Newslaundy Explained

हम मीडिया पर रिपोर्ट क्यों करते हैं?

बीते दो साल पत्रकारों के लिए बेहद मुश्किल रहे हैं. एक ओर विनाशकारी महामारी के कारण हम लगातार अपने सहकर्मियों को खो रहे थे, तो दूसरी तरफ हमें इस महामारी से उपजी त्रासदी पर रिपोर्ट भी करना था. नेटवर्क फॉर वीमेन इन मीडिया के आंकड़ों के अनुसार 2020 के शुरुआती चार महीनों में ही 31 मीडियाकर्मियों की कोरोना के कारण मौत हो चुकी थी और अब यह संख्या बढ़कर 600 तक पहुंच चुकी है.

इसके अलावा मुख्यधारा के मीडिया में काम करने वाले हमारे कई साथियों ने बेहद तनावपूर्ण माहौल में रिपोर्टिंग का काम किया है: वेतन में कटौती, नौकरी से निकाले जाने का डर, वेतन में न के बराबर इजाफा, और अपनी आंखों देखी को सत्ता में बैठे लोगों का मेगाफोन बने बिना रिपोर्ट करने के पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध आज का राजनीतिक माहौल. यह सब और अन्य बहुत सी चीजें यह सुनिश्चित करती हैं कि सरकारी विज्ञापन की फंडिंग से चलने वाला मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता द्वारा तय हदों में रहे. इसका दूसरा परिणाम यह हुआ है कि स्वतंत्र मीडिया में हम जैसे लोगों पर कानूनी कार्रवाई और एफआईआर में फंसने की संभावनाएं बढ़ गई हैं.

वैसे इस मामले में न्यूज़लॉन्ड्री की कहानी दूसरों से थोड़ी अलग रही है और यह बात 2012 में हमारे अस्तित्व में आने के कारणों को भी रेखांकित करती है.

जहां वायर, स्क्रॉल, एचडब्ल्यू न्यूज़ और कई स्वतंत्र पत्रकार यूपी, त्रिपुरा और तेलंगाना जैसी जगहों पर एफआईआर और बड़े कारोबारियों द्वारा दायर किए गए मानहानि के मुकदमों से जूझ रहे हैं, वहीं बीते दो सालों में तीन बड़ी मीडिया कंपनियां ही न्यूज़लॉन्ड्री को अदालत में घसीट चुकी हैं. जी हां, यह कहानी मीडिया बनाम मीडिया की है क्योंकि लंबे समय से पत्रकारों और उनके कामकाज को किसी भी तरह की समीक्षा के दायरे से बाहर रखने का एक अनकहा नियम सर्वमान्य था, और इसके खिलाफ जाने का मतलब है कानूनी मुकदमे झेलना.

2020 में कोरोना की पहली लहर के दौरान, पवार परिवार द्वारा समर्थित सकाल मीडिया समूह ने न्यूज़लॉन्ड्री के रिपोर्टर प्रतीक गोयल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई. प्रतीक का "अपराध" था कि उन्होंने सकाल टाइम्स के द्वारा, महामारी के दौरान किसी भी कर्मचारी को नहीं निकालने या वेतन में कटौती नहीं करने का महाराष्ट्र सरकार के आदेश का उल्लंघन करने पर रिपोर्ट किया था. स्वाभाविक रूप से प्रतीक ने सकाल के प्रबंधन का पक्ष जानने की भी कोशिश की थी.

बहरहाल, हम 65 करोड़ रुपए का मानहानि का नोटिस और ट्रेडमार्क अधिनियम के तहत एक एफआईआर इसलिए झेल रहे थे क्योंकि हमने अपनी रिपोर्ट के चित्रों में सकाल के ‘लोगो या चिन्ह’ का इस्तेमाल किया था. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे भारतीय जनता पार्टी अपने ऊपर की गई किसी रिपोर्ट के सिलसिले में कमल के चिन्ह का उपयोग करने पर सकाल टाइम्स पर मुकदमा दायर कर दे. खुशकिस्मती से बंबई उच्च न्यायालय ने पिछले साल अप्रैल में हमारे सहयोगी के खिलाफ दायर प्राथमिकी को ख़ारिज कर दिया, लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री के खिलाफ मामला अभी भी अदालत में है.

(हाल ही में मराठी अभिनेत्री केतकी चितले एनसीपी प्रमुख शरद पवार पर एक पोस्ट करने की वजह से एक महीने से अधिक समय से जेल में बिता कर आयी हैं.)

