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दिल्ली के ई-रिक्शा वास्तव में पर्यावरण के कितने अनुकूल हैं?
अगस्त 2010 में 19वें राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में दिल्ली को सुसज्जित करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने, उस समय फैशनेबल ई-रिक्शा के लाल और हरे रंगों से शहर के रास्तों को सजाया, जिसे उन्होंने दिल्ली को “प्रदूषण मुक्त जोन” बनाने की दिशा में एक "आवश्यक प्रयास" बताया. चार साल बाद मुख्यमंत्री के तौर पर अरविंद केजरीवाल ने, ई-रिक्शा बेड़े का विस्तार कर दिल्ली की हवा को साफ करने की कसम खाई. 2010 में केवल 25 के मुकाबले अनुमान है कि अब लाखों ई-रिक्शा शहर को सेवा प्रदान करते हैं.
दिल्ली आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में दो संख्याएं, 10,33,000 और 99,552 दी गई हैं. साथ ही केजरीवाल ई-रिक्शा को दिल्ली की प्रदूषित हवा से निपटने के एक प्रमुख उपाय के रूप में प्रचारित करते हैं, बता दें कि दिल्ली में प्रदूषण का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत वाहनों से निकलने वाला धुआं है. उनका प्रशासन प्रदूषण से निपटने के लिए ई-रिक्शा नेटवर्क की खरीद को सब्सिडी देकर और ई-रिक्शा को प्रदूषण से निपटने के नौ प्रमुख कदमों में से एक बता कर, इसे इलेक्ट्रिक वाहन नीति के रूप में पेश करने पर जोर दे रहा है.
ई-रिक्शा निश्चित रूप से जीवाश्म ईंधन पर चलने वाले वाहनों की तरह प्रदूषकों को नहीं उगलता, लेकिन क्या यह वास्तव में उतना ही पर्यावरण के अनुकूल है, जितना कि इसे बनाया गया है?
ई-रिक्शा का अंदरूनी ढांचा
दिल्ली के अधिकांश ई-रिक्शा चार रिचार्जेबल लेड-एसिड बैटरी पर चलते हैं, जिनमें से प्रत्येक में 20 किलो लेड और 10 किलो सल्फ्यूरिक एसिड होता है. ई-रिक्शा चालकों के अनुसार, बैटरी छह-आठ महीने चलती है, जिसके बाद उन्हें स्क्रैप डीलरों को बेच दिया जाता है जो उन्हें रीसाइक्लिंग कारखानों में भेज देते हैं. सीसे (लेड) की गुणवत्ता खराब किए बिना उसे लगभग अनिश्चित काल तक रिसाइकिल किया जा सकता है, इसलिए रिसाइकिल की गई बैटरी उतनी ही अच्छी होती है, जितनी कि एक नई बैटरी. यही कारण है कि इंटरनेशनल लेड एसोसिएशन के अनुसार, सीसे का उत्पादन अब खनन की तुलना में रिसाइकिल करके ज्यादा किया जाता है.
डब्ल्यूएचओ द्वारा 2017 में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया कि यदि लेड को बिल्कुल सही तरीके से रिसाइकिल नहीं किया जाता है, तो लेड-एसिड बैटरी इस प्रक्रिया के हर चरण में गंभीर प्रदूषण का स्रोत बन सकती है.
रीसाइकिल करने की प्रक्रिया परिवहन और भंडारण से शुरू होती है. बैटरी को रिसाइकिल करने के लिए भेजे जाने से पहले सल्फ्यूरिक एसिड के घोल को बाहर निकाल दिया जाता है, लेकिन कभी-कभी घोल को कारखानों के पास खुले मैदान में लापरवाही से फेंक दिया जाता है या क्षतिग्रस्त बैटरी से बाहर निकल दिया जाता है. ये घोल अम्लीय होता है और इसमें सीसा मौजूद होता है, इसे लापरवाही से फेंकने से मिट्टी और जल निकाय दूषित हो जाते हैं.
इसके बाद बैटरी को खोलकर उसके सीसे और प्लास्टिक से बने घटकों को अलग कर दिया जाता है. यदि ऐसा हाथ से किया जाए तो यह प्रक्रिया सीसे के कणों और लेड ऑक्साइड को छोड़ती है, हवा, मिट्टी और पानी को दूषित करती है और श्रमिकों को संभावित रूप से नुकसान पहुंचाती है.
