Book Review

बन्दूक़ द्वीप: इंसान से लेकर पशु-पक्षियों के पलायन और प्रवास की कहानियां

हमारे आज में जो कुछ हो रहा है उसके कारण हमारे अतीत में कहीं मौजूद होते हैं. उन्दे ओरीगो इन्दे सालूस, मतलब आरम्भ से ही आती है मुक्ति. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखक अमिताभ घोष का उपन्यास ‘बन्दूक द्वीप’ जो Gun island का हिंदी अनुवाद है को हम पढ़ें तो निष्कर्ष के रूप में यह दो बातें हमारे सामने आती हैं.

इस उपन्यास की शुरुआत होती है दीन दत्ता नाम के एक किरदार के साथ जो ब्रुकलिन में रहता है और पुरानी एवं दुर्लभ पुस्तकों का व्यापारी है. वह साल में एक बार जाड़ों के दिन बिताने के लिए कलकत्ता में अपने पैतृक घर पर आता रहता है. अकेलापन दूर करने के लिए वह पार्टियों में शामिल होता रहता है. ऐसी ही एक पार्टी में उसे एक दोस्त से पता चलता है कि नीलिमा बोस (एक समय बंगाल की एक बेहद प्रभावशाली महिला और सामाजिक कार्यकर्त्ता) उससे मिलना चाहती हैं.

वह नीलिमा से मिलने जाता है और वहां उसकी मुलाकात पिया (पियाली) से होती है जो बंगाली मूल की अमेरिकी महिला है. वह नीलिमा के सामाजिक कार्यों में उसकी मदद करती है और उसके एनजीओ का काम संभालती हैं. दीनो (इस उपन्यास में दीन दत्ता के लिए यही संबोधन प्रयोग हुआ है) इस समय अकेला है और वह पिया के प्रति आकर्षण महसूस करता है. नीलिमा उसे सुंदरवन के जंगलों में मौजूद मनसा देवी के मंदिर के बारे में बताती है और बन्दूक़ी सौदागर की कहानी सुनाती है. उनकी इच्छा है कि दीनो सुंदरवन जाकर उस मंदिर को देखे और बन्दूक़ी सौदागर की कहानी को समझने का प्रयास करे.

दीनो सुंदरवन की यात्रा पर चला जाता है. एक दिन की यह यात्रा उसे अतीत में न जाने कितना पीछे तक खींच ले जाती है. यहां आकर उसे पता चलता है कि सुंदरवन में जीवन कितना कठिन है, जलवायु परिवर्तन के कारण मछलियां अब अपना स्थान परिवर्तन कर रही हैं. अब वह इतनी बड़ी तादाद में नहीं हैं कि मछुआरे उनके ऊपर निर्भर रहकर अपना जीवन बिता सकें. कुछ साल के अंतराल पर आने वाली बाढ़ और तूफान ने भी यहां रहने वाले लोगों का जीवन मुश्किल बना दिया है. मछुआरों के बच्चे यहां से पलायन करने और महानगरों में जाकर मजदूरी करने को मजबूर हैं.

दीनो मनसा देवी के मंदिर को देखता है. यह विष्णुपुर मंदिरों की शैली में बना एक सुंदर मंदिर है. विष्णुपुर मंदिरों की शैली हिंदू और इस्लामी स्थापत्य कला का सुंदर समन्वय है. मंदिर की दीवारों पर विभिन्न चिन्ह और आकृतियां बनी हुई हैं. यह चिन्ह उसे बंदूक़ी सौदागर के बारे में कुछ नई जानकारियां प्रदान करते हैं. इस रोमांचक यात्रा से लौटकर दीनो वापस ब्रुकलिन लौट तो आता है लेकिन अब उन सच्चाइयों से साक्षात्कार कर लेने के बाद वह अपना जीवन पहले के जैसे नहीं जी सकता. वह जाचीनता को (दीनो की इतालवी मित्र और प्रोफेसर) बताता है कि मानो मेरा अपने ऊपर काबू ही नहीं है. मैं अपनी इच्छाशक्ति खो रहा हूं लेकिन जाचीनता उसे बताती है कि जो कुछ तुम्हारे साथ हो रहा है यह ‘वशीकरण’ नहीं है. यह ‘पुनरूत्थान’ है, एक तरह का जागरण. यहां दीनो और जाचीनता की बातचीत को पढ़िए.

