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सुभाष चंद्रा के राज्यसभा के सपने, अब कांग्रेस के लिए क्यों दुस्वप्न बन गए हैं?
जून माह के पहले दिन दुनिया को यह पता चला कि सुभाष चंद्रा राजस्थान से हैं. उस दिन, द टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार ने एस्सेल ग्रुप के चेयरमैन के हवाले से लिखा कि उन्होंने राजस्थान को अपना "गृह" राज्य बताया है. इसकी पृष्ठभूमि में राजनीति थी. चंद्रा को राजस्थान से भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से राज्यसभा में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा दाखिल करने के बाद यह एहसास हुआ.
इस समय हरियाणा से राज्यसभा के सदस्य चंद्रा ने कहा, "शेखावती इलाके के फतेहपुर में अभी भी मेरा घर, परिवार और मंदिर है. मैं साल में छह बार वहां जाता हूं."
लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया को शायद चंद्रा के इस दावे पर पूरी तरह विश्वास नहीं था, क्योंकि उन्होंने साथ में यह भी छापा कि ज़ी मीडिया के 71 वर्षीय मालिक का जन्म हरियाणा के हिसार में हुआ था. लेकिन चंद्रा की बातों की सत्यता उनके अपने ही शब्दों में कहीं बेहतर रूप से दिखाई पड़ती है. 2016 में लिखे गए अपने संस्मरण द ज़ी फैक्टर: माय जर्नी एस द रॉन्ग मैन एट द राइट टाइम, में चंद्रा लिखते हैं कि उनके पूर्वज हरियाणा से थे लेकिन वह "40 पीढ़ियों पहले" राजस्थान चले गए थे. चंद्रा ने लिखा, "वहां (राजस्थान) पर व्यापार के अवसरों से संतुष्ट न होने के कारण, उन्होंने हिसार से कुछ किलोमीटर की दूरी पर सदलपुर नाम के एक छोटे से गांव में एक बस्ती बनाने का फैसला किया."
लेकिन इस उद्योगपति के राज्यसभा के नामांकन की कहानी, उनकी इस संदेहास्पद उद्गम कथा से कहीं रोचक है. मीडिया जानकारों ने इसको अप्रत्याशित बताया और कहा कि यह नामांकन, राजस्थान में सत्ताधारी कांग्रेस का "खेल बिगाड़" सकता है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी इससे खुश नहीं दिखाई पड़े. चंद्रा के नामांकन की खबर सार्वजनिक होने के बाद उन्होंने मीडिया से कहा, "मुझे नहीं पता भाजपा ने क्यों यह खेल खेला है. वह वोट कहां से लाएंगे? वह खरीद-फरोख्त में पड़ना चाहते हैं. यह अच्छी परंपरा नहीं है."
2020 में, जब उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने पार्टी के खिलाफ विद्रोह किया था, तब मुख्यमंत्री ने भाजपा पर कांग्रेस विधायकों को पाला बदलकर सरकार गिराने के लिए करोड़ों रुपए की रिश्वत देने का आरोप लगाया था. आज वे इसे "अच्छी परंपरा नहीं" बता रहे हैं, क्योंकि चंद्रा के आ जाने से कांग्रेस के अपने तीन उम्मीदवारों को राज्यसभा भेजने के इरादों पर पानी फिरता लग रहा है.
2016 में, चंद्रा ने हरियाणा से अपनी राज्यसभा की सीट, कांग्रेस का समर्थन पाए निर्दलीय उम्मीदवार आरके आनंद को हराकर जीती थी. उनकी विजय को लेकर एक विवाद भी खड़ा हुआ था क्योंकि कांग्रेस के 14 विधायकों के वोट गलत पेन इस्तेमाल करने के कारण रद्द हो गए थे. तब से अपने कार्यकाल के पांच वर्षों में, सदन में चंद्रा की उपस्थिति 55 प्रतिशत रही है जो कि राष्ट्रीय औसत 78 प्रतिशत और राज्य के औसत 86 प्रतिशत से काफी कम है.
कांग्रेस के एक सूत्र ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "उनके आने से राजस्थान के राज्यसभा चुनावों में अनिश्चितता आ गई है. गेम खराब कर रहा है. चाहे वह जीते या हारे, लेकिन वह हमारे एक उम्मीदवार के इरादों को ध्वस्त करने के लिए कमर कसे हुए हैं."