अगला चरण भट्टी में लेड को पिघलाना और उसका शोधन करना है. यदि भट्टी खुली है या उसमें अपर्याप्त वेंटिलेशन है, तो इससे भारी मात्रा में लेड का धुआं उत्पन्न होता है, जो इंसानों के लिए खतरनाक है और मिट्टी को भी दूषित करता है. सीसा रीसाइक्लिंग उद्योग के श्रमिकों में सांस लेने, ग्रहण करने और त्वचा के संपर्क से लेड का जहरीला संक्रमण काफी आम है. खास तौर पर अनौपचारिक पुनर्चक्रण इकाइयां निर्धारित सुरक्षा प्रक्रियाओं और प्रोटोकॉल का पालन नहीं करती हैं. 2016 में एनजीओ ग्रीन क्रॉस स्विट्जरलैंड और प्योर अर्थ ने दुनिया के गरीब देशों में रासायनिक प्रदूषण के मुख्य स्रोत के रूप में लीड-एसिड बैटरी की अनौपचारिक रीसाइक्लिंग की पहचान की, जो हर साल लाखों मौतों के लिए जिम्मेदार है.
भारत ने 2001 में बैटरी प्रबंधन और हैंडलिंग नियम लाकर लेड-एसिड बैटरियों की रीसाइक्लिंग के खतरनाक प्रभावों से निपटने की चेष्टा की. 2010 में संशोधित नियमों में लेड-एसिड बैटरियों के सभी निर्माताओं और आयातकों को खत्म हो चुकी बैटरियों को इकट्ठा करने के लिए जगह बनाने, उन्हें पंजीकृत रीसाइकल करने वालों को भेजने की सुविधा स्थापित करने और केवल पंजीकृत रिसाइकलरों से रीसाइकल हो चुका लेड खरीदना जरूरी है. उपभोक्ताओं के लिए इस्तेमाल की गई बैटरियों को इन संग्रह केंद्रों पर वापस करना अनिवार्य है.
इस साल अगस्त में पर्यावरण मंत्रालय, 2001 के नियमों को बदलने वाले बैटरी वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स 2022 लाया. पर्यावरण एनजीओ टॉक्सिक्स लिंक की मुख्य कार्यक्रम समन्वयक प्रीति महेश ने कहा, “एक बड़ा अंतर है कि नया कानून हर तरह की बैटरी को कवर करता है, लिथियम-आयन, बटन-सेल और आपकी घरेलू बैटरी, जबकि पहले का कानून केवल लेड-एसिड बैटरियों के लिए ही था. यह एक बड़ा बदलाव है लेकिन जहां तक लेड-एसिड बैटरी की हैंडलिंग और रीसाइक्लिंग का संबंध है, इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं है. लेड-एसिड बैटरियों की रीसाइक्लिंग अभी भी उत्पादक की बढ़ी जिम्मेदारी के सिद्धांत पर आधारित है."
दिल्ली में, केजरीवाल सरकार आक्रामक रूप से अपनी इलेक्ट्रिक वाहन नीति 2022 को आगे बढ़ा रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करके दिल्ली की वायु गुणवत्ता को साफ करना है.
इस साल की शुरुआत में नीति पेश किए जाने के बाद से इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री बढ़ी है. इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि शहर में पिछले महीने की तुलना में अक्टूबर में इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में 69 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जिसमें ई-रिक्शा का 34 प्रतिशत हिस्सा है. लेकिन अगर ई-रिक्शा की बैटरियों को सही तरीके से रिसाइकल नहीं किया जाता है, तो नीति बनाने का उद्देश्य कमजोर होता है. क्योंकि ई-रिक्शा अधिक बेकार बैटरी उत्पन्न करता है. इसमें चार बैटरी लगती हैं, जो छह से आठ महीने चलती हैं, जबकि गैर-इलेक्ट्रिक वाहन आमतौर पर दो साल या उससे अधिक की उम्र वाली एक बैटरी पर चलते हैं.
यह समझने के लिए कि दिल्ली पुरानी ई-रिक्शा बैटरियों से कैसे निपटती है, हमने उपभोक्ताओं से लेकर रीसाइक्लिंग इकाइयों तक की उनकी यात्रा पर नजर डाली.
जिन ई-रिक्शा चालकों से हमने बात की, वे नहीं जानते थे कि कानूनी तौर पर उन्हें अपनी इस्तेमाल की गई बैटरियों को एक पंजीकृत डीलर को बेचना होता है. पांच साल से ई-रिक्शा चलाने वाले सुनील कुमार ने कहा, “हम अपनी इस्तेमाल की हुई बैटरियां उसे बेच देते हैं जो हमें ज्यादा पैसा देता है.”
