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इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स: आगे से दाहिने!
लुटियन दिल्ली के अशोका रोड पर खड़ी एक शांत इमारत के भीतर इन दिनों सियासी गतिविधियों का भूचाल आया हुआ है. विंडसर प्लेस के गोलचक्कर पर मौजूद यह इमारत राजधानी की महिला पत्रकारों के सबसे प्रभावशाली संगठनों में से एक का केंद्र है. बात इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स (आईडब्ल्यूपीसी) की हो रही है. यहां 16 अप्रैल को इसके पदाधिकारियों का चुनाव होना है.
अप्रैल की एक चटकती दोपहरी में जब हम आईडब्ल्यूपीसी पहुंचे तो गेट से घुसते ही एक महिला पत्रकार हमसे टकरा गईं. बातोंं-बातों में उन्होंने कहा, "मुझे सरकार से जुड़े एक आदमी ने फोन करके कहा कि इस बार उनके पैनल को वोट दीजिए." हमने उत्सुकतावश पूछा महिला पत्रकारों के क्लब में सरकार का पैनल कौन सा है? उन्होंने जवाब दिया, "पूनम डबास के पैनल को भाजपा के लोगों का समर्थन मिला हुआ है."
इस एक जवाब ने हमें इस बार की महिला प्रेस क्लब की राजनीति की तहों में जाने के लिए प्रेरित किया. दिल्ली के सबसे पॉश इलाके में स्थित आईडब्ल्यूपीसी महिला पत्रकारों का अहम क्लब है. काम के बाद दिनभर की थकान मिटाने, गपशप करने, सियासी गतिविधियों की चर्चा करने के लिए हर शाम यहां महिला पत्रकारों का जमावड़ा होता है.
क्लब के भीतर ही कुछ कंप्यूटर लगे हैं, जहां से ये पत्रकार अपनी स्टोरी लिखने और एडिटिंग जैसे काम भी कर सकती हैं. यहां से करीब एक किलोमीटर दूर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया स्थित है.
क्लब के कामकाज की बागडोर संभालने के लिए हर साल चुनाव होता है. लेकिन इस बार आईडब्ल्यूपीसी का चुनाव हर बार की तरह नहीं हो रहा है. पहली दफा यहां तीन-तीन फुल पैनल अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. अपनी स्थापना के बाद से ही लेफ्ट और सेंटर की सियासत के बीच घूमते रहे आईडब्ल्यूपीसी में इस बार एक गंभीर राइट टर्न भी दिख रहा है. लेफ्ट और राइट के साथ तीसरा पैनल सत्ताधारी दल के समर्थक पैनल का है जिसका जिक्र शुरुआत में आया.
आईडब्ल्यूपीसी की शुरुआत नवंबर 1994 में हुई, जब पत्रकार मृणाल पांडे ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अतिरिक्त, एक ऐसी जगह की कल्पना की जहां महिला पत्रकार एक अच्छे वातावरण में बैठकर अन्य पत्रकारों, कलाकारों, और नेताओं से संपर्क बढ़ा सकें. बता दें कि दिल्ली में पहले पत्रकारों (महिला और पुरुष) के लिए प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ही था जिसकी शुरुआत 1958 में हुई थी.
आईडब्ल्यूपीसी की नींव 18 संस्थापकों मृणाल पांडे, कूमी कपूर, सुषमा रामाचंद्रन, शीला भट्ट, ऊषा राय जैसे कई जाने पहचाने चेहरों ने रखी थी.
स्थापना के पीछे कारण समझाते हुए कूमी कपूर कहती हैं, “महिलाओं के लिए पत्रकारिता का पेशा आसान नहीं है. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया पत्रकारों के लिए मात्र टाइमपास का अड्डा था. हम आईडब्ल्यूपीसी के माध्यम से कुछ अलग करना चाहते थे. हम इसे एक ऐसी जगह बनाना चाहते थे जहां महिला पत्रकार ऐसे लोगों से नेटवर्क कर सकें जो खबरों में रहते हैं. जहां मुद्दों पर चर्चा हो और एकता बढ़े.”
