Opinion
क्यों मेघालय में भी तृणमूल का हश्र गोवा जैसा हो सकता है
दो साल पहले ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा और संघ परिवार की भीषण चुनौती का सामना करते हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में शानदार जीत हासिल की. तभी से तृणमूल ने पश्चिम बंगाल के बाहर अपने पैर पसारने की बहुत कोशिशें कीं लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली.
टीएमसी ने विस्तार का पहला गंभीर प्रयास पिछले साल गोवा में किया. लेकिन महंगे प्रचार और पब्लिसिटी के बाद भी उसे निराशा ही हाथ लगी. बंगाली-बहुल त्रिपुरा में चुनाव पार्टी की अगली चुनौती है, लेकिन यहां भी उसे कोई खास सफलता मिलने की उम्मीद नहीं है, विशेषकर अब जब पारंपरिक प्रतिद्वंदी कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) एक साथ चुनाव लड़ रहे हैं.
इस कारण से मेघालय में पार्टी का अभियान उसके लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां 27 फरवरी को मतदान होना है.
मेघालय में टीएमसी फिलहाल मुख्य विपक्षी दल है. नवंबर 2021 में पार्टी शून्य सीटों से अचानक मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ गई, जब कांग्रेस में टूट के बाद उसके 17 में से 12 विधायक पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के नेतृत्व में टीएमसी में शामिल हो गए. इस घटना से 2023 में मेघालय में एक संभावित टीएमसी सरकार की उम्मीदें जगीं. हालांकि ऐसा असंभव नहीं है, लेकिन कई कारणों से यह फिलहाल बहुत मुश्किल लगता है.
मेघालय राज्य तीन अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों से बना है: खासी, जयंतिया और गारो हिल्स, जहां क्रमशः खासी, जयंतिया और गारो जनजातियों का प्रभुत्व है. इनमें से खासी और जयंतिया भाषाई और सांस्कृतिक रूप से एक जैसी हैं, जबकि गारो दोनों से काफी अलग है. आम तौर पर खासी-जयंतिया हिल्स और गारो हिल्स की राजनीति भी एक दूसरे से अलग है; यह कहना सही होगा कि कोई नेता जिसका गारो हिल्स में वर्चस्व हो, वह खासी या जयंतिया हिल्स में चुनाव नहीं जीत सकता. वैसे ही खासी या जयंतिया में प्रभुत्व रखने वाला कोई नेता गारो हिल्स में नहीं जीत सकता.
मुकुल संगमा और उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी, वर्तमान मुख्यमंत्री और नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता कॉनराड संगमा, दोनों ही गारो नेता हैं. दोनों राजनैतिक परिवारों से आते हैं. कॉनराड संगमा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष स्वर्गीय पूर्णो संगमा के पुत्र हैं. उनके भाई जेम्स संगमा राज्य सरकार में मंत्री हैं जबकि उनकी बहन अगाथा संगमा गारो हिल्स से सांसद हैं. मुकुल संगमा एक डॉक्टर हैं जिनका बचपन साधारण परिवार में बीता. उन्होंने अपना खुद का राजनैतिक परिवार बनाया. उनके भाई जेनिथ संगमा, बेटी मियानी शिरा, पत्नी दिक्कांची शिरा और उनके भाई की पत्नी सदियारानी संगमा सभी गारो हिल्स से निर्वाचित प्रतिनिधि हैं.
इसलिए मेघालय में टीएमसी और एनपीपी के बीच की लड़ाई मुख्य रूप से इन दो प्रमुख राजनैतिक परिवारों के बीच है. गारो हिल्स में 24 सीटें हैं. वहां के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों और प्रमुख उम्मीदवारों पर करीब से नजर डालें तो एक बहुत ही दिलचस्प तस्वीर उभरती है.
