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प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रीय 'स्वच्छ वायु' अभियान का क्या हुआ?

राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम या एनसीएपी, जिसकी शुरुआत 2019 में 102 शहरों की हवा में पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के स्तर को कम करने के लिए की गई थी‌ - अपने लक्ष्यों में काफी पीछे है. इसकी निर्धारित समय सीमा समाप्त होने में केवल दो वर्ष बाकी हैं.

केंद्र के पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जनवरी 2019 में इस कार्यक्रम की शुरुआत की थी. सरकार ने 2024 तक पीएम उत्सर्जनों को 20 से 30 प्रतिशत तक कम करने के लक्ष्य के साथ इसमें 30 शहर और जोड़ दिए. इस कार्यक्रम में 24 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के शहर शामिल हैं.

एनसीएपी के अंतर्गत किसी भी शहर के एक्शन प्लान के द्वारा प्रदूषण कम करने के दो तरीके हैं, अध्ययन के द्वारा प्रदूषण के स्रोत को पहचानना और आवंटित निधि का उपयोग.

एनसीएपी की संचालन समिति की रिपोर्ट्स से न्यूज़लॉन्ड्री को पता चला कि जहां एक तरफ सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश अध्ययन के मामले में पीछे हैं, वहीं दूसरी तरफ आवंटित निधि के उपयोग में पश्चिम बंगाल, नागालैंड, गुजरात, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश ही ऐसे पांच राज्य हैं जिन्होंने निधि का शत-प्रतिशत उपयोग किया है.

अभी तक 132 शहरों में से केवल 28 प्रतिशत ने ही, एनसीएपी की नोडल एजेंसी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास अपनी सोर्स अपॉइंटमेंट (एसए) या एमिशन इन्वेंटरी या उत्सर्जन फेरहिस्त (ईआई) जमा की हैं. एसए, वायु के नमूनों की रासायनिक तत्वों की जांच कर प्रदूषण के स्रोतों को ट्रैक करता है. जबकि ईआई, अलग-अलग क्षेत्रों में उत्सर्जित प्रदूषकों को मापता है.

सभी शहरों के एक्शन प्लान जमा कर दिए गए हैं लेकिन इनमें से 72 प्रतिशत शहरों में अध्ययन अभी भी जारी हैं. जिनके निष्कर्षों से प्रदूषण के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर असर पड़ सकता है, जिनसे और विलंब होगा.

आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और एनसीएपी के विशेषज्ञ सदस्य एसएन त्रिपाठी ने, शहरों के बिना एसए और ईआई अध्ययनों के एक्शन प्लानों की तुलना एक ऐसे मरीज से की जो बिना बीमारी पहचाने इलाज ढूंढ रहा है.

उन्होंने कहा, "इस तरह के प्लान बड़े अस्पष्ट हैं. विज्ञान के बजाय सहज बुद्धि पर आधारित होंगे. किसी डाटा के अभाव में शहरों के एक्शन प्लान दोबारा बनाने पड़ेंगे." उन्होंने यह भी कहा कि प्रदूषण के स्रोतों को जानने के तीन तरीके हैं, मॉडल की गई और मापी गई एसए, तथा उत्सर्जन फेरहिस्त.

हालांकि पिछले साल अक्टूबर में ऊर्जा पर्यावरण व जल की काउंसिल से बात करते हुए सीपीसीबी के सदस्य सचिव प्रशांत गार्गव ने कहा था कि शहरों को, "काम शुरू करने के लिए बिल्कुल सटीक कार्य प्रणालियों का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. हम यह कहते रहे हैं कि आपके पास जो भी जानकारी (प्रदूषण स्रोतों को लेकर) है, उसके साथ काम शुरू करें. आपके पास औसत अनुमान हैं, उनसे शुरुआत करें.… आपको दो साल इंतजार करने की जरूरत नहीं है."

गार्गव का कहना है कि शहरों को प्रदूषण के स्रोतों पर अपनी समझ के हिसाब से कदम उठाने शुरू कर देने चाहिए.

लेकिन पर्यावरण मंत्रालय के एक अधिकारी, जिन्हें मीडिया से बात करने की इजाजत नहीं है, ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि एसए व ईआई अध्ययनों का उद्देश्य, शहरों की वायु प्रदूषण के प्रति कार्यवाही को बेहतर बनाना है.

डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में पीएम स्तर 10 है.

इस कार्यक्रम की प्रगति को ट्रैक करने वाली एक वेबसाइट के हिसाब से लंबित एसए व ईआई रिपोर्ट के मामले में 14 शहरों के साथ उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन सबसे खराब है. इसके बाद 11 शहरों के साथ महाराष्ट्र और आठ शहरों के साथ आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश व ओडिशा के सात और असम के पांच शहरों की रिपोर्ट सीपीसीबी के पास अभी तक नहीं पहुंची हैं.

निधियों का इस्तेमाल न होना

132 शहरों की यह सूची 2011-15 के बीच सालाना प्रदूषण स्तरों के हिसाब से बनाई गई थी. महाराष्ट्र (19),उत्तर प्रदेश (17) और आंध्र प्रदेश (14) में सबसे ज्यादा ऐसे शहर हैं.