आईडब्ल्यूपीसी की स्थापना का उद्देश्य समझाते हुए सुषमा रामाचंद्रन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “हम एक ऐसी जगह चाहते थे जहां महिलाएं आपस में घुले-मिलें. क्योंकि उस दौरान प्रेस क्लब में आज की तरह, सेमिनार और अन्य कार्यक्रम नहीं हुआ करते थे. वहां का माहौल भी अलग होता था. महिलाओं को उस माहौल की आदत नहीं थी.”
वह आगे कहती हैं, “प्रेस क्लब में पुरुषों के बीच महिलाएं असहज महसूस करती थीं. वहां का शौचालय भी प्रयोग करने लायक नहीं था. तभी हमने कांस्टीट्यूशन क्लब में मुलाकात की और महिला पत्रकारों के लिए एक अलग क्लब खोलने पर विचार किया.”
तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के समर्थन से आईडब्ल्यूपीसी की शुरुआत हुई. तब राव ने दिल्ली के पटेल चौक में खाली पड़ा एक बंगला क्लब को दिया था.
साल 1995 में आपसी सहमति से मृणाल पांडे को क्लब का पहला अध्यक्ष चुना गया. सुषमा ने हमें बताया, “वो समय ऐसा था कि हमें महिलाओं को मनाना पड़ता था कि वे क्लब के बोर्ड में जिम्मेदारी लें. हम लंबे समय तक आपसी सहमति से अध्यक्ष चुनते रहे हैं.”
आईडब्ल्यूपीसी की सदस्यता केवल महिला पत्रकार ही ले सकती हैं. वर्तमान में क्लब के 900 से अधिक नियमित, एसोसिएट और कॉरपोरेट सदस्य हैं. यहां होने वाले चुनाव में हर साल 300 से 350 वोट तक डाले जाते हैं.
इस बार के चुनाव की बात करें तो यहां मुकाबला तीन तरफा है. चुनाव हर साल अप्रैल के महीने में होता है. जहां अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष और प्रबंध समिति के सदस्यों के लिए मतदान होता है. मतदान 16 अप्रैल को होगा.
मतदान की शुरुआत
साल 1999 में पहली बार आईडब्ल्यूपीसी में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ था. जिसके बाद 2011 और फिर 2017 में चुनाव हुआ. इसके अलावा बाकी समय में आम सहमति से अध्यक्ष और पदाधिकारी चुनने की परंपरा रही है.
साल 2020-21 में कोविड-19 के चलते चुनाव संभव ही नहीं हो पाया. कूमी कपूर कहती हैं, “पहले के चुनाव बहुत सभ्य तरीके से होते थे. पहले आप, पहले आप का चलन था. कोई पैनल नहीं हुआ करता था. शायद उस दौरान क्लब के सदस्यों की संख्या भी कम थी.”
इस साल का चुनाव सबसे अलग है क्योंकि पहले की तरह इस साल दो की बजाए तीन पैनल चुनाव लड़ रहे हैं. तीनो पैनलों को अलग-अलग विचारधारा से जोड़कर देखा जा रहा है. चुनाव लड़ने वाले तीन पैनलों का नेतृत्व वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामाचंद्रन, शोभना जैन और पूनम डबास कर रही हैं.
पहले चुनाव केवल ‘लेफ्ट’, जिसका नेतृत्व इस बार शोभना जैन कर रही हैं, और ‘सेंटर’, जिसकी कमान सुषमा रामाचंद्रन के हाथ में हैं, के बीच होता था. इस साल कथित तौर पर एक ‘राइट’ भी चुनाव में उतर गया है जिसे पूनम डबास लीड कर रही हैं.
चार बार क्लब की अध्यक्ष और आईडब्ल्यूपीसी की सबसे पुरानी सदस्य टीके राजलक्ष्मी कहती हैं, “इस बार चुनाव में बड़े दांव लगे हैं. इसे इस बार राष्ट्र या राज्य स्तर के चुनाव की तर्ज पर लड़ा जा रहा है.”