राजस्थान का राज्य सभा गणित
राजस्थान विधानसभा में 200 सीटें हैं. इनमें से कांग्रेस की 108, भाजपा की 71, 13 निर्दलीय और बाकी बची आठ सीटें राष्ट्रीय लोक दल, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, भारतीय ट्राइबल पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पास हैं. राज्य की विधानसभा राज्यसभा सदस्यों को चुनती है और हर उम्मीदवार को विजय के लिए कम से कम 41 मत चाहिए होते हैं.
मौजूदा संख्या बल तीन सीटों की निश्चितता प्रदान करता है. कांग्रेस 82 वोट इकट्ठे कर दो उम्मीदवारों को और 41 वोट एकत्रित कर भाजपा भी एक सदस्य को सरलता से राज्यसभा भेज सकती है. दोनों ही दलों के पास कुछ अतिरिक्त वोट हैं, कांग्रेस के पास 26 और भाजपा के पास 30 वोट बच जाते हैं, जहां से चौथी सीट के लिए जद्दोजहद शुरू होती है.
राज्य में सत्तारूढ़ दल अपने तीन नेताओं, महाराष्ट्र के मुकुल वासनिक, हरियाणा के रणदीप सुरजेवाला और उत्तर प्रदेश के प्रमोद तिवारी को राज्यसभा भेजना चाहता है. लेकिन मीडिया की खबरों से यह संकेत मिलता है कि इस रेस में चंद्रा के उतर जाने से तिवारी का चुनाव इतना आसान नहीं होगा.
तिवारी की सहज जीत के लिए कांग्रेस के पास 123 विधायकों का समर्थन होना चाहिए. तिवारी के एक सहयोगी काफी आशान्वित दिखाई पड़ते हैं. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि पार्टी के पास 13 निर्दलीय, एक आरएलडी के विधायक और बीटीपी व सीपीआईएम के दो-दो विधायकों के समर्थन को मिलाकर कुल 126 वोट हैं.
लेकिन भाजपा इस उम्मीद में खलल डाल सकती है. उसने अपनी पहली सीट के लिए सांगनेर के विधायक घनश्याम तिवारी को उम्मीदवार बनाया है और चंद्रा की सीट पर विजय के लिए उसे 11 वोट चाहिए. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने अपने तीन वोट चंद्रा को दे दिए हैं और अब वांछनीय वोटों की संख्या आठ पर आ गई है.
भाजपा यह आठ वोट कहां से इकट्ठा करेगी यह सत्तारूढ़ दल के लिए चिंता का विषय है. पहला, अगर खरीद-फरोख्त की बात आती है तो भाजपा की जेबें कांग्रेस से कहीं ज्यादा गहरी हैं. और दूसरा, क्षेत्रीय दल जिन पर कांग्रेस समर्थन के लिए निर्भर है, इतने विश्वसनीय भी नहीं हैं.
कांग्रेस के असहयोगी साथी
यहां भारतीय ट्राइबल पार्टी का उदाहरण फिट बैठता है. प्रमोद तिवारी की टीम को लगता है कि बीटीपी के दो विधायक कांग्रेस उम्मीदवार के लिए वोट करेंगे, लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए बीटीपी के राजस्थान अध्यक्ष वेलाराम घोघरा ने इससे इनकार किया. घोघरा ने कहा, "हम कांग्रेस और भाजपा, दोनों के ही उम्मीदवारों के लिए वोट नहीं करेंगे. गहलोत सरकार ने आदिवासी समाज के मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया है. भाजपा भी आदिवासी विरोधी है."
लेकिन बीटीपी अपना मन बदल सकती है. 2020 में राजस्थान में सरकारी शैक्षणिक पदों पर बड़ी भर्ती के दौरान हुए प्रदर्शनों को लेकर घोघरा कहते हैं, "शिक्षकों के प्रदर्शन को लेकर आदिवासी युवाओं पर सात हजार से ज्यादा पुलिस केस दर्ज हैं. अगर मुख्यमंत्री 9 जून तक यह मामले वापस लेते हैं और हमारी मांगें मान लेते हैं, तो हम कांग्रेस को वोट दे सकते हैं."