फरवरी 2021 में, टाइम्स ग्रुप ने टाइम्स नाउ न्यूज़ रूम का नेतृत्व करने वाली 'बड़ी समाचार हस्तियों' को बदनाम करने के आरोप में हमें 100 करोड़ रुपये का नोटिस दिया था. यह ध्यान रखना चाहिए कि इन हस्तियों ने आम नागरिकों को निशाना बनाया है. इसका सबसे घटिया उदाहरण हैं चैनल के प्रधान संपादक राहुल शिवशंकर, जिन्होंने केरल के एक कोचिंग सेंटर के निरीह मालिक (स्वाभाविक रूप से मुसलमान) पर बगैर किसी सबूत के धर्मांतरण रैकेट चलाने का आरोप लगाया. विडंबना यह है कि टाइम्स ग्रुप का अपना ही अखबार, द इकोनॉमिक टाइम्स, राहुल शिवशंकर के हर रात होने वाले प्राइम टाइम नाटक को सबसे बेहतरीन तरीके से बयान करता है - “एक ओझा की शैली में किया गया शब्द-वमन." जी, ईटी ने मैकएडम्स के साथ पहचानने में हुई मशहूर गड़बड़ी की लिए इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया था.

टाइम्स नाउ की इन "बड़ी समाचार हस्तियों" ने हास्यास्पद तौर पर व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स को ख़ास खबरों की तरह चलाया, एक फिल्म अभिनेत्री, विपक्षी राजनेताओं और राजनीति में सक्रिय छात्रों के खिलाफ कुटिल मीडिया ट्रायल किए. यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है और कितनी बार ये लोग फर्जी ख़बरें चलाते हुए पकड़े गए इस बात का यहां जिक्र भी करना बेमानी है.

इसके बावजूद इनके और इनके जैसे अन्य मीडिया संस्थानों की कोई समीक्षा या इन पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, क्योंकि इंडिया टुडे ने अक्टूबर 2021 में हम पर ऐसा करने के लिए मानहानि और कॉपीराइट उल्लंघन के लिए 2 करोड़ रुपये का मुकदमा दायर किया था. इस पर गौर कीजिये कि सकाल टाइम्स से लेकर इंडिया टुडे तक कॉपीराइट उल्लंघन एक आम आपत्ति है. यूं तो ये मामले फिलहाल अदालत में विचाराधीन हैं, लेकिन फिर भी ये एक मिसाल तो कायम करेंगे ही. मतलब ये कि अब अदालतें ही यह तय करेंगी कि न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा समीक्षा करने के मकसद से विभिन्न मीडिया संगठनों की बाइट्स, क्लिप्स या लेखों का इस्तेमाल, उचित उपयोग के अंतर्गत आता है या नहीं.

लेकिन मीडिया की रिपोर्टिंग या उसकी समीक्षा करनी ही क्यों है?

न्यूज़लॉन्ड्री ने 2012 में एक ऐसे व्यंग्यात्मक शो के विचार के साथ अपनी यात्रा शुरू की थी जो मीडिया को ही कटघरे में खड़ा करता था. जब मधु और अभिनंदन (न्यूज़लॉन्ड्री के दो संस्थापक) ने इस सोच के साथ अलग-अलग मीडिया घरानों से संपर्क किया, तो वे उन्हें बोर्ड में शामिल करने के लिए काफी उत्साहित दिखे. लेकिन वो आलोचना के 'दायरे' के बारे में जानने को उत्सुक थे. क्या इसमें "हम भी" शामिल होंगे? सभी मीडिया हाउस? हर पत्रकार? क्या कोई इससे परे नहीं होगा? और क्योंकि इन सभी सवालों का जवाब "हां" था, इसलिए अंततः कोई भी इस शो को मुख्यधारा के मीडिया में स्तान देने को तैयार नहीं हुआ.

ऐसे में एक पूरी वेबसाइट लॉन्च की गई. शो को नाम था 'क्लॉथ्सलाइन'. इसमें मधु, मेजबान के रूप में किसी को नहीं बख्शती थीं- बरखा, राजदीप, सागरिका, अर्नब... हर कोई इसकी जद में आया. और यह वेबसाइट न्यूज़लॉन्ड्री ही है जो कि अब पूरी तरह से एक समाचार और मीडिया समीक्षा के पोर्टल के रूप में विकसित हो चुका है.

हमारी दो सबसे लोकप्रिय पेशकश, टीवी न्यूसेंस और एनएल टिप्पणी, मुख्यधारा के उस टेलीविजन मीडिया परिदृश्य पर नजरें जमाये रखती है, जो कि 2012 से ही टीआरपी के लिए अंधे गड्ढों की ओर दौड़ रहा है. वैचारिक और राजनीतिक तौर पर अतिपक्षपातपूर्ण और सनसनी वाले माहौल के अलावा, टेलीविजन मीडिया की समाज में मूलभूत भूमिका में भी नकारात्मक बदलाव हुए हैं.

