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गुजरात दंगा: ‘‘मेरे 23 परिजनों में से 19 को दंगाइयों ने मार दिया, उसमें मेरा 5 महीने का बेटा भी था.’’

28 फरवरी 2023, शाम पांच बजे, अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी के आसपास सब कुछ सामान्य है. गेट से अंदर जाने पर कई जर्जर, अधजले मकान हैं. जले घरों में से एक में 45 वर्षीय रिजवान अगरबत्ती जला रहे हैं. पूछने पर कहते हैं, ‘‘यह जाफरी साहब का मकान है. हर कोई आज के दिन यहां अगरबत्ती जलाने आता है. इसी में उन्हें जलाकर मार दिया गया था.’’

21 साल पहले 28 फरवरी 2002 को यहां भीड़ ने हमला कर घरों में आग लगा दी थी, हत्याएं की थीं. यह सब 27 फरवरी के बाद हुआ, जब गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में हुई आगजनी से अयोध्या से लौट रहे 59 श्रद्धालुओं और कारसेवकों की जलकर मौत हो गई थी. इसके बाद गुजरात में जगह-जगह दंगे भड़क उठे थे.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन दंगों में 790 मुसलमान और 254 हिंदुओं की मौत हुई, 223 लोग लापता हुए और करीब 2,500 लोग घायल हुए थे. हालांकि माना जाता है कि दंगों में मरने वालों की संख्या इससे कहीं ज्यादा थी.

इस दंगे के दौरान जिन जगहों से सबसे ज्यादा हिंसा की खबरें आईं, उनमें गुलबर्ग सोसायटी भी एक थी. गुलबर्ग सोसायटी में एक ही दिन में 69 लोगों की हत्या हुई थी. कभी यहां सैंकड़ों लोग रहा करते थे, 19 बंगले और 10 अपार्टमेंट थे, लेकिन अब यहां सिर्फ रफीक मंसूरी का परिवार है. बाकी लोग अपने अधजले घरों को छोड़कर चले गए हैं. मंसूरी हमें एहसान जाफ़री के घर के अंदर लेकर जाते हैं. बताते हैं, ‘‘साहब को इसी में मार दिया था.’’ 

वे इस दौरान जाफ़री के घर के बाहर के खाली हिस्सों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘‘यहां लाशें ही लाशें थीं. अधजले, कटे शव. चारों तरफ से दंगाइयों ने सोसायटी को घेर लिया था.’’

आप तब कहां थे? वे अपना चश्मा हटाते हुए कहते हैं, ‘‘मैं यहीं था. देखिए मेरी आंख में चोट लगी हुई है. हम तो बर्बाद हो गए. मेरे परिवार में 23 लोग थे. जिसमें से 19 लोगों की हत्या आज ही के दिन कर दी गई थी. सात लोगों का तो हमें शव तक नहीं मिला. मेरे पांच महीने के बेटे को भी मार दिया था.’’

यहां के रहने वाले दूसरे शख्स फिरोज खान के घर के 10 लोगों की मौत हुई थी. उनका घर अब भी अधजले हाल में पड़ा हुआ है. वे यहां नहीं रहते हैं.

गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत दयाल अपने एक लेख में गुलबर्ग सोसायटी के उस रोज के मंसूरी के बारे में लिखते हैं, ‘‘साढ़े चार बजे जब हम गुलबर्ग सोसायटी पहुंचे, तब गुलबर्ग सोसाइटी की आग बुझ चुकी थी. सिर्फ धुआं निकल रहा था. पूरी सोसाइटी में लाशें बिखरी पड़ी थीं. 'गोधरा की ग़लती के कारण' गुलबर्ग सोसायटी में 69 लोगों की जान चली गई. पुलिस और फायर ब्रिगेड के लिए करने जैसा कोई काम वहां बचा ही नहीं था. हां, कुछ लोग धुंआ उठ रहे मकान की छत पर बचने के लिए छुपे हुए थे. उनकी मदद के लिए आई पुलिस से भी उन्हें डर लग रहा था. पुलिस किसी तरह से उन्हें नीचे ले आई. इन लोगों में एहसान जाफ़री की बीवी जाकिया जाफ़री भी थीं, जिन्हें आज तक इंसाफ़ का इंतज़ार है.’’