अपने आस-पास देखो, डियर. ‘सब जानते हैं कि अगर इस धरती को जीने लायक बनाए रखना है तो क्या करना होगा; क्या हम चाहते हैं कि हमारे घरों पर समुद्र या मकड़ी जैसे जीव कब्जा कर लें? सब जानते हैं… लेकिन फिर भी हम लाचार हैं, बेबस हैं, हम में से सबसे शक्तिशाली इंसान भी. हम लोग अपनी रोजमर्रा की एक आदत के अनुसार जीते हैं, मानो किसी शक्ति ने हमारी इच्छा पर काबू कर लिया हो; हम अपने आसपास भयानक और घिनौनी चीजे होते देखते हैं और नजरें फेर लेते हैं; जिस किसी ने भी हम पर कब्जा किया है, हम स्वेच्छा से उसके आगे आत्मसमर्पण कर देते हैं.’ वह मुस्कुराई और आगे बढ़कर उसने मेरा हाथ थपथपाया. ‘इसलिए, तुम्हारे साथ जो भी हो रहा है वो “वशीकरण” नहीं है. मैं तो कहूंगी कि यह “पुनरूत्थान” है, एक तरह का जागरण. बेशक यह खतरनाक हो सकता है, लेकिन वो इसलिए कि तुम्हें उन चीजों का अहसास हो रहा है जिनकी तुमने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी, न ही महसूस किया था. तुम किस्मत वाले हो, दीनो किसी अनजान शक्ति ने तुम्हें इतना बड़ा तोहफा दिया है.’ जाचीनता ने खड़े होकर खिड़की के बाहर देखा. ‘मुझे तुमसे ईष्या होती है, लेकिन मैं तुम्हारी आभारी भी हूं – तुम बन्दूक़ी सौदागर को मेरी जिंदगी में भी लाए. मुझे लगता है हमारा भी कोई कर्त्तव्य बनता है, है ना?’

‘कैसा कर्त्तव्य?’

‘उसके कदमों पर चलने का….. वेनिस को वैसे देखना जैसे उसने देखा होगा.’ (बन्दूक़ी सौदागर ने)

जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाली समस्याओं के अतिरिक्त लेखक ने इस उपन्यास में पलायन की विभिन्न कहानियों को शामिल किया है. इंसान से लेकर पशु-पक्षियों के पलायन और प्रवास की कहानियों तक. इंसानों में भी केवल मजदूरों के पलायन की कहानियां नहीं हैं बल्कि उससे ऊपर के स्तर पर जीवनयापन करने वाले उस वर्ग के लोगों की भी कहानी को भी शामिल किया है जो भूख या रोजगार की समस्या का समाधान करने के लिए यहां नहीं चले आए हैं बल्कि वे आए हैं एक सपने का पीछा करते हुए, एक फंतासी का अनुसरण करते हुए.

ऐसी ही कहानी है पलाश की, जो बांग्लादेश में एक प्रतिष्ठित नौकरी करता था लेकिन उसका सपना था फिनलैंड जाने का. वह फिनलैंड तो नहीं जा सका पर उसे वेनिस की यूनिवर्सिटी ऑफ पडोवा में दाखिला मिल गया. पर पढ़ाई में वह कुछ खास नहीं कर पाया और वह अपने परिवार की इच्छा के विरूद्ध यहां आया था, नौकरी छोड़कर. फिलहाल अपनी अनिश्चित स्थिति के कारण उसे छोटी-छोटी नौकरियां करके अपना जीवन बिताना पड़ रहा है. उसका कहना है कि मैं अपने देश में क्लर्क की नौकरी को भी हिकारत से देखता लेकिन यहां मैं पिज्जा डिलीवर करने और बर्तन मांजने जैसे काम-काम भी खुशी-खुशी कर लेता हूं. यहां दीनो और पलाश की बातचीत पढ़िए.

‘मुझे मानना पड़ेगा कि एक सपने के पीछे भागते हुए मैंने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली.’

‘तो तुम्हारा सपना एक श्राप था?