आईडब्ल्यूपीसी की कुछ महिला पत्रकार सदस्य अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर मौजूदा चुनाव के बारे में हमसे बात करने को राजी हुई. हमने जानना चाहा कि नाम क्यों नहीं उजागर करना चाहती हैं तो तो एक पत्रकार ने कहा, “मैं कोई विवाद पैदा नहीं करना चाहती और न ही किसी वरिष्ठ पत्रकार के साथ दुश्मनी मोल लेना चाहती हूं.”
तीन मुद्दे और आपसी तकरार
क्लब की एक अन्य सदस्य कहती हैं, “कोविड-19 के बाद से क्लब में कोई खास कार्यक्रम का आयोजन नहीं हुआ है, जहां सभी महिलाएं मिलजुल सकें. हम चाहते हैं कि एक बार फिर क्लब की आत्मा लौट आए.”
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कई सदस्यों ने रंजिश और चुनावी महत्वाकांक्षाओं के बारे में भी बात की. बातचीत में दो घटनाओं का जिक्र प्रमुखता से आया.
पहली घटना 24 जुलाई, 2021 की है जब आईडब्ल्यूपीसी ने पाकिस्तानी हाई कमीशन से रिटायर हो रहे प्रेस अटैचे ख्वाजा माज तारिक को निमंत्रित किया. उस समय क्लब की सदस्य रहीं संध्या जैन ने इंडिया न्यूज़ ने कहा था- “इस गेट-टुगेदर की तैयारी गुप्त तरीके से हुई थी.”
उस दौरान मीडिया के एक हिस्से में आईडब्ल्यूपीसी की खूब आलोचना हुई थी और इस घटना को “पाकिस्तानी षडयंत्र” और “पाकिस्तान-आईएसआई साजिश” करार दिया गया था.
पूनम डबास के पैनल से खड़ी हुईं उम्मीदवार ने गोपनीयता की शर्त पर हमसे बात करते हुए कहा, “उस समय भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध अच्छे नहीं थे. हम भी हैरान थे कि प्रेस कॉर्प्स में इस तरह का आयोजन कैसे हो रहा है.”
पूनम डबास के पैनल की ओर इशारा करते हुए टीके राजलक्ष्मी ने कहा, “इस मुद्दे पर उनकी (पूनम डबास पैनल) राय, उनकी राजनीतिक राय को दर्शाता है. हम पकिस्तान के साथ युद्ध नहीं कर रहे. और ऐसा कोई सरकारी आदेश नहीं है कि हमें पाकिस्तानी अधिकारियों से बातचीत नहीं करनी चाहिए.”
क्लब में शाम की चाय पीते हुए, सुषमा रामाचंद्रन की एक समर्थक पत्रकार कहती हैं, “समय-समय पर क्लब में अधिकारियों की मेजबानी की जाती है ताकि हम उनके साथ बेहतर रिश्ते बना सकें. वो पाकिस्तानी अधिकारी तो वैसे भी नौकरी छोड़कर जा रहे थे. ऐसे अधिकारियों से संपर्क बढ़ाकर हमें कोई फायदा नहीं. तो उस आयोजन की आवश्यकता नहीं थी.”
न्यूज़लॉन्ड्री को प्राप्त एक व्हाट्सएप संदेश में हमने पाया कि पाकिस्तानी अधिकारियों को क्लब में निमंत्रित करने की घटना पूनम डबास के पैनल ने चुनावी मुद्दा बना लिया है. इस संदेश में लिखा है, “पकिस्तान के लोगों को बुलाने से क्लब की बदनामी हुई, जिसके बाद से कई महत्वपूर्ण अतिथियों जैसे मनोहर लाल खट्टर ने क्लब आने से मुंह मोड़ लिया.”
आईडब्ल्यूपीसी की संस्थापक सदस्य कूमी कपूर कहती हैं, “पाकिस्तानी अधिकारियों की मेजबानी करने में कुछ भी गलत नहीं है. इससे पहले भी क्लब में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी से लेकर जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, सीपीएम के प्रकाश करात, पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री की पत्नी चेरी ब्लेयर जैसे लोगों को आमंत्रित किया गया है.”