असम और बांग्लादेश के साथ मेघालय की सीमाओं के करीब दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स में अम्पति सीट मुकुल संगमा का गढ़ रही है. उन्होंने पहली बार 1993 में वह सीट जीती थी, और 2018 के पिछले विधानसभा चुनाव तक अगले पांच बार वह इस सीट से जीते. हालांकि 2018 में उन्होंने गारो हिल्स की एक और सीट सोंगसाक से भी चुनाव लड़ा और बाद में अम्पति से इस्तीफा देकर अपनी बेटी मियानी को वहां से उम्मीदवार बनाया. मियानी ने कांग्रेस के टिकट पर बाकायदा उपचुनाव जीता, लेकिन उनके पिता के पार्टी छोड़ने से वहां परिवार की पकड़ कमजोर हो गई. लोगों ने दबी जुबान में असंतोष जाहिर किया कि मुकुल संगमा ने सोंगसाक के लिए अम्पति को छोड़ दिया.
इस बार मुकुल संगमा गारो हिल्स की दो सीटों, सोंगसाक और टिकरीकिल्ला से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि उनकी बेटी मियानी फिर अम्पति से चुनाव लड़ रही हैं. उनकी खुद की दोनों सीटों पर जीत निश्चित नहीं है. सोंगसाक में उन्हें एनपीपी से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. एनपीपी उम्मीदवार निहिम शिरा उस क्षेत्र के दिग्गज स्थानीय नेता हैं, जिन्होंने वह सीट दो बार 2008 और 2013 में जीती थी. 2018 में वह संगमा से 2,000 से भी कम मतों से हारे थे.
मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा व्यक्तिगत रूप से सोंगसाक में उनके खिलाफ अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं, जिससे मुकुल की राह और कठिन हो गई है. वहीं दूसरे चुनाव क्षेत्र टिकरीकिल्ला में उनके सामने इससे भी बड़ी चुनौती है. वहां के मौजूदा विधायक जिमी संगमा उन विधायकों में से एक थे जो कांग्रेस से टीएमसी में चले गए थे. पिछले महीने वह टीएमसी छोड़ एनपीपी में शामिल हो गए.
इसलिए मुकुल की लड़ाई बहुत कठिन है, विशेष रूप से क्षेत्र की डेमोग्राफी को देखते हुए. इस क्षेत्र में गारो बहुसंख्यक हैं, लेकिन राभा जनजाति और बंगाली भाषी मुसलमानों की बड़ी अल्पसंख्यक आबादी है.
भाजपा ने राभा जनजाति के मजबूत उम्मीदवार रोहिनाथ बारचुंग को खड़ा किया है. बारचुंग ने 2013 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था और हार गए थे. वहीं टिकरीकिल्ला के स्थानीय नेता और पूर्व राज्य मंत्री कपिन बोरो, जो पिछली बार भाजपा के टिकट पर चुनाव हार गए थे, इस बार कांग्रेस के उम्मीदवार हैं. क्षेत्र की राजनीति आदिवासी और सामुदायिक पहचान पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि गारो वोट मुख्य रूप से मुकुल या जिमी संगमा को मिलेगा. लेकिन यदि गारो वोट में विभाजन होता है, जैसा संभव लग रहा है, तो दोनों को ही हार का सामना करना पड़ सकता है.
कई अन्य कारणों से खासी हिल्स में टीएमसी के लिए कठिनाइयां और भी अधिक हैं.
कई दशकों तक बाहरी लोगों का विरोध मेघालय की राजधानी शिलांग की राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है. शिलांग खासी हिल्स में स्थित है. इसका असर आसपास के इलाकों में भी हुआ. 1979, 1987, 1991 और 1992 में बड़े दंगे हुए जिनमें वहां रह रहे "बाहरी" लोगों को, जिन्हें स्थानीय भाषा में "डखर" कहा जाता है, निशाना बनाया गया. इसका खामियाजा बंगाली और नेपाली भाषियों को भुगतना पड़ा. जहां बंगाली-भाषी हिंदू और मुस्लिम दोनों को बांग्लादेशी करार दिया गया और उनके साथ हिंसा हुई, वहीं गोरखाओं को भी नेपाली होने के संदेह पर निशाना बनाया गया.
