Opinion
हिजाब से लेकर झटका और हलाल से होते हुए हरा रंग
आज देश में हल्दीराम की शामत आई हुई है. यह शामतों का देश होता जा रहा है. कल किसकी आएगी इसे लेकर गली-गली में अटकलें लगाई जा रही हैं. दिलचस्प है कि इतनी शामतों के बाद भी इस देश के सत्ता समर्थक भीड़ उत्पादक समाज को लगता है कि दुश्मन का किला अपराजेय है. यह अपराजेयता उन्हें सोने नहीं देती. जागने और जगाने का बीड़ा तो ऐसे-ऐसे लोगों ने उठा रखा है कि पूछिए ही मत!
अब चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि आखिर क्या हो कि इन्हें लगे कि दुश्मन ने हार मान ली है. अव्वल तो उसके लिए ठंडे दिमाग से दुश्मन कि शिनाख्त होना बहुत जरूरी है. भारत सरकार चाहे तो इसके लिए एक टास्क फोर्स या आयोग का गठन कर सकती है. अब तक जिन्हें दुश्मन माने बैठे थे उनसे तो देश की मीडिया ने अच्छी टक्कर ली हुई है और ताजा हालात यह हैं कि दुश्मन लगभग-लगभग हार के कगार पर है और इसलिए इधर जो स्वयंसेवक संघसेवी भीड़ है उसके नित नए अभियानों में दुश्मन देश का नाम प्राय: अब नहीं आता. उनके लिए अब ऐसे देश महज एक गंतव्य बन कर रह गए हैं जहां ऐसे लोगों को भेजा जाता है जो इस संघसेवी भीड़ से पृथक राय रखते हैं.
ऐसा लगता है कि जैसे दुश्मनों से निपटने के लिए बाज़ाब्ता टीमें बना दी गई हों, हालांकि दोनों ही टीमें संघसेवी और दो बड़े व्यापारियों की कमांड पर काम करती हैं- बाह्य दुश्मनों से निपटने के लिए शाम छह बजे से मीडिया अभियान चलाए जाएं, रात होते-होते तक उन्हें नेस्तनाबूत कर दिया जाए और आंतरिक दुश्मनों के लिए संघसेवी, बहुसंख्यक समाज उत्पादित और सत्तापोषित भीड़ को लगाया जाए. अब दिक्कत यहां आ रही है कि बाहरी दुश्मनों की अव्वल तो संख्या कम है और दूसरे कि वे सामने नहीं हैं इसलिए इस बाबत तैनात फौज का काम काफी कम है; लेकिन जो दूसरी फौज है उसके पास दुश्मनों की फेहरिस्त बड़ी है और वो हाजिर भी हैं.
ऐसे में नित नूतन अभियानों को अनवरत चलाना बड़ा पेचीदा और श्रमसाध्य काम होता जा रहा है. इस तरह की कठिन और व्यस्त परिस्थितियों में अक्सर मोर्चे पर जगहंसाई जैसी स्थिति भी बन जा रही है. आज ही मामला देखो तो, इस फौज को सिवा जगहंसाई के कुछ हासिल होता नहीं दिख रहा है.
आज के अभियान का दुश्मन हल्दीराम है और उसकी वजह उसके एक उत्पाद के पैकेट पर उत्पाद संबंधी सूचना को अंग्रेजी के साथ-साथ अरबी में लिखा जाना है. आज का प्रत्यक्ष शत्रु वह लिपि है जिसके बारे में इन बेचारों को कुछ नहीं पता है. इसे कई बार आप फिल्मों में दिखाए जाने वाले उन दृश्यों से जोड़ कर देखें तो समझना आसान होगा जिसमें किसी सुपारी किलर को किसी को मारने की सुपारी दे दी जाती है. सुपारी के साथ उसकी तस्वीर भी भेज दी जाती है जिसकी हत्या की जानी है. कुछ घटित होता है और तस्वीर बदल जाती है. अब सुपारी किलर अपने शिकार पर निकला है लेकिन वो वाकई इस बात से अंजान है कि उसे जो तस्वीर मिली है और जिसे उसको मारना है दोनों भिन्न हैं.
इस भीड़ को बताया गया कि नवदुर्गा के पावन पर्व पर व्रतधारियों के लिए जो उत्पाद हल्दीराम ने बाजार में उतारा है उसमें दो बेहद गंभीर साजिशें की गई हैं. पहली, उस पैकेट का रंग हरा है. दूसरा, उस पैकेट पर उत्पाद के बारे में जो सूचनाएं हैं उन्हें उर्दू में लिखा गया है. चूंकि पैकेट हरे रंग का है और उस पर उर्दू में लिखा गया है तो अब इस भीड़ को कोई शक-शुबहा तो होने से रहा. टूट पड़े हल्दीराम की दुकानों पर. हो गए वीडियो वायरल.