उन्होंने आगे कहा, “कुछ लोगों ने अपने राजनीतिक मकसद के लिए इस घटना को गलत तरह से देखा.”
इस बार के चुनाव में जमीन की किश्त चुकाने में नाकामी दूसरा सबसे अहम मुद्दा है.
बीते साल 5 अगस्त को नरेंद्र मोदी सरकार ने आईडब्ल्यूपीसी को जगह खाली करने का नोटिस भेजा था. केंद्रीय आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय द्वारा भेजे गए नोटिस में आईडब्ल्यूपीसी को 30 लाख रुपया बकाया राशि जमा करने के निर्देश दिया गया था.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए एक महिला पत्रकार ने बताया, “वर्तमान अध्यक्ष विनीता पांडे ने जमीन के स्टेटस से जुड़ी जानकारी छुपाई. यह जमीन क्लब को एक साल की लीज पर मिलती है. जिसके लिए हर साल सरकार को चिट्ठी लिखकर भेजनी पड़ती है. लेकिन मौजूदा पैनल की लापरवाही के कारण सरकार को हमसे जमीन वापस लेने का मौका मिल गया.”
वह आगे कहती हैं, “पिछले साल सरकार ने जमीन का किराया बढ़ा दिया जिसकी सूचना सदस्यों को नहीं दी गई. जब मामला संसद में उठा तब हमें पता चला.”
“क्लब में उठाए गए मुद्दों का ध्रुवीकरण”
महिला पत्रकारों से बातचीत में हमें पता चला कि पिछले 10 सालों में क्लब में राजनीतिक मतभेद बढ़ गया है. एक सदस्य ने गोपनीयता की शर्त पर बताया, “जिस तरह से हमारे देश में ध्रुवीकरण हो रहा है, एक समूह आईडब्ल्यूपीसी में भी उसी तरह की विचारधारा को फैला रहा है. हम चाहते हैं आपकी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो, उसका क्लब के कामकाज पर असर ना पड़े. क्लब महिला पत्रकारों के लिए एक सुरक्षित जगह है. यहां वह जो भी स्टोरी लिख रही हैं उसे लिखने में सुरक्षित महसूस करें. क्लब को राजनीतिक अड्डा नहीं बनाया जाना चाहिए.”
वह उदाहरण के तौर पर कहती हैं, “जेएनयू में मीट को लेकर हुई हिंसा पर प्रतिक्रिया देते हुए पूनम डबास के पैनल के लोगों ने व्हाट्सएप ग्रुप में मीट बैन को सही ठहरना शुरू कर दिया. इनकी विचारधारा बहुत अतिवादी है जो क्लब के माहौल के लिए अच्छी नहीं है.”
पूनम डबास के पैनल की एक सदस्य का मानना है कि उन्हें “राइट विंग” करार देना सही नहीं है. वह कहती हैं, “मुझे नहीं पता बाकी पैनल के लोग हमें राइट विंग कहकर क्यों बुला रहे हैं. हां, हमारे आपसी मतभेद हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें राजनीतिक विचारधारा के आधार पर अलग किया जा रहा है.”
उन्होंने आगे बताया, “मौजूदा वामपंथी पैनल मुद्दे उठाने में भेदभाव करता रहा है. जब हरिद्वार में एक पत्रकार की मौत हुई तब इस पैनल ने कोई नोटिस जारी नहीं किया. लेकिन जब बंगाल में पत्रकारों पर हमला हुआ तो तुरंत कई नोटिस जारी किए गए. यह क्या दर्शाता है?”
पूनम डबास के घोषणापत्र में पहला बिंदु कहता है कि आईडब्ल्यूपीसी ने 2019 में सुदर्शन न्यूज़ के पत्रकार अनुज गुप्ता के अपहरण पर चुप्पी साध ली थी. सुदर्शन न्यूज़ अपने अतिवादी हिंदुत्ववादी रवैये के लिए बदनाम है. यह बिंदु अपने आप में इस बात का इशारा करता है कि डबास पैनल का झुकाव दक्षिणपंथी है.
