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'जांच में असहयोग' से लेकर फंडिंग तक: गुमनाम सूत्रों की मदद से जुबैर पर एकतरफा रिपोर्टिंग
‘सूत्रों’ का कहना है कि मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी पर समाचार चैनलों का कवरेज बेहद आधा-अधूरा रहा. उनका ‘दावा’ है कि खबरिया चैनल दिल्ली पुलिस की जानकारी पर कुछ ज्यादा ही निर्भर थे और उनकी रिपोर्ट्स में संतुलन और क्रॉस-चेकिंग की कमी साफ दिख रही थी. फिर इन सूत्रों ने टेलीविजन बंद कर सुबह के अखबारों की प्रतीक्षा करना सही समझा.
हंसी-मज़ाक अपनी जगह है, लेकिन असलियत यह है कि उपरोक्त ‘सूत्र’ काल्पनिक हैं. ठीक उन 'पुलिस स्रोतों' से जन्मे वक्तव्यों की तरह जो 2018 में एक हिंदी फिल्म से सम्बंधित एक ट्वीट करने पर बीते 27 जून को जुबैर की गिरफ्तारी के बाद से न्यूज़ रिपोर्ट्स में पाए जा सकते हैं.
इनमें से कुछ सबसे रोचक वक्तव्य 28 जून को इंडिया टुडे पर देखने को मिले. खबर का शीर्षक इस प्रकार था- “ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर ने पिछले 3 महीनों में 50 लाख से अधिक प्राप्त किए: सूत्र.”
इस लेख में बताया गया कि यह कथित जानकारी “पुलिस के सूत्रों” से मिली है, जो दावा करते हैं कि “जुबैर को बहुत ज्यादा डोनेशन भी मिले थे”, जिनमें से कुछ यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस या यूपीआई के माध्यम से किए गए थे.
इसके अलावा रिपोर्ट में कोई जानकारी नहीं दी गई. उन्हें 50 लाख रुपए किसने और क्यों भेजे? क्या यह ऑल्ट न्यूज़ को दिया गया फंड था, जो यूपीआई पर भी डोनेशन स्वीकार करता है? क्या उस पैसे का इस्तेमाल किया गया? पुलिस को इस लेनदेन की जानकारी कैसे मिली और इसका उस ट्वीट से क्या लेना-देना है?
यही रिपोर्ट लगभग हूबहू डीएनए में प्रकाशित हुई. इसमें कहा गया कि पुलिस “इस बात की जांच करेगी कि यह डोनेशन किसने और किस उद्देश्य से दिये.” वास्तव में, यहां पाठकों के लिए अज्ञात पुलिस सूत्रों द्वारा किए गए एक आधे-अधूरे दावे के अलावा कोई और जानकारी नहीं है.
यह रिपोर्ट कुछ घंटे बाद ही बदल दी गई. शीर्षक में 50 लाख रुपए प्राप्त करने की अवधि को “पिछले 3 महीनों” से बदलकर “पिछले कुछ दिनों में” कर दिया गया. इस महत्वपूर्ण संशोधन के लिए इंडिया टुडे ने कोई सुधार या स्पष्टीकरण नहीं दिया. संशोधित रिपोर्ट में यह दावा अनाम स्रोतों की बजाय अब पुलिस उपायुक्त केपीएस मल्होत्रा के हवाले से दोहराया गया.
एक ट्विटर यूजर ने इंडिया टुडे से पूछा, “आप समाचार चैनल हैं या रिले स्टेशन?” दूसरे से कहा, “क्या आपने इसे क्रॉस चेक किया है ???”
खबर पर विश्वास करने वाले लोग भी थे. एक यूजर ने जुबैर के लिए लिखा, “देश में दंगे भड़काकर आसानी से पैसा कमाना..कोई इतना भ्रष्ट कैसे हो सकता है?”
यहां एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इंडिया टुडे ने जुबैर के वकील या सहयोगियों से संपर्क नहीं किया. गिरफ्तारी पर ऑल्ट न्यूज़ के प्रमुख प्रतीक सिन्हा का ट्वीट रिपोर्ट में लिया गया, लेकिन 50 लाख रुपए के दावे पर उनका जवाब शामिल नहीं किया गया. सिन्हा ने इंडिया टुडे की रिपोर्ट का स्क्रीनशॉट ट्वीट करते हुए पुलिस के दावे को “सरासर झूठ” बताया. उन्होंने लिखा, “ऑल्ट न्यूज़ को मिलने वाला सारा पैसा संगठन के बैंक में जाता है, किसी व्यक्ति को नहीं. मेरे पास जुबैर के व्यक्तिगत खाते के स्टेटमेंट की एक प्रति है जो इस झूठ को खारिज करती है.”
