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न्यूज़लॉन्ड्री किसी संपादकीय मत से बंधा हुआ क्यों नहीं है?

"कोई सिस्टम परफेक्ट नहीं होता, उसको परफेक्ट बनाना पड़ता है." यह शब्द मेरी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक, रंग दे बसंती में वायुसेना के एक युवा पायलट अजय सिंह राठौड़ ने कहे थे. फिल्म में यह किरदार आर माधवन निभा रहे थे. यह सोच मुझे बहुत पसंद है क्योंकि यह मेरे पसंद के एक इसरार के भी काफी करीब है, "क्या आप किसी परिस्थिति को, जैसी आपको मिली उससे बेहतर अवस्था में छोड़ सकते हैं?" बहुत "अच्छे और बुद्धिमान" लोग, खास तौर पर नीति निर्धारक और अर्थशास्त्री, अक्सर दावा करते हैं कि उनके पास समस्या के समाधान का सर्वश्रेष्ठ मॉडल या नीति है, लेकिन उसके परिणाम अक्सर भयावह होते हैं. मेरी राय में इस चीज से निपटने का सही तरीका यह है कि आपको विरासत में जो मिला है, उसे आप और कितना बेहतर कर सकते हैं? श्रेष्ठता एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है.

इसी विचार ने न्यूज़लॉन्ड्री को जन्म दिया.

भारत का समाचार उद्योग लगभग जड़ हो चुकी परंपराओं और तंत्रों में फंस चुका था क्योंकि लंबे समय तक उसे कहीं से चुनौती नहीं मिल रही थी. ऐसी ही एक जड़ियल परंपरा (जिसके गर्भ में विज्ञापन आधारित आर्थिक ढांचा था) समाचार संस्थान के "संपादकीय दृष्टिकोण" की भी थी, जिसे हमने 2012 में न्यूज़लॉन्ड्री की शुरुआत के साथ तोड़ा दिया. मैं उन लेखों या संपादकीय की बात कर रहा हूं जिनके शीर्षक आमतौर पर "हमारी बात" या "टाइम्स व्यू" जैसे होते हैं.

ऐसे हस्ताक्षर रहित संपादकीय, अखबारों में आमतौर पर किसी भी विषय पर संस्थान के दृष्टिकोण से अवगत कराते हैं. एक दृष्टिकोण जो कदाचित कुछ सौ शब्दों में, उस संस्थान के सभी कर्मचारियों के विचारों का प्रतिनिधि होता है. न्यूज़लॉन्ड्री में हमारा विश्वास है कि नीति, प्रशासन, कानून, नियम और ऐसे अनेकों विषयों पर, अलग-अलग लोगों की अलग-अलग और तर्कसंगत राय हो सकती है. किसी भी समूह में अगर सभी लोगों के बीच हमेशा, हर बात पर सहमति बनी रहे, तो उसे बहुत बुद्धिमान लोगों का समूह नहीं कहा जा सकता.

न्यूज़लॉन्ड्री में हम यह मानते हैं कि हर व्यक्ति का अपना निजी दृष्टिकोण हो सकता है, और जब वह दृष्टिकोण प्रकट हो, मसलन किसी लेख में, तो उसके साथ उस व्यक्ति का नाम जुड़ा होना चाहिए भले ही वह न्यूज़लॉन्ड्री का कर्मचारी हो या केवल स्वतंत्र लेखक.

स्पेशल इकोनामिक जोन एक अच्छा विचार है या बुरा? बैंकों और पूंजी बाजार पर सरकारी नियंत्रण कम है या ज्यादा? क्या भारत में समान नागरिक संहिता होनी चाहिए, और उसकी रूपरेखा कौन तय करेगा? नीति से जुड़े ऐसे विषयों पर हमेशा ही भिन्न सामाजिक, राजनैतिक और सांप्रदायिक पृष्ठभूमि के बीच भिन्न-भिन्न नज़रिए देखने को मिलेंगे. मुझे नहीं लगता कि एक दृष्टिकोण या परंपरागत तौर पर "हमारा दृष्टिकोण" इस तरह के मामले में संस्थान के सभी लोगों की सोच को परिभाषित कर सकता है.