आज टीवी न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता दरअसल उसी जनता को जी-जान से अपना निशाना बनाने में जुटी हुई है जिसके हितों के लिए उसे खड़ा होना था. चाहे वह सीएए विरोधी प्रदर्शन हों, कृषि कानून का विरोध हो या हालिया अग्निवीर आंदोलन हो- कई स्टार एंकर केवल सरकार की बात रखते हुए या उसका बचाव करते हुए कई बार बहुत आगे निकल जाते हैं. नागरिकों को ही खलनायक के रूप में पेश करने के लिए वो कभी कांट- छांट किए गए विडियो का, तो कभी सीधे फर्जी खबरों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते.

टीवी न्यूज़ चैनलों द्वारा हर रात प्राइम टाइम पर, अल्पसंख्यकों को खलनायक के तौर पेश किया जाता है- मेरे पास उन तमाम जिहादों की गिनती नहीं है जिनको टीवी न्यूज़ चैनलों ने इसलिए ईजाद किया ताकि वे हिंदुओं को यह बता सकें कि कैसे वे अपने ही देश में असुरक्षित हैं. न्यूज़लॉन्ड्री की पत्रकार निधि सुरेश ने जुलाई 2021 में एक महिला द्वारा अदालत में दी गयी शिकायत के बारे में रिपोर्ट किया था. उस महिला की शिकायत थी कि इस्लाम धर्म अपना लेने के कारण उसे मीडिया के लोगों द्वारा धमकियां दी जा रही थीं. और यह स्टोरी करने के नतीजे में हमें एक और एफआईआर मिली.

हाल ही में दर्शकों को लुभाने वाले एक भयानक खेल की तर्ज पर हमने न्यूज़ एंकर्स को बुल्डोजरों पर चढ़ कर रिपोर्टिंग करते हुए देखा. ऐसा कर ये मीडियाकर्मी अपने दर्शकों को उन घरों और दुकानों को दिखाना चाह रहे थे जिन्हें जमींदोज किया जा सकता था. मेरी जानकारी के अनुसार यह टीआरपी का एक खजाना साबित हुआ. इस बीच असली खबरें कहीं नेपथ्य में चली जाती हैं- हमने पाया है कि इस साल मार्च के बाद से ही हिंदी और अंग्रेजी के चोटी के न्यूज़ चैनलों के प्रमुख एंकरों ने बेरोजगारी पर एक भी बहस या चर्चा नहीं की है.

आज जब मीडिया में कुछ लोगों ने जनता की सेवा के विचार को ही पूरी तरह से उलट दिया है, तब मीडिया के समीक्षक के तौर पर न्यूज़लॉन्ड्री की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है. हमारे शो शायद अधिकतम दर्शकों तक पहुंचते हैं, लेकिन हमारी रिपोर्ट्स, पॉडकास्ट्स और साक्षात्कार भी हैं, जो मीडिया पर केंद्रित हैं. हमने व्यावसायिक हितों की वजह से समाचार से संबंधित फैसलों पर पड़ने वाले प्रभाव, सिर्फ मुनाफे के लिए देशभक्ति का मॉडल, न्यूज़ रूम में छंटनी और खबरें इकट्ठा करने में इसका असर, हितों का टकराव (इसकी वजह से हमें कानूनी नोटिस मिला), भारत के गांव-देहातों में रिपोर्टिंग की कठिनाई, समाचारों में सूक्ष्म और स्पष्ट दुष्प्रचार, टीआरपी की लड़ाईयों की सरफिरी दुनिया, खबरों की दुनिया में निष्पक्षता और पूर्वाग्रह की अवधारणा, मीडिया के स्वामित्व के स्वरूप को गहराई से देखना, और अन्य बहुत से विषयों पर रिपोर्टिंग की है और लिखा है.

मीडिया लोकतंत्र में सत्ता को मनमानी करने से रोककर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है- न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका और निर्वाचित प्रतिनिधियों तक, सभी मीडिया की आलोचना के दायरे में आते हैं. लेकिन जिस मीडिया को यह कठिन जिम्मेदारी सौंपी गई है, उस मीडिया की खुद अपनी जवाबदेही और समीक्षा में कोई रुचि नहीं है. भारत में ऐसा कोई व्यवसाय नहीं होगा जिसमें मीडिया जितनी अपारदर्शिता व्याप्त हो. किसी पत्रकार को उसके द्वारा की गयी गलती के लिए माफी मांगते हुए देखना असंभव कल्पना है. 2012 में न्यूज़लॉन्ड्री का मिशन, सवालों से परे रहने की इस प्रवृत्ति को बदलना था. जिसका अर्थ है कि जब प्रश्न यह हो कि मीडिया को क्या रिपोर्ट करना चाहिए और क्या नहीं, तब न्यूज़लॉन्ड्री समेत कोई भी आलोचना के दायरे से बाहर नहीं है.

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