ई-रिक्शा बैटरी का अधिकांश कचरा मध्य दिल्ली में बैटरी व्यवसाय का केंद्र गोखले बाजार में पहुंचता है, जो पंजीकृत विक्रेताओं और स्क्रैप डीलरों दोनों से भरा पड़ा है.
सूर्या बैटरी के एक पंजीकृत डीलर मनप्रीत सिंह, ई-रिक्शा के लिए ज्यादातर लेड-एसिड बैटरी बेचते हैं. वे बताते हैं, "क्योंकि इसमें बहुत गुंजाइश है. दिल्ली में ई-रिक्शा का बाजार फलफूल रहा है.”
सिंह ने कहा कि वे एक महीने में सैकड़ों बैटरियां बेचते हैं, लेकिन इस्तेमाल की गई बैटरियों से निपटना पसंद नहीं करते. उन्होंने कहा, "हमारे पास इस्तेमाल की गई बैटरियों को एक्साइड या एमरॉन को वापस बेचने और कुछ मुनाफा कमाने का विकल्प है, लेकिन हम ऐसा नहीं करते. सबसे पहले, हमारे पास उन्हें स्टोर करने के लिए ज्यादा जगह नहीं है. दूसरे, ई-रिक्शा चालक हमें नहीं बेचते. हम उन्हें इस्तेमाल की गई बैटरी के लिए ज्यादा से ज्यादा 2,500 रुपए देंगे, जबकि एक स्क्रैप डीलर उन्हें 2,750 रुपए देगा.”
सूर्या बैटरी से कुछ दूर बलदेव नाथ की स्क्रैप डीलरशिप है. वे ई-रिक्शा चालकों से एक दिन में 20-40 बैटरियां खरीदते हैं और उन्हें दिल्ली व उत्तर प्रदेश में अनौपचारिक रीसाइक्लिंग इकाइयों को बेचते हैं. गोखले मार्केट के अधिकांश स्क्रैप डीलरों ने हमें बातचीत में बताया कि वे भी ऐसा ही करते हैं.
नाथ ने कहा, “बैटरी निर्माता पुरानी बैटरी खरीदने के लिए हमारे पास नहीं आते हैं. वे क्यों आएंगे?"
टॉक्सिक्स लिंक के महेश ने बताया कि यहां लेड-एसिड बैटरी की रीसाइक्लिंग प्रक्रिया में रिसाव है.
वे बताते हैं, "दिल्ली में, डीलरों की दो समस्याएं जगह और पैसा हैं. डीलरों से पुरानी बैटरी लेने के लिए कंपनी के लोग महीने में एक बार आएंगे और उन्हें उनके अगले ऑर्डर पर कुछ क्रेडिट पॉइंट देंगे. लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र के लोग एक बैटरी लेने के लिए भी नकद भुगतान करते हैं. चूंकि बैटरियां खतरनाक होती हैं और जगह की कमी होती है, इसलिए डीलर उन्हें जमा करते नहीं रहना चाहते. यही कारण है कि अधिकांश बैटरियां अनौपचारिक रीसाइक्लिंग इकाइयों में पहुंच जाती हैं. कंपनियों के लिए यह समस्या हल करना आसान है, उन्हें इस्तेमाल की गई बैटरियों को वापस लेने के लिए केवल अपने डीलर के साथ मजबूती से गठजोड़ करना होगा. लेकिन भारत में निगम तब तक कार्रवाई नहीं करते जब तक कि सरकार उनके सिर पर न बैठी हो. अब तक, उन कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है जो जिम्मेदारी से बैटरी वापस नहीं ले रही हैं.”
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के लिए बैटरी प्रबंधन और हैंडलिंग नियम 2001 द्वारा उपयोग की गई बैटरियों पर नजर रखना और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को अवधि रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य है. इन रिपोर्टों के विश्लेषण से पता चलता है कि दिल्ली ने पिछले 11 वर्षों में केवल दो वर्षों - 2017-18 और 2020-21 - को अभिलेखित रखा है, और वे भी पुख्ता नहीं हैं. 2017-18 में राज्य ने बैटरी असेंबलर और रिकंडिशनर से डेटा एकत्र नहीं किया, जबकि 2020-21 के रिकॉर्ड में निर्माताओं का डेटा गायब है.
इसलिए, कोई निष्कर्ष निकालने के लिए यह डेटा बहुत अपर्याप्त और अनियमित है.
