Obituary

मुलायम सिंह यादव: पत्रकारों की नजर में “नेता जी”

लंबे समय से बीमार चल रहे समाजवादी पार्टी ( सपा) के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का सोमवार सुबह निधन हो गया. 82 वर्षीय यादव का इलाज गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में चल रहा था. सपा ने ट्वीट कर बताया कि 11 अक्टूबर को दोपहर तीन बजे सैफई में नेताजी का अंतिम संस्कार किया जाएगा.

‘नेताजी’ और ‘धरती पुत्र’ के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. आठ बार विधायक और सात बार लोकसभा सांसद का चुनाव जीतने वाले यादव केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री भी रहे.

बीबीसी हिंदी के मुताबिक मुलायम सिंह की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना था प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक नेता नाथू सिंह ने, जिन्होंने 1967 के चुनाव में जसवंतनगर विधानसभा सीट का उन्हें टिकट दिलवाया था. तब यादव की उम्र सिर्फ़ 28 साल थी जब वह पहली बार विधायक बनें. वहीं 38 साल की उम्र में साल 1977 में वे रामनरेश यादव के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार में सहकारिता मंत्री बने.

उत्तर प्रदेश सरकार ने तीन दिन के राजकीय शोक की घोषणा की है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट कर लिखा, ‘‘उनके निधन से समाजवाद के एक प्रमुख स्तंभ एवं एक संघर्षशील युग का अंत हुआ है. उत्तर प्रदेश सरकार तीन दिन शोक की घोषणा करती है. उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ होगा.’’

यादव के निधन के बाद राजीनितिक गलियारें और उनके प्रसंशकों में शोक व्याप्त हैं. उनके इलाज के दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत तमाम दलों के नेता उनकी सेहत जानने के लिए अस्पताल पहुंच रहे थे. उनके निधन पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री समेत तमाम लोगों ने शोक व्यक्त किया.

सक्रिय राजनीति में रहते कभी दो दिन लखनऊ में नहीं रुके

पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव ने शिक्षक के रूप में अपना करियर शुरू किया. बाद में वो राजनीति में आ गए. मुलायम सिंह यादव के बारे में कहा जाता है कि वे अपने कार्यकर्ताओं को नाम से जानते थे. कोई कार्यकर्ता परेशानी में होता था तो बिना समय गवाए वे पहुंच जाते थे.

वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र नाथ भट्ट एक घटना को याद करते हैं, ‘‘साल 1988 में दिसंबर की एक रात थी. मैं करीब नौ बजे उनसे मिलने गया था. हम उनके आवास पर बैठे थे तभी उनके सहयोगी जगजीवन ने बताया कि देवरिया के रामपुर चीनी मिल में पुलिस फायरिंग हो गई है. अपना एक कार्यकर्ता मर गया है. उसी दिन मुलायम सिंह यादव महिंद्रा जीप से इटावा से आये थे. उन्होंने तुरंत ही सबकुछ छोड़ दिया और देवरिया के लिए निकल गए. देवरिया लखनऊ से 300 किलोमीटर दूर है. जगजीवन खाने के लिए कहते रह गए लेकिन उन्होंने सुना तक नहीं. इसके बाद बड़ी मुश्किल से जगजीवन ने गाड़ी में खाना और पानी रखवा दिया.’’

भट्ट आगे कहते हैं, ‘‘मुलायम सिंह यादव का दरवाजा कायर्कताओं के लिए हमेशा खुला रहता था. देर रात को इटावा या प्रदेश के किसी हिस्से से कोई कार्यकर्ता अगर मुख्यमंत्री आवास आता था तो गेट खुल जाता था. वो आदमी अंदर जाता था. मुलायम जी उससे मिलते थे. परेशानी की वजह पूछते थे और यह भी जानने की कोशिश करते थे कि रात को वो कहा रुकेगा. उसके रहने, खाने और घर जाने का इंतज़ाम करते थे. छोटे से छोटा कार्यकर्ता उनसे मिल सकता था. वे जब तक सक्रिय राजनीति में रहे दो रात कभी लखनऊ में नहीं रहे. हमेशा प्रदेश का दौरा किया करते.’’

