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जलवायु परिवर्तन मौजूदा दौर का सबसे चिंतनीय मुद्दा
भारत ने संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण के जरिए विकासशील देशों के लिए ग्रीन फाइनेंस (पर्यावरण को बचाने के लिए धन की व्यवस्था) की खातिर मुखरता से अपनी बात रखी है. इसमें कहा गया है कि विकासशील देश, विकास से जुड़ी प्राथमिकताओं और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के बीच फंस गए हैं. भारत ने अपना पक्ष ऐसे वक्त सामने रखा है जब वह जी-20 की मेजबानी संभाल रहा है.
आर्थिक सर्वेक्षण को आम बजट से पहले संसद के पटल पर रखा जाता है. इसमें अलग-अलग संकेतकों के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा-दिशा के बारे में बताया जाता है. सरकार ने अपने मौजूदा कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट एक फरवरी को पेश किया.
आर्थिक सर्वेक्षण का 7वां अध्याय जलवायु परिवर्तन को समर्पित है. इसमें भारत के दीर्घकालिक रुख को दोहराया गया है– धन की कमी से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में दिक्कतें आएंगी. जलवायु परिवर्तन मौजूदा दौर का सबसे चिंतनीय मुद्दा है. अध्याय में उल्लेख किया गया है कि भारत ने अपने बूते पर जलवायु कार्रवाई (क्लाइमेट ऐक्शन) की है. अगर विकसित देश भारत से और ज्यादा महत्वाकांक्षी जलवायु उपायों की अपेक्षा करते हैं, तो उन्हें इसमें फंड, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता निर्माण जैसे क्षेत्र में मदद करनी होगी.
सर्वेक्षण में विकासशील देशों में क्लाइमेट एक्शन के लिए धन की व्यवस्था से जुड़ी चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताया गया है. “विकसित देशों में सार्वजनिक वित्त की बेहतर व्यवस्था है लेकिन उनका इरादा विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाने का नहीं लगता है. उनमें बहुपक्षीय संस्थानों को अतिरिक्त पूंजी प्रदान करने की भूख भी नहीं है, ताकि वे ज्यादा कर्ज दे सकें या अधिक से अधिक संसाधन जुटा सकें.
भारत इक्विटी और बराबर पर अलग-अलग जिम्मेदारियों और प्रतिक्रियात्मक क्षमताओं (सीबीडीआर-आरसी\ CBDR-RC) के सिद्धांतों की वकालत करता रहा है. इससे पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को दूर करना या पर्यावरण को खत्म होने से रोकना सभी देशों की साझा जिम्मेदारी है पर इसमें ऐतिहासिक रूप से कार्बन उत्सर्जन के हिसाब से जिम्मेदारी तय की जाती है. इसकी वजह अलग-अलग देशों की अलग-अलग क्षमताएं हैं. सीबीडीआर-आरसी को 1992 में ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) में औपचारिक रूप दिया गया था.
भारत के पहले मुख्य सांख्यिकीविद् और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रणब सेन ने बताया कि देश हर मौके पर इन सिद्धांतों के समर्थन में अपना पक्ष रखता रहा है. उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि इसके (आर्थिक सर्वेक्षण) माध्यम से, भारत यह संकेत देना चाहता है कि उसके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है.”
क्लाइमेट पॉलिसी इनिशिएटिव के भारत निदेशक ध्रुबा पुरकायस्थ ने कहा कि विकासशील देशों को ग्रीन फाइनेंस उपलब्ध कराने के लिए भारत का दबाव और देश के आर्थिक सर्वेक्षण में इसे शामिल करना, भारत की वर्तमान जी-20 अध्यक्षता से जुड़ा हुआ है. भारत को पिछले साल एक दिसंबर को जी-20 की अध्यक्षता मिली थी. उसका कार्यकाल 30 नवंबर, 2023 तक है. इस मंच पर 85% की संयुक्त वैश्विक जीडीपी वाले देश व्यापार, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, एनर्जी ट्रांजिशन जैसे कई महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों पर विचार-विमर्श करेंगे.