शोभना जैन के पैनल की एक सदस्य ने 2-3 साल पहले हुई घटना का जिक्र करते हुए कहा, “मौजूदा पैनल ने 2020 में अर्नब गोस्वामी पर हुए हमले पर कुछ नहीं कहा क्योंकि वह रिपब्लिक चैनल से थे. जब हमने चिंता जाहिर की तब स्टेटमेंट जारी किया गया.”
सुषमा रामाचंद्रन का कहना है कि पहले केवल दो पैनल चुनाव में खड़े होते थे. वो कहती हैं, “यह पहली बार हो रहा है कि तीन पैनल चुनाव लड़ रहे हैं. इसलिए इन्हें नाम दे दिए गए लेकिन इससे पहले कोई ‘राइट’, ‘लेफ्ट’ या ‘सेंटर’ पैनल नहीं होता था.”
अन्य मुद्दे
कई महिला पत्रकारों का मानना है कि क्लब को ऐसे मुद्दे उठाने चाहिए जिसने सभी को प्रभावित किया है. वैचारिकी का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण नहीं है.
शोभना जैन के पैनल की एक सदस्य ने कहा, “जैसे कोविड के दौरान कई महिलाओं की नौकरी चली गई. इस पर बात हो. पत्रकारों को सरकार की किसी स्वास्थ्य बीमा योजना का हिस्सा बनाए जाय, इस पर बात हो.”
वह आगे कहती हैं, “कांग्रेस की सरकार में भी उनके पत्रकार हुआ करते थे जो क्लब के सदस्य थे. हमारी उनसे बहस भी हुआ करती थी लेकिन अभी के पत्रकार अतिवादी हैं. उनसे बात करके लगता है जैसे धमकी दे रहे हों. इस अतिवाद से हमें दिक्कत है.”
सुषमा रामाचंद्रन का पैनल भी चुनाव में खड़ा है. वह आईडब्ल्यूपीसी की परंपरा को दोबारा लौटाना चाहती हैं. वह कहती हैं, “पिछले दो सालों में कोरोना के कारण क्लब की स्थिति खराब हो गई है. पिछले मेंबर फंड नहीं जुटा पाए. हम फंड की समस्या का समाधान करेंगे. एक बार फिर खेल, राजनीति और कला के क्षेत्र से जुड़े ज्यादा से ज्यादा लोगों को क्लब में निमंत्रित करेंगे.”
तमाम महिला पत्रकारों से बातचीत में जो मुख्य बात उभरकर सामने आई वह थी महिलाओं के कामकाज का माहौल बेहतर हो, उनकी मुसीबतों के वक्त क्लब खड़ा हो, उनके वाजिब मुद्दों को जरूरी मंचों पर उठाए. बहुत दफा ऐसा होता है, कई दफा क्लब ऐसा करने से चूक जाता है.
2008 से क्लब की सदस्य अदिति टंडन कहती हैं, "चुनावी मतभेद का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्तिगत मतभेद है. हम बाद में फिर से दोस्त बन जाते हैं."
लेकिन एक महिला पत्रकार दूसरा पक्ष हमारे सामने रखती हैं, "ऐसे मौके आते हैं जब महिला पत्रकारों पर पुलिस मामले दर्ज कर लेती है, न्यूज़ रूम में या फिर फील्ड में कामकाज के दौरान उनका यौन शोषण होता है, ऐसे मौको पर कई बार क्लब बयान तक जारी करने से कतराता है. बड़े मुद्दों पर अक्सर उनका रवैया प्रोएक्टिव नहीं होता है. फिर इनके होने का क्या अर्थ है?"
जाहिर है आईडब्ल्यूपीसी आज उस मोड़ पर खड़ा है जहां से आगे उसकी राह तय करने का सबसे अहम जरिया होगा उसकी राजनीतिक विचारधारा, चाहे कोई भी जीते.
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