भट्ट एक घटना का जिक्र करते हैं कि एक बार एक व्यक्ति उनके पास रोते हुए आया और अपनी परेशानी कहने लगा. मुलायम सिंह ने अपने भाई शिवपाल से कहा कि वो मेरा बैग लेकर आओ. शिवपाल बैग लेकर आए तो मुलायम सिंह ने बैग उस आदमी को पकड़ा दिया. यह जाने बगैर कि उसमें कितने पैसे हैं. बाद में शिवपाल यादव ने बताया कि उसमें पांच हजार रुपए थे.

भट्ट बताते हैं कि आगे चलकर जब राजनीति में पैसे की ज़रूरत बढ़ती गई तो अमर सिंह मुलायम सिंह यादव के करीब आ गए. इसके बाद बेनी प्रसाद वर्मा समेत दूसरे नेता उनसे नाराज़ भी हुए. हालांकि किसानों को लेकर यादव हमेशा संवेदनशील रहे. साल 2004 में अमर सिंह ने बताया कि चीनी मिल के मालिकों से बात हुई है. वो नहीं चाहते कि गन्ने का समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाया जाए. इसपर यादव ने कहा, अगर गन्ने का रेट नहीं बढ़ा तो किसान मर जाएगा. उन्होंने गन्ने की कीमत बढ़ाई.

‘कभी हारते नहीं देखा’

वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी मुलायम सिंह यादव को साल 1985 से जानते हैं. यादव आखिरी मुख्यमंत्री थे जिनके ऑफिस में पत्रकार कई बार बिना अपॉइंटमेंट लिए भी जा सकते थे.

यादव के निधन पर तिवारी कहते हैं, ‘‘आज भारतीय राजनीति से एक ऐसा किरदार चला गया जिसने इस देश की राजनीति में क्षेत्रीय क्षत्रपों की अहमियत का अहसास कराया. वे एक बड़े दल से निकले और क्षेत्रीय दल बनाया और यूपी जैसे राज्य में सरकार बनाई. उन्होंने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से ख़त्म कर दिया. यूपी में कांग्रेस जब से ख़त्म हुई है तब से वो दोनों पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई.’’

तिवारी भी कार्यकर्ताओं के प्रति उनके लगाव का जिक्र करते हैं. वे बताते हैं, ‘‘मैंने साल 1985 में पहली बार उनका इंटरव्यू किया था. तब वे विपक्ष के नेता थे. एकदम अनौपचारिक व्यक्ति. पद का कभी कोई गुरुर नहीं दिखा. खास बात थी कि वे इंसान की सही पहचान करते थे. उनकी यही खासियत उन्हें एक बड़ा नेता बनाने में काम आई. वे 50 मीटर से अपने कार्यकर्ता को पहचान लेते थे. उसे नाम से बुलाते थे. उनकी इस खासियत ने लोगों में अपनापन पैदा किया. जिससे कायर्कता उनके प्रति कमिटेट हो गए.’’

मुलायम सिंह यादव की एक खास पहचान कभी हार नहीं मानने की रही है. तिवारी बताते हैं, ‘‘बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद यह माना जा रहा था कि भाजपा को प्रदेश की सत्ता में आने से कोई नहीं रोक पाएगा. चुनाव के नतीजे आए तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन मुलायम सिंह ने बसपा के साथ मिलकर सरकार बना ली. इसके बाद ही गेस्ट हाउस कांड हुआ. जिसके बाद बसपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. भाजपा ने बदला लिया और बसपा को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी.’’

तिवारी आगे कहते हैं, ‘‘एक तरफ बसपा का शपथग्रहण चल रहा था, दूसरी तरफ मुलायम सिंह के ऑफिस से मुझे फ़ोन आया कि वे इटावा जा रहे हैं. क्या आप साथ चलेंगे. हम साथ चल दिए. 48 घंटे पहले जो व्यक्ति सरकार में था. सत्ता से हटने के बाद वो 50 हज़ार की भीड़ को संबोधित कर रहा था. यह थी मुलायम सिंह यादव की ताकत. कभी हार नहीं मानने की. वे हारते ही और सक्रिय हो जाते थे. यह चीज उनके बेटे अखिलेश यादव उनसे नहीं सिख पाए. अखिलेश लगातार चुनाव हार रहे हैं लेकिन ग्राउंड पर जाकर प्रदर्शन नहीं करते हैं. कार्यकर्ताओं से नहीं जुड़ पाते हैं.’’