यह धारणा भले ही एक समय में सही रही हो, लेकिन अब ऐसा नहीं है. इसके विपरीत आज यह धारणा पत्रकारिता की जड़ों को खोखला कर सकती है, जो ज़मीनी रिपोर्टिंग पर टिकी होती है या कम से कम टिकी होनी चाहिए. जब कोई पत्रकार किसी ख़बर को कवर करने के लिए फील्ड में होता है तो वह अपनी खबर ग्राउंड पर दिखी सच्चाइयों और तथ्यों के सहारे खड़ा करता है. अगर कोई संस्थान पहले से ही उस ख़बर पर अपना नज़रिया निर्धारित कर दे, तो फिर रिपोर्टर उसकी असलियत तक पहुंचने की कोशिश उस उत्सुकता और समर्पण से नहीं करेगा. इसके बजाय वह अपने संस्थान के "दृष्टिकोण" को ही सही साबित करने की कोशिश में लग जाएगा.

नजरिए की इस एकरूपता की कीमत कई तरह की सच्चाइयों को चुकानी पड़ती है. "संपादकीय दृष्टिकोण" तय करने की परंपरा एक रिपोर्टर की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को नुकसान पहुंचाती है, उसकी पत्रकारीय निष्ठा का क्षरण करती है और एक संपूर्ण समाचार तंत्र के विकास को रोक देती है. इसीलिए विवादित और विचारणीय मुद्दों पर न्यूज़लॉन्ड्री का कोई नियत संपादकीय दृष्टिकोण नहीं है.

क्या इसका अर्थ यह है कि हमारा किसी भी विषय पर कोई संस्थागत दृष्टिकोण नहीं होगा?

ऐसा नहीं है. आमतौर पर ऐसी चीजों को कहने की आवश्यकता नहीं, और कुछ समय पहले तक वे सर्वमान्य थीं. लेकिन डिजिटल युग का एक लाभ और इससे पैदा हुई सामाजिक व राजनीतिक परिपाटियों का परिणाम यह भी है कि दशकों पहले निश्चित हो चुके विषयों को भी फिर से कुरेदा जा रहा है. उन्हें मानवीय मूल्य कहा जाता था और हम न्यूज़लॉन्ड्री में इसका सम्मान आज भी करते हैं. क्या लिंग, रंग, वर्ण, संप्रदाय, जाति आदि के आधार पर भेदभाव करना सही है? नहीं! इस विवाद पर निर्णय बहुत पहले हो चुका है, यह किसी नीति से जुड़ा सवाल नहीं बल्कि एक मानवीय मूल्य हैं.

आजकल सोशल मीडिया से लेकर सत्ता के गलियारों में बैठे हुए ट्रोल, अक्सर जाति व्यवस्था की गुणों की महानता बताते या समलैंगिक रिश्तों की बुराई करते देखे जा सकते हैं. हमारे लिए यह नीति से जुड़े प्रश्न नहीं, बल्कि मानवीय मूल्य हैं. इसलिए हां, यह हमारा विश्वास है कि महिला भ्रूण की हत्या नहीं होनी चाहिए, सिर्फ उन्हें लड़की होने की वजह से पर्याप्त पोषण से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, भले ही कुछ लोग ऐसा करते हों. ऐसे लोग न्यूजलॉन्ड्री में काम नहीं कर सकते. हम मानते हैं कि सिर्फ इस आधार पर लोगों की हत्या मानवीय मूल्यों के खिलाफ है कि उसने आपकी आस्था का अपमान किया था. ऐसे लोग हो सकते हैं जिन्हें यह सब ठीक लगता हो लेकिन उनके लिए न्यूज़लॉन्ड्री में कोई जगह नहीं है.

हम विमर्श से परे, वैश्विक मानवीय मूल्यों‌ में पूरी तरह से विश्वास रखते हैं, मूल्य जो हमें सभ्य और शालीन बनाते हैं. लेकिन ऐसी कोई भी बात जिस पर अभी तक सहमति नहीं बनी है, उस पर संस्थागत दृष्टिकोण रखना हमारा तरीका नहीं. हम मानते हैं कि यह पत्रकारिता के लिए ठीक नहीं.

हमें भरोसा है कि विरासत में मिले इन मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता करने का तरीका बेहतर है. और यह भी केवल एक सुधार ही है, यह कोई पत्थर की लकीर नहीं है. हम बिल्कुल उम्मीद करते हैं कि जिज्ञासू-बेचैन लोगों का एक नया समूह- जिसके भीतर सत्य और खबरों के लिए आग होगी- इसे और बेहतर बना कर हमें पीछे छोड़ देगा. हम उसकी उम्मीद भी करते हैं क्योंकि‌ कोई सिस्टम परफेक्ट नहीं होता, उसको परफेक्ट बनाना पड़ता है.

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