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साल 2022, जब न्यायपालिका ने मीडिया की तरफ घुमाईं निगाहें

पत्रकार बिरादरी द्वारा आज के मीडिया की पर्याप्त आलोचना होती रहती है, लेकिन इस साल कई मौके ऐसे आए जब भारतीय न्यायपालिका भी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के कुछ वर्गों पर जमकर बरसी.

चाहे घृणा फैलाने वाले बयान हों, "कंगारू कोर्ट सरीखा मीडिया ट्रायल" हो, या मामलों को सूचीबद्ध करने पर आलोचना हो, सुप्रीम कोर्ट ने कई मुद्दों पर मीडिया पर अपनी निगाहें जमाईं, और कम से कम एक मामले में मीडिया से जजों के खिलाफ व्यक्तिगत हमले "रोकने" को कहा. लेकिन क्या अदालत की टिप्पणी बाध्यकारी थी, या न्यायपालिका के अधिकार-क्षेत्र के अतिक्रमण की दहलीज? और क्या मीडिया हमेशा ख़बरों से आगे रहने की कोशिश करता है?

देखा जाए तो यह साल न्यायपालिका के लिए भी मिला-जुला रहा. इस साल देश ने तीन मुख्य न्यायाधीश देखे- जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़. जहां एक ओर मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस के चंद्रू ने कहा कि इस वर्ष न्यायपालिका ने अपनी "शक्ति का उस तरह प्रयोग नहीं की जो नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है", 

वहीं दूसरी ओर कुछ प्रगतिशील फैसले भी आए, जैसे सितंबर में गर्भपात पर दिया गया एक आदेश. हालांकि, संवैधानिक स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में न्यायपालिका की कथित निष्क्रियता पर चिंताएं बनी रहीं- उदाहरण के लिए, मनी लॉन्ड्रिंग कानून पर दिए गए फैसले को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन माना गया.

इस बीच मीडिया, विशेष रूप से टेलीविजन, हेट स्पीच के कारण जांच के घेरे में रहा. काउंसिल ऑन माइनॉरिटी राइट्स इन इंडिया नामक एक एनजीओ ने नवंबर में 'रिलिजियस माइनॉरिटीज इन इंडिया' नाम से एक रिपोर्ट जारी की जिसमें टीवी बहसों में अल्पसंख्यकों के चित्रण को लेकर चिंता जताई गई. 

उदाहरण के लिए, रिपोर्ट ने कहा कि 2021 में आज तक की वरिष्ठ कार्यकारी संपादक अंजना ओम कश्यप के शो हल्‍ला बोल पर धार्मिक अल्पसंख्यकों से संबंधित 60 एपिसोड में से 57 में उनका चित्रण नकारात्मक था. आजतक की एंकर इस साल दिल्ली के जहांगीरपुरी में हुई तोड़फोड़ की वैधता पर सवाल उठाने के बजाय, कूदकर एक बुलडोजर पर चढ़ गईं थीं.

इससे कुछ महीने पहले, अप्रैल में न्यूज़-18 इंडिया के एंकर अमन चोपड़ा के खिलाफ उनके शो के लिए कई एफआईआर दर्ज की गई थीं. चोपड़ा ने अपने शो में कहा था कि राजस्थान की कांग्रेस-सरकार ने एक मंदिर को गिराकर, दिल्ली में अतिक्रमण हटाने के दौरान हुई तोड़फोड़ का "बदला" लिया है. इसके अलावा, कई मौकों पर राष्ट्रीय प्रसारण और डिजिटल मानक प्राधिकरण ने चैनलों के कवरेज पर आपत्ति जताई और कार्यक्रमों को प्रसारण माध्यमों से हटाने का आदेश दिया.

अगस्त में, भारत में हेट स्पीच पर एक डॉक्यूमेंट्री में अल जज़ीरा से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील शाहरुख आलम ने कहा, "इस तरह के नाटकीय टीवी शो चलते हैं क्योंकि हमारा मध्यम-वर्ग असुरक्षा की भावना से ग्रसित है और वह अपनी असुरक्षा, भय, क्रोध, आक्रोश और घृणा को एक चेहरा देना पसंद करते हैं. और टीवी ने उन्हें वह चेहरा दे दिया- एक मुस्लिम का चेहरा.”