इन क्षेत्रों में अभी भी वह पुरानी भावना मौजूद है. यही वजह है कि स्थानीय पार्टियां टीएमसी को बंगाल से आए बाहरी लोगों की पार्टी बताने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं. इस प्रयास में सांप्रदायिक राजनीति से काफी हद तक मुक्त एनपीपी भी शामिल है. “यदि मैडम ममता बनर्जी के अनुसार भाजपा और अन्य राष्ट्रीय दल पश्चिम बंगाल में बाहरी पार्टियां हैं, तो ठीक है, उनकी टीएमसी मेघालय में एक बाहरी पार्टी है. हमारे अपने राजनीतिक दल हैं और हमें अपनी देखभाल करना आता है," कॉनराड संगमा ने जयंतिया हिल्स के जोवाई में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए कहा. यही बात कई जगह दोहराई जा रही है, और निश्चित ही इसका कुछ प्रभाव पड़ेगा.
खासी और जयंतिया हिल्स में टीएमसी की संभावनाएं सीमित हैं. यहां मुकाबला मुख्य रूप से स्थानीय यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी और एनपीपी, बीजेपी, कांग्रेस, टीएमसी और वॉयस ऑफ द पीपल पार्टी नामक एक नई पार्टी सहित बाकियों के बीच है. टीएमसी के भी कुछ उम्मीदवारों के जीतने की संभावना है. यहां उम्मीदवार व्यक्तिगत रूप से पार्टियों से अधिक मायने रखते हैं, और मजबूत उम्मीदवार किसी भी पार्टी या निर्दलीय के रूप में भी जीतने में हमेशा से सफल रहे हैं.
राज्य के इस हिस्से में उम्मीदवारों की भीड़ भी ज्यादा है, खासकर खासी हिल्स में, जहां स्थानीय पार्टियों की भरमार है.
1947 में आजादी मिलने तक 25 अलग-अलग खासी राज्य थे, और हर किसी का अपना शासक हुआ करता था. उस खंडित व्यवस्था का कुछ अंश अभी भी बाकी है. हालांकि खासी हिल्स में गारो हिल्स की तुलना में अधिक सीटें हैं, और वहां के लोगों का राज्य के सार्वजनिक जीवन पर दबदबा है, राजनीति में गारो नेता ही लंबे समय से मुख्यमंत्री रहे हैं क्योंकि वे बड़ी संख्या में विधायक जुटाने में सफल रहे. खासी हिल्स में कई लोगों को यह तथ्य नागवार गुजरता है.
लोगों में 2010 के बाद से पहली बार खासी मुख्यमंत्री देखने की इच्छा है. 2010 में मुकुल संगमा सीएम बने थे. यूडीपी इस भावना को भुनाने की उम्मीद कर रही है, और उसने 46 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए हैं. लेकिन खासी राजनीति पारंपरिक रूप से खंडित रही है. यूडीपी भाग्यशाली होगी यदि वह 60-सदस्यीय सदन में 10 से अधिक सीटें पा जाए. पार्टी अध्यक्ष पॉल लिंगदोह समेत इसके कुछ प्रमुख चेहरों को अपनी-अपनी सीटों पर कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. पश्चिम शिलांग से चुनाव लड़ रहे लिंगदोह का मुकाबला एनपीपी के मौजूदा विधायक महेंद्रो रापसांग और मेघालय भाजपा अध्यक्ष अर्नेस्ट मावरी से है. रापसांग एक प्रसिद्ध और धनाढ्य बिल्डर हैं, जो उनके लिए लाभकारी हो सकता है.
सत्तारूढ़ एनपीपी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपों और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती दिखाई दे रही है. इसने राज्य के सभी हिस्सों में मजबूत उपस्थिति दर्ज की है, चुनावी फंड की व्यवस्था की है, और 57 सीटों पर उम्मीदवार उतारने के लिए तैयार है. एक सीट जिसपर वह उम्मीदवार खड़ा करने में विफल रही है, वह कुछ हद तक दर्शाता है कि उसे टीएमसी के अलावा उभरती हुई भाजपा से भी चुनौती मिल रही है.
ईसाई बहुल मेघालय में बीजेपी ने आज तक 60 में से तीन से ज्यादा सीटें नहीं जीती हैं. अभी उसके पास दो सीटें हैं, दोनों शिलांग में हैं. दोनों ही ऐसे उम्मीदवारों ने जीती हैं जो दूसरी पार्टियों से भाजपा में गए थे. ऐसे उम्मीदवार जो लगभग किसी भी पार्टी के टिकट पर जीत सकते हैं. इस बार बीजेपी ने ऐसे उम्मीदवारों की बड़ी सूची बनाई है. हाल ही में रानीकोर से पांच बार के विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष मार्टिन डांगो एनपीपी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए. अब एनपीपी के पास उस सीट पर उम्मीदवार नहीं है, जो फिलहाल यूडीपी के पास है.