पायलट, गहलोत और बाकी मतभेद
लेकिन सबसे बड़ी अनकही परेशानी सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच की दूरियां हैं. मंगलवार को चंद्रा ने मीडिया को बताया कि आठ कांग्रेस विधायक उनके पक्ष में क्रॉस वोटिंग करेंगे और उन्होंने पायलट को दल बदलने के लिए भी कहा. उन्होंने कहा, "यह एक बदला लेने का या संदेश देने का अवसर है. अगर वह यह अवसर गवा देते हैं तो वह 2028 तक मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे."
न्यूज़लॉन्ड्री ने चंद्रा के ऑफिस से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन वह किसी भी टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे.
वहीं कांग्रेस के शिविर में पायलट और गहलोत के मतभेद आसानी से खारिज हो जाते हैं. कांग्रेस के सूत्र न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, "वह व्यक्तित्व में मतभेद था, विचारधारा में नहीं. घनश्याम तिवारी की तरह पायलट ने दल नहीं बदला."
कांग्रेस की रणनीति में, भाजपा खेमे के अंदर तिवारी कमजोर कड़ी हो सकते हैं. कांग्रेस के सूत्र कहते हैं, "अगर भाजपा पायलट और गहलोत के मतभेदों को भुनाने की कोशिश करेगी, तो हम तिवारी और राजे के बीच के मतभेदों पर वार करेंगे."
सांगनेर के 74 वर्षीय विधायक राजस्थान में भाजपा के साथ बिल्कुल शुरुआत से जुड़े हुए हैं. 2017 में तिवारी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर कई राजनीतिक वार किए थे. संघ से जुड़ी पृष्ठभूमि होने के बावजूद भी, 2018 में तिवारी ने पार्टी छोड़कर अपना खुद का एक दल बनाया जिसका उन्होंने 2019 में कांग्रेस में विलय कर दिया था. तिवारी 2020 में भाजपा में वापस आ गए थे.
प्रमोद तिवारी के साथी ने रोमांच को थोड़ा सा और बढ़ा दिया. उन्होंने दावा किया, "घनश्याम तिवारी और वसुंधरा राजे एक दूसरे को पसंद नहीं करते. राजे के पास कम से कम 43 वफादार विधायक हैं जो शायद तिवारी के लिए वोट न करें. चंद्रा को इसलिए उतारा गया है जिससे भाजपा अपने खेमे को एकत्रित रख सके, और हम ऐसा होने से रोक सकते हैं."
भाजपा का पलड़ा भारी क्यों हो सकता है
राजस्थान की राजनीति की अनेकों संभावनाओं में कांग्रेस यह दावा जरूर कर सकती है कि वह भी भाजपा जितनी ही चतुर और चपल है. लेकिन अगर सत्यता से देखा जाए तो भाजपा के लिए आठ अतिरिक्त वोट इकट्ठा करना कहीं ज्यादा आसान दिखाई पड़ता है, बजाय कांग्रेस की इस उम्मीद के कि भाजपा के तीन दर्जन विधायक अपनी पार्टी की नाक नीची होने देंगे. भाजपा में भले ही मतभेद हों, लेकिन जैसा हमने पंजाब में देखा, इन मतभेदों का राजनीतिक तौर पर नुकसान कांग्रेस को होता है.
राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के एक नेता, जो दशकों से राजनीति में हैं, चंद्रा की उम्मीदवारी के इस नाटक को हिकारत से देखते हैं. वे कहते हैं, "चंद्रा अपने नफा नुकसान का हिसाब लगाए बिना इस रेस में नहीं उतरे होंगे. उनके ट्रेक रिकॉर्ड के हिसाब से यह बता पाना मुश्किल है कि चुनाव के दिन क्या होगा. लेकिन इतना जरूर है कि राजनीति में अब कोई मूल्य नहीं बचे. विधायक बस केवल पैसों में तुलते हैं."
सुभाष चंद्रा ने भले ही अपने जीवन में कई संघर्ष देखे हों. लेकिन इस बार उनका संघर्ष, 200 विधायकों, दो राजनीतिक दलों और एक राज्य का संघर्ष भी है. आगे की कहानी 10 जून को.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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