Report
"मिलन की कहानी" बताती है कि गांधी आज भी प्रासंगिक हैं
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि क्या महात्मा गांधी आज भी प्रासंगिक हैं? उनके मार्ग पर चलना अब भी मुमकिन है? गूगल पर इसको लेकर सैकड़ों सवाल और तरह-तरह के जवाब उपलब्ध हैं.
आज महात्मा गांधी से नफरत करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. उनके बारे में मनगढ़ंत, अधूरी जानकारियां और झूठी खबरें आईटी सेल के माध्यम से फैलाई जा रही हैं. लोकसभा में भी गांधी की हत्या करने वाले के पक्ष में नारे लगाए जा रहे हैं. यानी देश में एक बड़ा तबका गांधी को विलेन मान बैठा है.
गुजरात के अहमदाबाद के रहने वाले 32 वर्षीय मिलन ठक्कर ऐसे ही नौजवानों में से थे. वे महात्मा गांधी के बारे में सोशल मीडिया और अपने आसपास के कुछ लोगों से जानते थे. वे गांधी को पसंद नहीं करते थे, उन्हें गाली देते थे.
ठक्कर बताते हैं, ‘‘मैं बापू से नफरत करता था. उनकी तस्वीरें देखकर उन्हें गाली तक दे देता था. मैं नफरत क्यों करता था इसका ठीक-ठीक जवाब यह है कि मैं कभी उनके पास गया ही नहीं था. आसपास के लोगों से सुना था कि उन्होंने पाकिस्तान को 55 लाख रुपए दिलवा दिए. सरदार पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिए. इन सब कारणों से मुझे वो पसंद नहीं थे.’’
आगे चलकर महात्मा गांधी के विचार ने मिलन ठक्कर की जिंदगी पूरी तरह बदल दी.
‘जेल में गांधी से मुलाकात’
एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्में मिलन अपने परिवार की आर्थिक स्थिति से परेशान थे. 10वीं तक की पढ़ाई करने के बाद मिलन ने पढ़ना छोड़कर काम करना शुरू कर दिया. मिलान बताते हैं, ‘‘मेरा एंबीशन इतना ज़्यादा था कि मैं कहीं रुककर काम नहीं कर पाता था. बिजनेस के लिए मेरे पास पैसे भी नहीं थे.’’
मिलन ने इसके लिए शॉर्टकट रास्ता अपनाया. उन्होंने नकली नोट प्रिंट किया. जिस कारण उन्हें जेल जाना पड़ा.
मिलन, न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘परिवार की स्थिति ठीक नहीं थी. अमीर बनने की चाहत थी. गूगल और यू-ट्यूब से नकली नोट बनाना सीखा. यह 2014 की बात है. 100-100 के 41 सौ नोट छापे थे. उनमें से चार ही चलाए थे. तब तक पुलिस ने पकड़ लिया. 21 जून 2014 को मैं जेल गया. नोटबंदी के बाद 16 दिसंबर 2016 को सेशन कोर्ट ने 10 साल की सजा सुनाई. मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. जिन मां-बाप को बदहाली से मैं निकलना चाहता था उन्हें और फंसा दिया था.’’
जब तक मैं अंडर ट्रायल कैदी था तब तक मुझे जेल में कोई काम नहीं मिला. सजा होने के बाद मुझे काम देने लगे. सजा होने के बाद मुझे जेल के कानून विभाग में काम करने का मौका मिला. वहां मैं थोड़ा बहुत जाना समझा. तब घर में पैसों की जरूरत और बढ़ गई थी. उसी समय पता चला कि जेल में गुजराती किताबों को रिकॉर्ड का काम भी मिलता है. यह दिव्यांग बच्चों के लिए होता था.
जेल में मेरे एक साथी ने कहा कि तुम्हारी आवाज़ अच्छी है. तुम चले जाओ. उसमें हरेक घंटे के 60 रुपए मिल रहे हैं. यहीं पहली बार मैं महात्मा गांधी से मिला. आरके प्रभु और यू आर राव की किताब ‘द माइंड ऑफ़ महात्मा गांधी’ का गुजराती अनुवाद ‘महात्मा गांधीना विचारो’ को मुझे रिकॉर्ड करना था.
मिलन, जो अब तक महात्मा गांधी को गाली देते थे वो इस किताब की रिकॉर्डिंग करते हुए बदल रहे थे. मिलन कहते हैं, ‘‘रिकॉर्डिंग तो मैं पैसों के लिए कर रहा था. महात्मा गांधी मुझे पसंद नहीं थे, ये मैं आपको पहले भी बता चुका हूं. लेकिन इस किताब में कुछ ऐसा था जो मुझे बदल रहा था. इसे पढ़ते हुए मैंने जाना कि सच बोलना कितना जरूरी है. किसी भी मामले पर आपका पक्ष होना चाहिए. आप डिप्लोमैटिक नहीं रह सकते हैं. सच को चुनना होगा.’’