भाजपा दक्षिण तुरा सीट पर एनपीपी प्रमुख कॉनराड संगमा के खिलाफ भी कड़ी चुनौती पेश कर रही है. यहां उसके उम्मीदवार हैं अचिक नेशनल वालंटियर्स काउंसिल नामक एक सशस्त्र उग्रवादी समूह के पूर्व नेता बर्नार्ड मारक, जिन्होंने 2014 में हथियार डाल दिए थे. मारक के अभियान को गृह मंत्री अमित शाह और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों से मजबूती मिली है. भाजपा और संघ परिवार के विभिन्न संगठन मेघालय में पार्टी का विस्तार करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, और इस बार भाजपा राज्य की सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. भाजपा का उद्देश्य है कि राज्य में पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार बने.
2018 के पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. लेकिन पूर्वोत्तर भारत में भाजपा के दिग्गज नेता और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के सहयोग से एनपीपी के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार बनी. इस बार, स्पष्ट रूप से भाजपा की कोशिश एनपीपी को उसकी जगह दिखाने की है. भाजपा तीन सीटों के अपने सर्वाधिक स्कोर को बेहतर करने की स्थिति में दिख रही है. वहीं दलबदल से तबाह हो चुकी कांग्रेस भी कुछ सीटें जीत सकती है, हालांकि उसने ज्यादातर नए उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. टीएमसी, यूडीपी, वीपीपी और अन्य को भी कुछ सीटें मिलने की उम्मीद है.
हर सीट पर चुनावी संघर्ष का स्वरूप अलग है. इसलिए एक खंडित जनादेश की संभावना प्रबल है जिसमें किसी भी पार्टी को पर्याप्त संख्या नहीं मिलेगी. असली सौदेबाजी तो नतीजे आने के बाद होगी और निश्चित रूप से इसमें बीजेपी को महारत हासिल है.
कई तरह के गठबंधन संभावित हैं. उदाहरण के लिए, एनपीपी, यूडीपी और बीजेपी का मौजूदा संयोजन पर्याप्त संख्या जुटाने में सफल हो सकता है और जारी रह सकता है. टीएमसी-यूडीपी का छोटे दलों के साथ गठजोड़ भी संभव है. अंतिम तस्वीर निश्चित रूप से परिणामों के बाद ही उभरेगी. राजनेताओं के लिए विचारधारा शायद ही महत्वपूर्ण है, और टेलीविजन और सोशल मीडिया पर जोर-शोर से बयानबाजी के बावजूद, जब वास्तव में मतदान की बात आती है तो वोटरों के लिए भी यह कम ही मायने रखती है. मेघालय और नागालैंड में 27 फरवरी को मतदान होना है. दोनों ही राज्यों में चुनाव के परिणाम बहुत हद तक पैसे से निर्धारित होते हैं. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पैसे का उपयोग पहले ही शुरू हो चुका है.
भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है. लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा और यूडीपी के हमले बेअसर हैं क्योंकि वह खुद भी सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा थे. टीएमसी इस मुद्दे पर कुछ सफलता पाना चाहती है. लेकिन पिछले नतीजों को देखते हुए लगता है भ्रष्टाचार के खिलाफ नैतिक बातों की बजाय पैसे और उपहार देकर मतदाताओं को अधिक प्रभावित किया जा सकता है.
चुनाव तो अपने आप में सिर्फ एक प्रस्तावना है. पैसे की असली भूमिका तो परिणाम आने के बाद सामने आ सकती है. किसी तरह की "रिसॉर्ट पॉलिटिक्स" की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है, जिसमें एक पार्टी को तोड़ दिया जाता है, जैसा कि शिवसेना के मामले में हुआ था.
भारत में चुनावी राजनीति तेजी से व्यवसाय का एक रूप ले रही है, जिसमें बड़े निवेश किए जाते हैं, इस उम्मीद में कि बाद में मुनाफे के साथ इनकी वसूली की जा सकती है.
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