‘शायद’, पलाश ने थकी हुई आवाज में कहा, "लेकिन सबका कोई सपना होता है, है ना, और सपना क्या है, एक कल्पना, एक फंतासी? सोचो इतने लोग जो वेनिस घूमने आए हैं: यहां क्यों आए हैं, बस एक कल्पना के चलते ना? उन्हें लगता है कि वे इटली के दिल तक पहुंच गए हैं, एक ऐसी जगह जहां वे इतालवी इतिहास को अनुभव करेंगे और असली इतालवी खाना खाएंगे. क्या वो जानते हैं कि यह सब मेरे जैसे लोगों की वजह से ही मुमकिन है? कि हम उनके लिए खाना पका रहे हैं, उनके बर्तन धो रहे हैं और बिस्तर बना रहे हैं? क्या वो जानते हैं कि कोई इतालवी अब यह सब काम नहीं करता? कि हम इस फंतासी को जिंदा रखे हुए हैं, हालांकि यह हमें नष्ट कर रही है? और क्यों नहीं? हर इंसान को सपने देखने का हक है, है ना? मानवीय अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण है- यही तो हमें जानवरों से अलग करता है. आपने देखा नहीं, जब भी फोन या टीवी स्क्रीन देखो कोई विज्ञापन कह रहा होता है कि अपने मन की करो; कि अपना सपना पूरा करो; कि “नामुमकिन कुछ नहीं– जस्ट डू इट!” क्या मतलब है इन संदेशों का सिवाय यह कहने के कि सबको अपने सपने पूरे करने चाहिए? किसी भी इतालवी से पूछ लो, और वो कहेंगे कि उनका सपना है, शायद वो एंडीज पहाड़ देखने अमेरिका जाना चाहते हैं या फिर महल और जंगल देखने भारत. और अगर आप श्वेत हैं तो आसान है: जहां चाहो, जब चाहो जा सकते हो और मनमर्जी कर सकते हो. हम नहीं कर सकते.”

पलाश की बातें सुनते हुए दीनो को अपनी किशोरावस्था और जवानी के दिन याद आने लगते हैं. उन दिनों में उसे किताबों, विशेषकर उपन्यासों का वैसा ही नशा था जैसे पलाश की पीढ़ी को फोन का है. वह सोचता है कि अगर सिर्फ शब्दों का यह असर हो सकता था तो लगातार फोन और लैपटॉप पर दिख रहे वीडियो और तस्वीरों का क्या असर होगा? अगर यह सच है कि एक तस्वीर में हजार शब्दों की शक्ति होती है तो दुनिया के हर कोने में फैली करोड़ों तस्वीरों की क्या ताकत होगी? वो किस क्षमता के सपने और इच्छाएं जगाती होंगी? या कितनी बेचैनी पैदा करती होंगी?

आजकल हम सभी सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं. सोशल मीडिया हमें एक खिड़की प्रदान करता है दूसरे के जीवन में झांकने की. कम से कम उतना ही जितना की दूसरा व्यक्ति अपने बारे में बताए. दूसरों की पोस्टों को, तस्वीरों को देखते हुए हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि अमुक व्यक्ति का जीवन बहुत अच्छा है और मेरा भी जीवन ऐसा होना चाहिए पर सोशल मीडिया पर प्रस्तुत होने वाली छवि सही ही हो यह जरूरी तो नहीं है. हो सकता है कि स्थिति इसके विपरीत हो लेकिन व्यक्ति में इच्छाएं, कल्पनाएं पैदा करने में इसकी भी भूमिका है.

इस किताब के बारे में द वॉशिंगटन पोस्ट की टिप्पणी जो इसके कवर पेज पर प्रकाशित है, वह यह है:

वर्तमान समय के दो सबसे बड़े मुद्दों से संबंधित जलवायु परिवर्तन और मानस प्रवास. जिस विश्वास के साथ घोष इन विशेष ध्रुवों के चारों ओर एक शानदार कहानी को आकार देते हैं, वो लाजवाब है… जिस तरह घोष उपन्यास की गति को बनाए रखने में सक्षम हैं, यह किसी चमत्कार से कम नहीं है… बन्दूक़ द्वीप हमारे समय का उपन्यास है.

(साभार- जनपथ)

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