सितंबर में, हेट स्पीच से जुड़ी 11 याचिकाओं की सुनवाई करते हुए, अदालत ने मीडिया की आलोचना की और केंद्र से भी पूछा था कि वह इस मुद्दे पर मूकदर्शक क्यों बना हुआ है. जस्टिस के एम जोसेफ ने कहा, "एंकर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है... इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वतंत्र चर्चा होनी चाहिए, लेकिन आपको यह भी पता होना चाहिए कि लक्ष्मण रेखा कहां खींचनी है." कोर्ट ने एक मजबूत नियामक तंत्र की भी मांग की. केंद्र सरकार ने अभी तक कोर्ट को जवाब नहीं दिया है.

दिल्ली-स्थित अधिवक्ता अरीब उद्दीन अहमद ने कहा, “मीडिया और न्यायपालिका के बीच टकराव नहीं होना चाहिए क्योंकि दोनों की एक अलग भूमिका है, लेकिन हमें एक नियामक संस्था की आवश्यकता है जो ऐसे चैनलों पर लगाम लगाए जो टीआरपी के लिए सच्चाई को एक 'मसालेदार' बहस में बदल देते हैं. और ऐसे मीडिया घरानों की जवाबदेही तय होनी चाहिए.”

हालांकि, न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के चंद्रू ने कहा, "आपको याद होगा कि न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में क्या कहा था. दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट की एक इमारत है, लेकिन उसके भीतर 34 सुप्रीम कोर्ट हैं. यदि आप विभिन्न सुनवाईयों के दौरान जजों के अनौपचारिक बयानों के हिसाब से अपनी धारणा बनाएंगे तो आपको गलतफहमी हो सकती है. कभी-कभी बयान केवल जनता के लिए दिए जाते हैं, जिनका उल्लेख लिखित आदेशों में कम ही होता है.”

ऐसे ही एक आदेश में, 2020 में सूफी फकीर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के खिलाफ टिप्पणी के लिए न्यूज़-18 के एंकर अमीश देवगन के खिलाफ मामलों को रद्द करने से इनकार करते हुए, अदालत ने कहा था, "प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पहुंच, प्रभाव और अधिकार को ध्यान में रखते हुए अधिक जिम्मेदार होना चाहिए.” अदालतों द्वारा टीवी बहसों की जांच किए जाने के मुद्दे पर न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने एक मामले का उल्लेख किया जिसमें "एंकर के साथ-साथ बहस में बराबर से हिस्सा लेने वालों को भी जिम्मेदार ठहराया गया था." 

हालांकि, अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग पर किसी भी तरह के नियमन की जरूरत नहीं होनी चाहिए, भले ही अदालत द्वारा मीडिया ट्रायल- जैसा दिशा सालियान और सुशांत सिंह राजपूत के मामलों में देखा गया कि आलोचना मान्य हो सकती है. 

जुलाई में तत्कालीन सीजेआई एनवी रमना की टिप्पणी, मीडिया अपनी जिम्मेदारी की "हद पार" कर रहा है, का जिक्र करते हुए एडवोकेट अरीब उद्दीन अहमद ने कहा, "मेरा मानना ​​​​है कि मुख्य न्यायाधीश फर्जी खबरों के नियमन और समाचारों के अनभिज्ञ विनियमन के संदर्भ में बोल रहे थे. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लोग सोशल मीडिया पर जजों की आलोचना करते हैं और फिर उन पर अवमानना का केस होता है, लेकिन सभी को याद रखना चाहिए कि आलोचना हमेशा रचनात्मक होनी चाहिए. केवल आलोचना करने के लिए आलोचना करना सही नहीं है."

जस्टिस चंद्रू के अनुसार, "केवल स्वस्थ आलोचना से ही न्यायपालिका "कुछ संतुलित" रहती है. ऐसा नहीं है कि जजों के खिलाफ उनके न्यायिक आदेशों के बारे में की गई टिप्पणियों का भी कोई नतीजा नहीं निकलता है," 

उन्होंने कहा और उदहारण दिया कि 2015 में आरक्षण पर उनकी कथित असंवैधानिक टिप्पणी को लेकर न्यायमूर्ति परदीवाला के खिलाफ महाभियोग चलाने का प्रयास हुआ था.

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