55 वर्षीय रफीक मंसूरी बताते हैं, ‘‘मेरी दादी, मेरी पत्नी, मेरे बड़े भाई, मेरी भाभी, मेरे छोटे भाई और उसकी पत्नी, बहन, चाची, मेरी मां, मेरा भतीजा, भतीजी, चाचा के बच्चे थे. सबको मार दिया. आज भी वो मंसूरी याद आता है तो शरीर कांपने लगता है. घरों में बाटला (गैस सिलेंडर) में आग लगा दी थी. सुबह के 10 बजे भीड़ यहां आसपास जमा होने लगी थी. अचानक से भीड़ ने सोसायटी में चारों ओर से हमला कर दिया. ये गेट (मुख्य गेट) तोड़ दिया. पीछे से अंदर आ गए. उन पर खून सवार था. हम लोगों ने भी बचने के लिए उन पर हमले किए लेकिन वे तैयारी के साथ आए थे. शाम पांच बजे तक वे जलाते, मारते, लूटते रहे. पुलिस शाम को आई और बचे हुए लोगों को सुरक्षित लेकर गई.’’

रफीक मंसूरी का परिवार मूलतः राजस्थान का रहने वाला है. करीब 100 साल पहले ये लोग गुजरात आकर बस गए. यह व्यापार करते हैं. मंसूरी के 85 वर्षीय पिता खासम भाई उस रोज अपने एक रिश्तेदार को खून देने के लिए अस्पताल गए हुए थे. जब वे खून देकर लौटे तो लोगों ने बताया कि गुलबर्ग सोसायटी में हमला हो गया है.

वे बताते हैं, ‘‘मैं साइकिल से लौट रहा था. साइकिल लेकर सोसायटी के पीछे वाले हिस्से में आया. आसपास वाले मुझे पहचानते हैं, उन्होंने मुझे नहीं जाने दिया. मैं शाम को अपने घर के लोगों से मिला. तब किसी ने बताया नहीं कि ऐसा कुछ हुआ है. करीब आठ-दस दिन बाद मुझे इसके बारे में पता चला. मेरी तीन पोती, एक लड़का, मेरी मां की लाश नहीं मिली.’’ 

जो लोग मारने आए थे क्या वो जान पहचान के थे? जवाब में वे कहते हैं, ‘‘आज तो सब कहते हैं कि मैं नहीं था, मैं नहीं था, लेकिन अगर यहां का कोई नहीं होगा तो बताएगा कौन कि कौन सा घर मियां भाई का है. आधे यहां के थे, आधे बाहर के थे. उस वक़्त को याद करता हूं तो खाने तक का दिल नहीं होता है.’’

बुजुर्ग खासम बताते हैं, ‘‘न तो हमें न्याय मिला और न ही मुआवजा. मेरे परिवार के जिन लोगों का शव नहीं मिला उनका मुआवजा तक नहीं मिला है. हम कोर्ट के चक्कर काटते रहे लेकिन कुछ नहीं हुआ.’’

मंसूरी अब दूसरी शादी कर चुके हैं. उनका परिवार है. वे छोटे बच्चों के लिए झूला बनाने का व्यापार करते हैं. वे कहते हैं, “अब सब यहां ठीक है. मेरे यहां काम करने वाले ज्यादातर भाई हिंदू हैं. किसी के बीच कोई झगड़ा नहीं है लेकिन जिन लोगों ने यह सब किया, उन्हें सजा नहीं मिली. (आसमान की तरफ देखते हुए) भले ही आज सजा नहीं मिल रही हो, सरकार बचा रही हो, लेकिन ऊपर वाला तो ज़रूर ही सजा देगा. वो तो सजा देगा ही.”

जनसत्ता की रिपोर्ट के मुताबिक गुलबर्ग सोसायटी मामले में कुल 72 लोगों को आरोपी बनाया गया था. इनमें से छह आरोपियों की मौत सुनवाई के दौरान ही हो गई थी, जबकि 38 बरी हो गए थे. जून 2016 में एक विशेष अदालत ने 24 गुनहगारों को सजा सुनाई, जिनमें से 11 को उम्रकैद की सजा दी गई थी. इन दोषियों में से तीन ने अपनी सजा पूरी कर ली, जबकि निर्णय के खिलाफ उनकी अपील आज भी लंबित है. बाकी 21 अभियुक्त जमानत पर बाहर हैं जिनमें 11 उम्रकैद वाले आरोपी भी शामिल हैं. इनमें से चार आरोपी फरार हैं.

भले ही इस मामले में किसी को कठोर सजा न मिली हो, लेकिन आज 21 साल बाद भी गुलबर्ग सोसायटी की जली-झुलसी दीवारें यहां पर हुई भयानक हिंसा की कहानी बयान करती हैं. अब भी जले के निशान दीवारों पर ही नहीं यहां के लोगों के दिलों पर भी मौजूद हैं. जो शायद ही कभी धुलें. कुछ दाग ऐसे होते हैं जो कभी नहीं धुलते.

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