का राज."

निष्पक्षता नियम बीबीसी की सोशल मीडिया उपयोग नीति के साथ कैसे फिट होता है? "हर कोई जो बीबीसी के लिए काम करता है, उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनकी गतिविधि बीबीसी की निष्पक्षता और प्रतिष्ठा की धारणा से समझौता, या उसको नुकसान नहीं पहुंचाती है."

क्या ये नियम स्वतंत्र प्रसारकों पर लागू होते हैं?

लिनेकर बीबीसी के एक कर्मचारी नहीं बल्कि एक स्वतंत्र प्रस्तुतकर्ता हैं. इसके साथ-साथ वे समाचार या तथ्यात्मक रिपोर्टिंग के धंधे में भी नहीं हैं. तो क्या सोशल मीडिया नियम एक स्वतंत्र ब्रॉडकास्टर पर लागू होते हैं? यह वो नुक्ता है जहां मामला कहीं ज्यादा गड़बड़ा जाता है.

बीबीसी मार्गदर्शिका के अनुसार अभिनेता, नाटककार, कॉमेडियन, संगीतकार और विषयों के पंडितों पर सोशल मीडिया पर निष्पक्षता की आवश्यकताएं लागू नहीं होतीं. तो लिनेकर की क्या गलती थी? बीबीसी के लिए यह कोई रहस्य की बात नहीं थी कि वह शरण चाहने वालों का समर्थन करते हैं, अपने घर पर शरणार्थियों को रखते हैं और मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने वाले कतर की ऑन-एयर आलोचना करते हैं. बीबीसी के महानिदेशक टिम डेवी के साथ अपने तालमेल को लेकर बीबीसी को 2021 में दिए एक साक्षात्कार में लिनेकर ने कहा था, “जब से वह यहां हैं, टिम डेवी के साथ मेरी लगभग दो या तीन बातचीत हुई हैं. उसने मुझे कभी फोन करके नहीं कहा: 'आप उसके बारे में ट्वीट नहीं कर सकते. या आप इस बारे में ट्वीट नहीं कर सकते.” लिनेकर ने इस बात से भी इनकार किया कि डेवी ने उनसे निष्पक्षता को लेकर बात की थी.

कंजर्वेटिव पार्टी से संबंध

तो उन्हें थोड़े से समय के लिए निलंबित क्यों किया गया?

ऋषि सुनक ने स्पष्ट किया कि निलंबन सरकार का मामला नहीं है. लेकिन हमें पूरी ईमानदारी से इसके दुष्परिणामों से निपटने के लिए बीबीसी को श्रेय देना होगा.

बीबीसी अब अपने निष्पक्षता और सोशल मीडिया दिशा-निर्देशों में संशोधन करना चाह रहा है. डेवी ने "कर्मचारियों, योगदानकर्ताओं, प्रस्तुतकर्ताओं और, सबसे महत्वपूर्ण, हमारे दर्शकों" से माफी मांगी है. लेकिन इस विवाद ने उन्हें और बीबीसी के अध्यक्ष रिचर्ड शार्प को सुर्खियों में ला दिया है. दोनों के ही रिश्ते कंजर्वेटिव पार्टी से हैं. शार्प ने सही में पार्टी को चंदा दिया था, और कथित तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को आठ लाख पाउंड का ऋण दिलवाया था.

सूचना-प्रसारण मंत्री की राय

इस बीच, लिनेकर को भारत में हमारे सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर में, बीबीसी में पत्रकारिता की स्वतंत्रता के बारे में चिंता करने वाला एक दोस्त मिला. उन्होंने ट्वीट किया, "जो लोग मनगढ़ंत तथ्यों के साथ दुर्भावनापूर्ण प्रचार में लिप्त हैं, उनसे साफ तौर पर नैतिक फाइबर या पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए खड़े होने की हिम्मत की उम्मीद नहीं की जा सकती है."

लेकिन क्या मंत्री जी पत्रकारिता की आजादी के लिए तब भी खड़े होंगे, अगर दूरदर्शन का एक पत्रकार भारत की नीतियों की तुलना नाजी जर्मनी से करे? आखिर दूरदर्शन एक सार्वजनिक प्रसारक के रूप में, बीबीसी से काफी मेल खा सकता था यदि उसके पास ज्यादा स्वायत्तता और सत्ता का कम नियंत्रण होता. यहां ये भी याद रखना चाहिए कि एक प्रसारक के रूप में, बीबीसी ने लिनेकर के निलंबन की सूचना दी और इस खबर को ब्लैकआउट नहीं किया.

साथ ही क्या ठाकुर जानते भी थे कि लिनेकर एक उदार शरणार्थी नीति के पक्ष में बोल रहे थे? क्योंकि जब नागरिकता और शरणार्थियों की बात आती है, तो ठाकुर की पार्टी, उनके बॉस और यहां तक ​​कि खुद मंत्री जी भी उदारवादी न होने के लिए जाने जाते हैं.

कम से कम एक मौके पर उनके बॉस ने बांग्लादेशी 'अवैध' प्रवासियों की तुलना "दीमक" से की थी, और निश्चित रूप से हम सभी को संदिग्ध "क्रोनोलॉजी" याद है. मंत्री महोदय ठाकुर खुद भी एक मशहूर नारा शुरू करने के लिए जाने जाते हैं, जिसे उनके आलोचकों ने सीएए-एनआरसी विरोध-प्रदर्शन के चरम पर हिंसा के लिए उकसाने वाला बताया था.

पोस्ट करना है या नहीं करना है?

तो क्या भारतीय मीडिया संस्थानों की कोई सोशल मीडिया नीति है? क्या पोस्ट करें या क्या न करें? इनमें से अधिकांश के ऐसे दिशानिर्देश हैं जो कर्मचारियों को तटस्थता बनाए रखने के लिए कहते हैं.

उदाहरण के लिए, श्याम मीरा सिंह को आज तक ने एक ट्वीट के लिए बर्खास्त कर दिया था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा था कि उन्होंने अफगानिस्तान में रॉयटर्स के पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत पर शोक व्यक्त क्यों नहीं किया.

न्यूज़लॉन्ड्री की इस रिपोर्ट में आप विस्तार से पढ़ सकते हैं कि भारतीय प्रेस पत्रकारों के निजी स्थानों से कैसे निपट रहा है. और जहां तक न्यूज़लॉन्ड्री का संबंध है, पत्रकारों के लिए हमारे पास सोशल मीडिया के लिए फिलहाल कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं.

कुल मिलाकर, इस मुद्दे पर विचार की दो शाखाएं हैं. एक जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करती है, और दूसरी जो तर्क देती है कि पत्रकारों की सोशल मीडिया हरकतों को निष्पक्ष या गैर-राजनीतिक रूप में देखा जाना चाहिए.

लेकिन ये तय है कि इस बहस का कोई आसान जवाब नहीं है. 

क्या मीडिया सत्ता या कॉर्पोरेट हितों के बजाय जनता के हित में काम कर सकता है? बिल्कुल कर सकता है, लेकिन तभी जब वह धन के लिए सत्ता या कॉरपोरेट स्रोतों के बजाय जनता पर निर्भर हो. इसका अर्थ है कि आपको खड़े होना पड़ेगा और खबरों को आज़ाद रखने के लिए थोड़ा खर्च करना होगा. सब्सक्राइब करें.

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