यह शहर दो समूहों में बांट दिए गए हैं: एनसीएपी के द्वारा फंड किए गए 90, और 15वें फाइनेंस कमिशन के अंतर्गत 10 लाख से ज्यादा की आबादी वाले 42 शहर. पिछले साल दिसंबर में, केंद्र सरकार के द्वारा लोकसभा में एक जवाब में बताया गया कि केंद्र सरकार ने एनसीएपी के अंतर्गत आने वाले 90 शहरों के लिए अब तक 375 करोड रुपए आवंटित किए हैं. तथा बाकी शहरों के लिए 2020-21 में 15 फाइनेंस कमिशन के अंतर्गत 4,400 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं.

ध्यान देने वाली बात है कि मंत्रालय के द्वारा, बजट के आवंटन को बाद के चरणों में शहरों के प्रदर्शन से जोड़ दिया गया, जबकि शुरुआत में ऐसे किसी भी प्रकार के प्रबंध का जिक्र नहीं किया गया था.

लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री ने, पर्यावरण मंत्रालय की अप्रैल की एक रिपोर्ट को जांचा और पाया कि एनसीएपी के अंतर्गत फंड पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहे हैं. पंजाब, जो सर्दियों में उत्तर भारत की हवा को प्रदूषित करने के लिए बदनाम है, ने एनसीएपी के अंतर्गत अपनी निधि के पांच प्रतिशत 27.5 करोड़ रुपए ही अभी तक खर्च किए हैं. इसके बाद 12.36 करोड़ खर्च कर 11 प्रतिशत निधि उपयोग के साथ असम का नंबर है, तथा उसके बाद 24 करोड़ रुपए खर्च कर निधि के 25 प्रतिशत इस्तेमाल के साथ हरियाणा आता है. नागालैंड, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश ही ऐसे पांच राज्य हैं जिन्होंने 2019-21 में शत-प्रतिशत उपयोग किया है. छत्तीसगढ़ के 92 प्रतिशत और बिहार के 90 प्रतिशत उपयोग के अलावा बाकी राज्य 50 से 75 प्रतिशत के बीच झूल रहे हैं.

अपनी हालिया संचालन समिति की रिपोर्ट में पर्यावरण मंत्रालय ने 90 एनसीएपी शहरों के लिए लक्ष्यों को संपादित किया है. शुरुआती प्लान में 20 से 30 प्रतिशत से बदलकर रेंज 20 से 45 प्रतिशत कर दी गई है, और समय सीमा को 2024 से 2025-2026 कर दिया गया है.

लेकिन इस लेख में पहले जिक्र किए गए मंत्रालय के अधिकारी के अनुसार मूल एनसीएपी लक्ष्य बदले नहीं हैं. जब हमने उनसे नई रिपोर्ट में संपादित लक्ष्यों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "वह (टेबल) शायद कब्जा ली गई हो."

क्या एनसीएपी के मूल लक्ष्य बदल दिए गए हैं, इसको लेकर हमने अपने सवाल मंत्रालय सचिव लीना नंदन और सीपीसीबी के सदस्य सचिव प्रशांत गार्गव को भेजे, लेकिन उनकी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला. उनकी तरफ से कोई भी जवाब आने पर इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.

इन शहरों में प्रदूषण की जांच

एक ऐसा देश जिसके शहर बुरी तरह प्रदूषित हैं, कहां रहने की आर्थिक और मानवीय कीमत ज्यादा होती है.

सोनपुरी ने एनसीएपी ट्रैकर के जरिए 2017 से 2020 के बीच इन 132 शहरों में से 130 की हवा में पीएम के स्तरों की जांच की. हमने पाया कि 22 शहरों में हवा में प्रदूषण के करों में वृद्धि हुई थी और 27 शहरों में 10 प्रतिशत तक की कमी भी आई थी.

हालांकि यहां यह याद रखना जरूरी है कि 2020 में कोविड की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के कारण प्रदूषण में भारी कमी आई थी. अर्बन एमिशंस नाम के एक शोध ग्रुप के अनुसार लॉकडाउन के दौरान वायु प्रदूषण का स्तर 20 से 60 प्रतिशत तक गिर गया था.

क्लाइमेट ट्रेंड्स नाम की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के संवाद पर काम करने वाली एक संस्था की निदेशक आर्थिक हौसला कहती हैं, "प्रदूषण में कमी न्यूनतम है. आखिरी नतीजे पर हम अभी तक नहीं पहुंचे हैं. ऐसा लगे कि गिलास आधा भरा है लेकिन हम स्वच्छ वायु के लक्ष्य से अभी बहुत दूर हैं. जोकि एनसीएपी का 2024 तक हासिल करने का निर्धारित लक्ष्य है, जिसमें दो ही वर्ष बचे हैं. अगर परिस्थिति ऐसी ही बनी रहेगी तो प्रदूषण के स्तर पांच से 10 प्रतिशत तक बढ़ सकते हैं."

त्रिपाठी का कहना है कि इतनी अड़चनों के बावजूद भी एनसीएपी में जमीनी काम किया है, "वैश्विक स्तर पर लोग प्रदूषण से 20-30 सालों में निपटे हैं. एनसीएपी ने एक अच्छे ढांचे को तैयार किया है. अगर राज्य इसका पालन करते हैं तो नतीजे अच्छे आएंगे."

हालांकि दिल्ली के एक थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में हेलो भार्गव कृष्णा का कहना है कि जब तक अध्ययन पूरे होते हैं शहर भवन निर्माण से उड़ने वाली धूल और कचरे को जलाने जैसे आम प्रदूषण के स्रोतों पर ध्यान दे सकते हैं.

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