‘‘मैंने कभी नहीं हारने वाले मुलायम को 2016 में हारते देखा जब अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव और रामगोपाल यादव में रार हुई. जिसे कोई नहीं हराया पाया वो परिवार में ही हार गया. उसके बाद वे सक्रिय राजनीति में नहीं लौटे. अमर सिंह और बीते दिनों उनकी पत्नी के निधन के बाद तो शारीर के साथ-साथ मानसिक रूप से भी वो कमजोर होने लगे थे. कई बार लोगों को पहचानते भी नहीं थे.’’

‘मैंने पहली बार लाशों के बीच मुलायम सिंह को देखा’

बाराबंकी के रहने वाले लेखक हफीज किदवई ने अखिलेश यादव पर #अखिलेश यादव नाम से किताब लिखी है. न्यूज़लॉन्ड्री से किदवई कहते हैं, ‘‘मैं उन्हें (मुलायम सिंह) अपनी किताब भेंट की थी. जो अखिलेश यादव के कामों पर आधारित है. कुछ दिनों बाद जब मैं उनसे मिलने गया तो उन्होंने बताया कि किताब में अखिलेश यादव का किस काम का जिक्र छूट गया है. वे हरेक चीज पर बारीक़ नजर रखते थे.’’

किदवई मुलायम सिंह यादव को पहली बार जब देखे तो उनकी उम्र 13-14 साल थी. वे बताते हैं, ‘‘बाराबंकी के मसौली में मेरा घर है. 1998-99 में ट्रक से एक बरात जा रही थी, जो ट्रेन की चपेट में आ गई. उसमें करीब 25 लोगों की मौत हो गई थी. पूरे गांव में कोहराम मचा हुआ था. हर घर का कोई न कोई आदमी उसमें मरा था. मुलायम सिंह मृतकों को देखने के लिए गांव पहुंच गए. वे लाशों के बीच में जाकर सबका चेहरा देख रहे थे. जमीन पर बैठकर मृतकों के परिजनों से मिले. जैसे कोई घर का ही हो. तब लगा कि यह आदमी जमीन से लोगों से कैसे जुड़ा हुआ है. उसी वक़्त उनसे उम्मीद बंध गई कि अब सरकारी मदद जरूर मिलेगी.’’

जब फोटोग्राफरों का समझा दुख

मुलायम सिंह यादव मीडिया के न बहुत पास थे और न ही बहुत दूर. कोई पत्रकार अगर परेशानी में होता था तो वे उसकी मदद किया करते थे.

वरिष्ठ फोटोग्राफर प्रमोद अधिकारी न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘वे पत्रकारों से ज़्यादा सम्मान फोटोग्राफरों को देते थे. छुट्टी वाले दिन नेताजी पार्टी कार्यलय में समर्थकों से मिलते थे. जब पत्रकार वहां जाते थे तो टीवी वालों को उनके सुरक्षाकर्मी रोक दिया करते थे, वहीं फोटोग्राफ़रों को आने देते थे. उनका मानना था कि बोलने और लिखने वालों से ज़्यादा फोटोग्राफरों की एक तस्वीर का असर होगा.’’

मुलायम सिंह यादव ने फोटोग्रफरों के लिए ऑफिस का निर्माण कराया. अधिकारी बताते हैं, ‘‘2004 की बात है. नेताजी को इस बात का आभाष हुआ कि फोटोग्राफर साथियों के लिए आज तक कुछ नहीं हुआ है. इसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश फोटोजर्नलिस्ट एसोसिएशन को विधायक आवास आवंटित किया. उनको फोटोग्राफरों की कमाई का अंदाजा था ऐसे में उन्होंने तय कर दिया कि इस आवास का किराया सूचना विभाग देगा. हम आज भी वहीं बैठकर काम करते हैं.’’

मुलायम सिंह यादव जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उन पर पत्रकारों को, नकद पैसा देने, जमीन और घर अलॉट करने का आरोप लगा था. हेमंत तिवारी बताते हैं कि यह आरोप सच था. मीडिया के लोगों को उन्होंने देखा कि आर्थिक कष्ट में हैं, तो उनकी जो हैसियत थी, उतनी मदद करते थे.’’

इसके बदले क्या पत्रकार उनके प्रति नरम रवैया अपनाते थे. इसपर तिवारी कहते हैं. ‘‘उनका व्यवहार ऐसा था कि सब उनके प्रति नरम ही था.’’

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