Report
जैव विविधता के महत्व और उसे हो रही हानि की अनदेखी
पिछले महीने मिस्र के शर्म-अल-शेख में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप) को लेकर मीडिया में जैसी (थोड़ी बहुत ही सही) हलचल थी वैसी अभी कनाडा के मॉन्ट्रियल में चल रहे जैव विवधता संरक्षण सम्मेलन (सीबीडी) को लेकर नहीं दिख रही. हालांकि जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता दोनों ही विषयों पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कंन्वेन्शन 1992 में हुये रियो अर्थ समिट में एक साथ स्थापित किए गए और दुनिया के सभी देश दोनों ही सम्मेलनों के सदस्य हैं लेकिन जितनी बात जलवायु परिवर्तन पर सालाना सम्मेलन को लेकर होती है उसकी आधी भी जैव विविधता पर होने वाले द्विवार्षिक सम्मेलन पर नहीं होती.
क्या है जैव विविधता या बायोडाइवर्सिटी
जैव विविधता धरती पर जीवन के अलग-अलग रूपों और नैसर्गिक पैटर्न को दर्शाती है. जो पिछले 450 साल में धीरे धीरे तैयार हुई है. जीन और बैक्टीरिया से जंगल और कोरल रीफ जैसे सारे पास्थितिक तंत्र यानी इकोसिस्टम इसका ही रूप हैं. हमारे जीवन का चक्र या जाला इस पर टिका है. चाहे भोजन हो या पानी, साफ हवा हो या आर्थिक विकास सब बायोडाइवर्सिटी है जुड़े हैं.
एक दूसरे से जुड़े हैं ग्लोबल वॉर्मिंग और जैव विविधता
अक्सर ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के रूप में उसके प्रभाव को लेकर तो काफी लिखा और बोला जाता है, जो सही भी है, लेकिन जैव विविधता के महत्व और उसे हो रही हानि की अनदेखी कर दी जाती है. सच यह है कि हमारे जीवन का अस्तित्व जैव विविधता के कारण ही कायम है और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने के लिए जैव विविधता को संरक्षित करना बहुत ज़रूरी है.
वैसे जैव विविधता के विनाश के लिए इंसान द्वारा कृषि और अन्य कार्यों के लिए किया गया भू-प्रयोग ज़िम्मेदार है. वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि धरती के जिस हिस्से में बर्फ नहीं है, उसके 70% क्षेत्रफल को मानव अपने प्रयोग द्वारा बदल चुका है, और इससे भारी नुकसान हुआ है. कई जन्तु और वनस्पतियां अपना बसेरा खत्म हो जाने के कारण धरती से विलुप्त हो गए या इस खतरे का सामना कर रहे हैं.
दूसरी ओर ग्लोबल वॉर्मिंग और इससे हो रहा जलवायु परिवर्तन जैव विविधता के लिए अतिरिक्त खतरा है. आईपीसीसी के वैज्ञानिकों का कहना है कि जहां धरती के तापमान में 2 डिग्री की वृद्धि से 8 प्रतिशत स्तनधारी अपना हैबिटाट खो देंगे वहीं 3 डिग्री की बढ़ोतरी से पृथ्वी के 41 प्रतिशत स्तनधारी अपना आधा बसेरा खो देंगे. जहां 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि से 70 प्रतिशत से अधिक कोरल रीफ खत्म होंगे वहीं 2 डिग्री की बढ़ोत्तरी इन्हें पूरी तरह नष्ट कर देगी.
जलवायु परिवर्तन को सीमित करने के लिए जैव विविधता ज़रूरी
ग्लोबल वॉ़र्मिंग के पीछे मूल वजह इंसानी हरकतों से वातावरण में बढ़ रही ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा है. जहां कुल उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों में आधी वातावरण में जमा हो जाती हैं वहीं लगभग आधा हिस्सा धरती और समंदर द्वारा सोख लिया जाता है. अगर धरती पर स्वस्थ इकोसिस्टम मौजूद रहेंगे तो वह नैसर्गिक कार्बन सिंक की तरह काम करेंगे और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सीमित करने में मदद मिलेगी. मिसाल के तौर पर दलदली इलाकों (पीटलैंड) को बेकार की जगह समझ कर पाट दिया जाता है जबकि वह कार्बन सोखने में अति महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं.
ऐसे वेटलैंड या पीटलैंड धरती के केवल 3 प्रतिशत हिस्से पर हैं लेकिन वह सभी जंगलों द्वारा सोखे जाने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले दोगुना कार्बन को सोखते हैं. इन्हें बचाने का मतलब है इन्हें गीला रखना ताकि यहां पर कार्बन जमा होता रहे.
जैव विविधता पर सम्मेलन (सीबीडी) की कार्यकारी सचिव एलिज़ाबेथ रेमा का कहना है, “जलवायु परिवर्तन जैव विविधता को हो रही हानि की मूल वजह है और क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिये जैव विविधता संरक्षण समाधान का हिस्सा है. इसलिये दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं और उन्हें अलग नहीं किया जा सकता.”
भारत पर विशेष संकट और वित्त प्रवाह की कमी
भारत जैसे देशों के लिए, जिन्हें जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक चोट झेलनी पड़ रही है, जैव विविधता पर संकट सबसे अधिक चिन्ता का विषय है. यहां ग्लेशियर, पहाड़, पठार और समुद्र तटों के साथ कई वनस्पतियों और जन्तुओं की अनेक प्रजातियां हैं और ग्लोबल वॉर्मिंग की चोट जीडीपी पर बड़ा असर डाल रही है.
बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन सैटलमेंट के डीन डॉ जगदीश कृष्णास्वामी कहते हैं, “जैव विविधता का क्षरण होने से इकोसिस्टम के पास क्लाइमेट चेंज से लड़ने की जो क्षमता होती है वह कमज़ोर हो रही है. पुरानी वनस्पतियों और मौलिक जंगलों को जो कि दोनों ही कार्बन का भंडार होते हैं — नष्ट या रूपांतरित करना विशेष रूप से चिन्ता का विषय है क्योंकि यह क्षतिपूर्ति कभी नहीं की जा सकती.”
मिस्र में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) का मुद्दा बड़ा छाया रहा और लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना को एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है. हालांकि बायोडाइवर्सिटी संरक्षण के लिये तमाम इकोसिस्टम बचाने होंगे और इसके लिए निवेश की भारी कमी है. संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि जलवायु संकट को साधने के लिए साल 2025 तक जिन प्रकृति-आधारित कार्यक्रमों को लागू किया जाना है उनमें वित्त प्रवाह दोगुना करना होगा.
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम (यूएनईपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए साल 2025 तक इस तरह के कुल सालाना निवेश 384 बिलियन डॉलर हो जाने चाहिए. यह अभी हो रहे निवेश से लगभग दोगुना है.
साभार: कार्बन कॉपी
Also Read
-
Mandate 2024, Ep 2: BJP’s ‘parivaarvaad’ paradox, and the dynasties holding its fort
-
The Cooking of Books: Ram Guha’s love letter to the peculiarity of editors
-
TV Newsance 250: Fact-checking Modi’s speech, Godi media’s Modi bhakti at Surya Tilak ceremony
-
What’s Your Ism? Ep 8 feat. Sumeet Mhasker on caste, reservation, Hindutva
-
‘1 lakh suicides; both state, central govts neglect farmers’: TN farmers protest in Delhi