गोखले मार्केट से बैटरी का अधिकांश कचरा अनौपचारिक रीसाइक्लिंग इकाइयों में जाता है, जैसे हरियाणा के खैरपुर गांव में. दिल्ली से बमुश्किल दो किमी की दूरी पर स्थित इस गांव में लेड-एसिड बैटरी की छह रिसाइकिलिंग फैक्ट्रियां हैं. हम जिस जगह पर गए, उसे 12 साल पहले स्थापित किया गया था. सीसे की धूल की एक मोटी परत से ढका और सल्फ्यूरिक एसिड की बदबू हर तरफ है. कारखाने में छह भट्टियां हैं जो प्रतिदिन लगभग 16 घंटे चलती हैं और लगभग 3,000 किलोग्राम लेड को रीसाइकल करती हैं. किसी भी भट्टी में प्रदूषण नियंत्रण यंत्र नहीं है.
हमारे आने के समय फैक्ट्री में आठ कर्मचारी थे, जिनमें से किसी ने भी प्लास्टिक के जूतों के हल्के-फुल्के कवर के अलावा कोई सुरक्षा गियर नहीं पहना था. कर्मचारी बैटरी को नंगे हाथों से अलग करते हैं और एसिड से भरे घटकों को खुले में फेंक देते हैं. इसमें कोई हैरानी नहीं कि कारखानों के आसपास की मिट्टी में सीसा और अम्ल मिलता है.
फैक्ट्री के मालिक का कहना था, “इस कारखाने को लगाने में हमें एक करोड़ रुपए का खर्च आया. अगर हमने सभी नियमों का पालन किया होता और सभी आवश्यक तकनीक को स्थापित किया होता, तो हमें 20-30 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते. बहुत महंगा है.”
क्या उनके कारखाने पर कभी नियमों का उल्लंघन करने के लिए कार्रवाई की गई है? उन्होंने जवाब दिया, "यह कारखाना अवैध नहीं है. हमारे पास प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, जिला योजना, भूमि के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र और जीएसटी लाइसेंस से सभी मंजूरियां हैं."
दिल्ली, झारखंड, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में लेड-एसिड बैटरी रीसाइक्लिंग उद्योग का सर्वेक्षण करने और औपचारिक लाइसेंस होने का दावा करने वाले कई कारखानों को ढूंढने वाले टॉक्सिक्स लिंक के महेश ने बताया कि इन कारखानों ने "ऐसे ऑपरेशन किए, जो अनौपचारिक क्षेत्र से बहुत अलग नहीं थे."
वे आगे कहते हैं, "नियामक ढांचा स्पष्ट रूप से कहता है कि राज्य प्रदूषण बोर्ड को इन रीसाइक्लिंग इकाइयों की निगरानी करनी है, और यह सुनिश्चित करना है कि वे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं. लेकिन स्पष्ट रूप से उनके द्वारा कोई कड़ी निगरानी नहीं की जा रही है. यदि अनौपचारिक और औपचारिक क्षेत्रों के बीच कोई अंतर नहीं है, तो उचित रीसाइक्लिंग को लेकर हो रही पूरी बहस व्यर्थ है.”
सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि दिल्ली का अधिकांश बैटरी कचरा शहर के बाहरी इलाके में स्थित अनौपचारिक रीसाइक्लिंग कारखानों में पहुंच जाता है. महेश ने तर्क दिया, "यदि आप एक ईवी नीति लागू कर रहे हैं, तो एक समझ होनी चाहिए कि इसका मतलब बैटरी की अधिक बर्बादी होगी. और कचरे से निपटने के लिए उपाय पहले ही किए जाने चाहिए थे."
इस समस्या के लिए दिल्ली सरकार का नवीनतम समाधान लेड-एसिड बैटरियों पर प्रतिबंध लगाना है. 1 सितंबर के एक आदेश में, दिल्ली परिवहन प्राधिकरण ने ई-रिक्शा और ई-गाड़ियों के लिए लिथियम-आयन बैटरी लगाना अनिवार्य किया, और घोषणा की कि लेड-एसिड बैटरी वाले ई-रिक्शा अब पंजीकृत नहीं होंगे. एक ई-रिक्शा चालक ने इस आदेश को चुनौती दी थी लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया. लाइव लॉ के अनुसार, अदालत ने कहा कि पारंपरिक बैटरियां खतरनाक थीं और नई तकनीक को अपनाने का समय आ गया है.
महेश कहते हैं, "लेड-एसिड बैटरी के साथ समस्या यह है कि उन्हें कैसे एकत्र और रीसाइकल किया जाता है. लिथियम-आयन बैटरी पर भी यही बात लागू होती है. तो अंतर क्या है?"
फोटो: सुमेधा मित्तल. यह रिपोर्ट पहले न्यूज़लॉन्ड्री पर अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी.
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