पुरकायस्थ का कहना है कि भारत ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) की ओर से जलवायु वित्त के मुद्दे को उठा रहा है. यह मुद्दा कई सालों से अनसुलझा है. उन्होंने कहा कि चाहे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) हो या नेट-जीरो प्रतिबद्धता, भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में आगे है. उन्होंने कहा कि जलवायु वित्त पर, भारत वैश्विक सोच की अगुवाई करने की स्थिति में है. उनका सुझाव है कि एक रास्ता निकालने की जरूरत है क्योंकि विकासशील देशों में जलवायु निवेश के लिए पूंजी ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देश) से ही आनी है.
उन्हें लगता है कि जी-20 सस्टेनेबल फाइनेंस टास्क फोर्स जी-20 मेजबान के रूप में भारत के लिए, टिकाऊ वित्त (सस्टेनेबल फाइनेंस) के मुद्दे पर वैश्विक सोच की अगुवाई करने का अवसर प्रदान करता है. इस टास्क फोर्स का उद्देश्य स्थायी वित्त जुटाना है. दुनिया में इंटरमीडिएट जलवायु वित्त के लिए एक संस्थागत तंत्र का अभाव है जहां जलवायु निवेश होना चाहिए. इसके लिए वैश्विक संस्थागत जोखिम को कम करने के लिए एक ढांचे की जरूरत है. इसका प्रबंधन अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए) के द्वारा किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि भारत एक संभावित वैश्विक संस्थागत तंत्र को एक अंतर-सरकारी संस्थागत तंत्र के रूप में तैयार करके इस मुद्दे पर नेतृत्व कर सकता है जहां हर देश को प्रतिनिधित्व मिलता है और गैर-ओईसीडी देशों में जलवायु निवेश के लिए पूंजी की लागत को कम करने पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया जाता है.
हावी होती भू-राजनीति
ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में रूस-यूक्रेन युद्ध पर भी रोशनी डाली गई है. इसमें कहा गया है कि किस तरह यूरोपीय देशों ने बड़े जलवायु लक्ष्यों के बारे में सोचे बिना अपने ऊर्जा हित को सुरक्षित करने के लिए कोयले की ओर रुख किया है. सर्वेक्षण कहता है, “2022 में यूरोपीय देशों का व्यवहार प्रमुख रूप से समझा जा सकता है. यह देशों के लिए ऊर्जा सुरक्षा की वापसी को एक प्रमुख जरूरत के रूप में पेश करता है. इसलिए, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी इससे अलग राय रखने का कोई कारण नहीं होगा.”
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सीएसटीईपी) में जलवायु, पर्यावरण और स्थिरता क्षेत्र की वरिष्ठ विश्लेषक कृतिका रविशंकर कहती हैं, "युद्ध से आई मंदी भी जलवायु वित्त में एक भूमिका निभा सकती है. वह आगे बताती हैं, “वैश्विक मंदी के अगले वर्ष भी जारी रहने की आशंका के साथ, विकसित देश उत्सर्जन के अपने हिस्से से लगातार जिम्मेदारी से भाग रहे हैं. इस तरह जलवायु-वित्त की लगातार उठ रही मांगों के लिए वे कम उत्तरदायी हो सकते हैं.”
आर्थिक सर्वेक्षण जलवायु कार्रवाई में बाधा डालने वाली अन्य चिंताओं की ओर इशारा करता है जैसे कि रेयर अर्थ एलिमेंट (आरईई) और क्रिटिकल मिनरल (सीएम). ये नवीन ऊर्जा और अन्य हरित प्रौद्योगिकियों (ग्रीन टेक्नोलॉजी) के प्रमुख घटक हैं. दिक्कत ये है कि ये चीजें सिर्फ कुछ देशों में उपलब्ध हैं और इनसे भी कम देशों में प्रोसेस की जाती हैं. सर्वेक्षण में कहा गया है, “पर्याप्त रेयर अर्थ एलिमेंट और क्रिटिकल मिनरल उपलब्ध नहीं होने पर दुनिया भर में जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ईंधन की तरफ एनर्जी ट्रांजिशन मुश्किल हो सकता है.” सर्वेक्षण में इन तत्वों की तुलना कच्चे तेल से की गई है, जो पिछले 50 सालों की भू-राजनीति में एक अहम खिलाड़ी बना हुआ.