‘‘जब मैं यह सब रिकॉर्ड कर रहा था तब लगभग साढ़े चार साल जेल की सजा काट चुका था. गांधी ने मुझे बदल दिया था. ऐसे में मैंने सच बोलने का फैसला लिया. अब तक मैं अपनी लड़ाई खुद को बेगुनाह बताते हुए लड़ रहा था, लेकिन इस बार मैंने सच बोला. मैंने हाईकोर्ट में सजा कम कराने के लिए एफिडेविट दायर किया. जिसमें मैंने बताया कि फेंक करेंसी, मैंने होशो हवास में बनाई. मैं उससे पैसे कमाकर अमीर बनना चाहता था. मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है. ऐसे में मेरी सजा कम की जाए. एक बात मैं जानता था कि हाईकोर्ट मेरी सजा कम नहीं करेगा तो बढ़ाएगा भी नहीं.’’ मिलन बताते हैं.
मिलन का मामला हाईकोर्ट के जज पीपी भट्ट के पास गया. मिलन को जिसकी उम्मीद नहीं थी वहीं हुआ. भट्ट ने उनकी सजा पांच साल कम कर दी. वो बताते हैं, ‘‘मैं सच बोला था. मेरे वकील ने काफी समझाया था, लेकिन मुझे सच बोलना था. जब मेरी सजा कम हुई तो मुझे सच की ताकत का अंदाजा लगा. मैं कुछ ही महीने बाद जेल से बाहर आ गया.’’
नकली नोट छापने से पत्रकार बनने का सफर?
गांधी ने मिलन को पूरी तरह बदल दिया था. कुछ महीने बाद जेल से वो रिहा होने वाले थे. उसी समय गुजरात के जाने-माने पत्रकार प्रशांत दयाल जेल में पत्रकारिता की वर्कशॉप लेने आए.
मिलन कहते हैं, ‘‘मैं पत्रकारिता के बारे में ज्यादा जानता नहीं था. इसे मैं करियर के रूप में देख नहीं रहा था तो वर्कशॉप में जाना नहीं चाहता था. जेल में मेरे एक साथी भंवर लाल. वे 13-14 साल से जेल में बंद थे. उन्होंने मुझे इसमें शामिल होने के लिए कहा तो मैंने मना कर दिया. हालांकि जब वर्कशॉप के लिए नामों की घोषणा हुई तो उसमें मेरा भी नाम था. दरअसल भंवर लाल ने चुपके से लिखवा दिया था. तब उनपर गुस्सा आया था पर मुझे कहा मालूम था आगे चलकर यहीं मेरा करियर बनेगा.’’
जाने माने क्राइम रिपोर्टर प्रशांत दयाल, मिलन को लेकर कहते हैं, ‘‘मैं नवजीवन ट्रस्ट (जिसका निर्माण महात्मा गांधी ने साल 1919 में किया था), की तरफ से जेल में कैदियों को पढ़ाने जाता था. वहां मेरी मुलाकात मिलन से हुई थी. हम जेल में किसी भी कैदी से उसका अतीत या क्राइम नहीं पूछते क्योंकि हमें उन्हें वर्तमान और भविष्य पर ध्यान देना होता है. मिलन जानने-समझने को लेकर उत्सुक युवक लगा. उसने अपनी महात्मा गांधी से जुड़ाव की कहानी बताई थी.’’
जेल से लौटने के बाद मिलन के लिए सब कुछ आसान नहीं था. उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी. तब वे प्रशांत दयाल के पास आए. प्रशांत दयाल ने नवजीवन ट्रस्ट में बात कर ‘प्रूफर रीडर’ की नौकरी पर रखवा दिया. कुछ समय बाद दयाल ने जब ‘नवजीवन न्यूज़’ शुरू किया तो इससे भी मिलन जुड़ गए. यहां भी वे प्रूफ रीडिंग के साथ-साथ ख़बरें भी लिखते हैं.
मिलन बताते हैं, ‘‘गुजराती भाषा की मेरी समझ पहले से अच्छी है. उस वर्कशॉप के बाद मेरी रूचि मीडिया में बढ़ गई. मैं फ्रूफ रीडर का काम करता हूं. रिपोर्टिंग नहीं कर पाता हूं. कभी-कभी पॉजिटिव रिपोर्ट लिखता हूं.’’
जिस जेल में मिलन ने पांच साल तक सजा काटी आज उसी में वे सप्ताह में तीन दिन प्रूफ रीडिंग पढ़ाने जाते हैं. मिलन का मानना है कि यह सब मुमकिन नहीं हो पता अगर गांधी के विचारों से मेरा परिचय नहीं हुआ होता.
मिलन के फोन का कॉलर ट्यून हैं, तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.’
Also Read: आपके मीडिया का मालिक कौन: एनडीटीवी की कहानी
Also Read
-
Bollywood after #MeToo: What changed – and what didn’t
-
Smog is unavoidable. Unsafe food isn’t. That’s why there’s little outrage over food adulteration
-
TV Newsance 326: A very curly tale, or how taxpayers’ money was used for govt PR
-
Let Me Explain: Kerala actor assault – Why proving conspiracy is hard in Indian law
-
South Central 55: Census, Delimitation & MGNREGA Pushback