इसके विपरीत, इंडियन एक्सप्रेस ने सिन्हा और जुबैर की वकील कवलप्रीत कौर, दोनों की टिप्पणियों को अपनी रिपोर्ट में शामिल किया.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट, नेटवर्क के डिप्टी एडिटर अरविंद ओझा के द्वारा लिखी गयी थी. 2019 में जब पुलिस ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में प्रवेश किया और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम का विरोध कर रहे छात्रों के साथ मारपीट की, तब ओझा ने छात्रों को “दंगाई” कहा था क्योंकि पुलिस में उनके “सूत्रों” ने उन्हें ऐसा बताया था. इसके एक महीने बाद, ऐसे ही “सूत्रों” ने उन्हें बताया कि आतंकवादी समूह इस्लामिक स्टेट “कई दक्षिणी राज्यों में अपना नेटवर्क फैला रहा है.”
पिछले साल, ओझा ने अपने “सूत्रों” के आधार पर रिपोर्ट किया कि सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि का संपर्क खालिस्तान समर्थक समूहों से है. इन सभी खबरों में थोड़े बहुत ही विवरण थे, किये गए दावों की कोई पुष्टि नहीं की गई थी और ऐसे गंभीर आरोपों का सामना करने वालों का पक्ष भी नहीं लिया गया था.
जहां एक ओर इंडिया टुडे ने सूत्र-आधारित खबरें छापीं, वहीं रिपब्लिक के हाथ पुलिस की रिमांड कॉपी लग गई. इस कॉपी के हवाले से चैनल ने दावा किया कि जुबैर को जांच में शामिल होने के लिए कहा गया था लेकिन उन्होंने मना कर दिया. ट्विटर पर सिन्हा ने आश्चर्य जताया कि “जब जुबैर के वकीलों के कई बार संबंधित पुलिस अधिकारियों से अनुरोध करने के बावजूद इस आदेश की प्रति उपलब्ध नहीं कराई गई”, तो रिपब्लिक के पास यह नोट कैसे पहुंच गया.
लेकिन जल्द ही हर जगह यही दावे किए जाने लगे कि जुबैर जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं.
शाम तक टाइम्स नाउ ने सूत्रों के हवाले से खबरें चलना शुरू कर दिया. चैनल ने बताया, "सूत्रों ने बताया है कि ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर ने जांच में अधिकारियों के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया", और कहा कि "जुबैर ने अपने उन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सौंपने से इनकार कर दिया जिनका इस्तेमाल उन्होंने 2018 में संबंधित ट्वीट करने के लिए किया था.”
एक बार फिर रिपोर्ट से महत्वपूर्ण जानकारियां गायब थीं, मसलन ज़ुबैर ने किस तरह के और कितने गैजेट्स का इस्तेमाल किया? उन्होंने गैजेट्स सौंपने से “इंकार” क्यों किया? यह विवरण महत्वपूर्ण हैं क्योंकि दिल्ली पुलिस का दावा है कि जुबैर को जांच में सहयोग न करने के कारण गिरफ्तार किया गया था. इंडिया टुडे की तरह ही इस रिपोर्ट में भी ज़ुबैर या ऑल्ट न्यूज़ का पक्ष नदारद था.
हिंदुस्तान टाइम्स ने इस खबर को “दिल्ली के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी” के हवाले से रिपोर्ट किया. रिपोर्ट में कहा गया कि “न जुबैर और न ही उनके वकीलों ने इस पर अभी तक कोई टिप्पणी की है”, लेकिन यह नहीं बताया कि अखबार ने उनका पक्ष जानने के लिए उनसे संपर्क किया था या नहीं.
न्यूज़लॉन्ड्री ने जुबैर की जांच में सहयोग न करने के आरोप पर ऑल्ट न्यूज़ के संपादक प्रतीक सिन्हा की टिप्पणी जानने के लिए उनसे संपर्क किया. यदि हमें उनकी प्रतिक्रिया मिलती है तो उसे इस रिपोर्ट में जुड़ दिया जाएगा.
सूत्रों के हवाले से किसी पर गंभीर आरोप लगाने की बीमारी नई नहीं है.
फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद ज़ी न्यूज़ जैसे समाचार चैनलों ने सूत्र-आधारित एकतरफा ख़बरें चलाईं, जिनमें उमर खालिद, मीरन हैदर और आसिफ इकबाल तन्हा जैसे सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए. यह पुलिस द्वारा लीक किए गए दावे थे, जिनमें दावा किया गया था कि इन कार्यकर्ताओं ने स्वीकार किया कि वह हिंसा के मास्टरमाइंड हैं, उन्हें पीएफआई से पैसे मिले हैं, वह नरेंद्र मोदी सरकार से नफरत करते हैं और अन्य कई दावे.
इन आरोपों का हमेशा उनके वकीलों ने खंडन किया लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स ने कभी उन्हें बताना ज़रूरी नहीं समझा.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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