आर्थिक विकास के लिए एनर्जी ट्रांजिशन अहम
मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने एनर्जी ट्रांजिशन को भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने वाले स्तंभों में से एक बताया. वह संसद में सर्वेक्षण पेश किए जाने के बाद मीडिया से बात कर रहे थे. उन्होंने कहा कि भारत अपने एनर्जी मिक्स में नवीन ऊर्जा के अपने लक्ष्य से काफी आगे है. भारत का लक्ष्य है कि 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन से 40% ऊर्जा मिले. अब इस लक्ष्य को 2030 तक के लिए बढ़ाकर 50% कर दिया गया है. उन्होंने कहा, “हमारे पास अब जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं से निपटने के लिए आठ मिशन हैं. हमने कॉप-27 में अपने एनडीसी (Nationally Determined Contributions) को अपडेट किया है. भारत ने हाल ही में नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन लॉन्च किया है. एक अरब डॉलर के सॉवरिन ग्रीन बॉन्ड की पहली किश्त की अभी नीलामी की गई और इससे बेहतर प्राप्ति हुई है.”
उन्होंने दोहराया कि सर्वेक्षण क्या संकेत देता है – भारत अपनी लंबी तटरेखा, मानसून पर निर्भर खेती और एक बड़ी कृषि अर्थव्यवस्था के चलते जलवायु परिवर्तन को लेकर संवेदनशील है.
सर्वेक्षण में जलवायु कार्रवाई पर भारत की कोशिशों और इनसे हासिल हुई चीजों का व्यापक ब्यौरा दिया गया है. यह आठ राष्ट्रीय मिशनों की प्रगति के बारे में जानकारी देता है जो जलवायु कार्रवाई और एनडीसी को लेकर प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए हैं. उदाहरण के लिए, भारत ने राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत 61.62 गीगावाट की सौर ऊर्जा क्षमता हासिल की है. सर्वेक्षण में यह भी दावा किया गया है कि पिछले डेढ़ दशक में भारत में जंगलों और पेड़ों के आच्छादन में क्रमिक और स्थिर वृद्धि देखी गई है.
इसमें दावा किया गया है कि भारत के जंगलों में कार्बन स्टॉक 2011 में 6941 मिलियन टन से बढ़कर 2019 में 7204 मिलियन टन हो गया है. वहीं मेंग्रोव कवर में भी बढ़ोतरी दर्ज की गई है. 2009 में जहां ये कवर 4639 वर्ग किलोमीटर था. वहीं 2021 में यह बढ़कर 4992 वर्ग किलोमीटर हो गया है.
सर्वेक्षण में जैव विविधता को बचाने के लिए भारत के प्रयासों पर भी रोशनी डाली गई है. इसमें कहा गया है कि भारत ने 2002 में जैविक विविधता कानून बनाया. वहीं प्रोजेक्ट चीता के तहत मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में नामीबिया से लाकर आठ चीते छोड़े गए हैं. इन्हें आर्थिक सर्वेक्षण में उपलब्धि की तरह पेश किया गया है.
सर्वेक्षण यह कहते हुए अध्याय को पूरा करता है, “अगर धनी देश नीति और व्यवहार में बदलाव के उदाहरण स्थापित कर पाए तो वैश्विक जलवायु एजेंडा आगे बढ़ सकता है, जो उनके यहां काम करता हैं और उनके लोग इसे स्वीकार करते हैं. फिर, विकासशील देशों में उपयुक्त बदलाव के साथ ऐसी नीतियों और परिवारों की व्यवहारिक अपेक्षाओं के सफल होने की उम्मीद करना यथार्थवादी हो सकता है.
(साभार- MONGABAY हिंदी)
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