बड़े-बड़े दानिशमंद भी समझाने पर उतर आए कि भाई उर्दू लिखे जाने की नहीं बोले जाने की भाषा है, यही इसी सरजमीं पर पैदा हुई है और देश के संविधान की आठवीं सूची में जहां देश की सभी बड़ी भाषाएं बैठी हैं वहीं आठवें क्रम पर इस भाषा को भी इज्जत अदायगी की गई है. इसकी लिपि अलग होती है. हल्दीराम ने जो अपने हरे रंग के पैकेट पर लिखा है वो अरबी भाषा है और इसलिए क्योंकि हल्दीराम के उत्पादों का निर्यात अरब देशों में बड़े पैमाने पर होता है तो उन देशों के लोगों के मद्देनजर पैकेट पर सूचना दी गई है.
लेकिन अभियान तो शुरू हो चुका है. और वापस मुड़ना तब तक नहीं सीखा जब तक अपनी सत्ता है. अगर सत्ता अलग हो और वो सख्त हो और वाकई संघमिश्रित न हो तो इन्हें माफी मान लेने में थोड़ी भी देर न लगे लेकिन ये बताई गई परिस्थितियां चूंकि मौजूद नहीं हैं इसलिए अभियान उरुज पर है और कतई संभव है कि कल हल्दीराम इस उत्पाद को वापस ले ले. माफी भी मांग ले.
दानिशमंदों के हस्तक्षेप से इन्हें नए अभियान के लिए मुद्दा मिल गया. और वो ये कि संविधान की आठवीं अनुसूची में उर्दू क्यों हो? कल अभियान का रुख बदल भी सकता है. उसका लक्ष्य भी बदल सकता है. वैसे भी इनके हर अभियान का रास्ता अंतत: संविधान तक जाता है. असल समस्या की जड़ इनके पूर्वज उसी संविधान में देखते आए हैं और जिसे मिटाने के लिए उसी का सहारा लेना इनकी एक दीर्घकालीन रणनीति है.
यह भीड़ लक्ष्यभेदी है. इसकी सराहना की जानी चाहिए. इतनी अनुशासित है कि कायदे से इसे भीड़ कहना नहीं चाहिए. ये कभी भी शुरू होकर कभी भी किसी भी क्षण अचानक रुक सकती है. इस भीड़ का रिमोट पर और रिमोट का इस भीड़ पर गजब का नियंत्रण है. इस नियंत्रण की तारीफ की जानी चाहिए. डरना बेशक चाहिए लेकिन बीते कुछ वर्षों से डरी हुई जमात की हरकतों को देखकर और डर के आभासी होने को लेकर एक तरह का ऐसा मानसिक अनुकूलन हुआ है कि जब कोई कहता है डर तो सुनाई देता है- सत्ता पाने का नुस्खा. जब कोई कहता है खतरा तो जिन्हें खतरे में बताया जाता है उनकी उंगली पर लगी निर्वाचन की स्याही दिखाई देती है जिनके बगल में खड़े एक नेता ने अपनी दो उंगलियों को विजय प्रतीक की मुद्रा में विन्यस्त किया हुआ है.
जब कोई कहता है कि 80 प्रतिशत महज 17 प्रतिशत की वजह से खतरे में आ गया है और असुरक्षा में जी रही है तो आंखों के सामने बिकते हुए सार्वजनिक उपक्रम सामने आ जाते हैं. यहां शब्द, शब्दों के मायने और उनसे उत्पन्न होने वाले दृश्य बदल चुके हैं. इसलिए जब हल्दीराम या नवदुर्गा में मीट की दुकानों को बंद करने के फरमान दिखाई देते हैं तो बुद्धि तत्काल चुनावी कैलेंडर देखने लग जाती है. अब कहां है चुनाव? चुनाव कब है?
कुछ साल पहले तक दरवेश और शायर सरहदों पर होने वाली हलचल से चुनाव की तिथियों का अंदाजा लगाया करते थे. अब हर रोज के बवाल से और नित नई शामतों से आने वाले कुछ साल बाद के चुनावों का सहज ही अंदाजा हो जाता है. जिंदगी को इतना भी प्रिडिक्टेबल नहीं होना चाहिए. अगर ऐसा हो जाएगा तो जिंदगी एक सफर सुहाना नहीं रह जाएगी और उस गीतकार का अपमान हो जाएगा जिसने लिखा था कि यहां कल क्या हो किसने जाना.
आज की पीढ़ी ऐसी जिंदगी पर भरोसा ही नहीं करेगी- कम से कम इस मामले में तो जरूर कि ये उसे पता है कि देश में कब-कब चुनाव हैं या कब-कब नहीं हैं और ये भी कि अगर चुनाव नहीं हैं तो सत्ता को टिकाए रखने के लिए ऐसे बवाल रोज-रोज क्यों होते हैं. आखिर चुनाव जीतकर सत्ता हासिल कर लेने के बाद उसे बचाए रखना भी कम हथकंडों का काम नहीं है. ऐसी जिंदगी रोमांच पैदा नहीं करती. सब यंत्रवत जीने लगते हैं.
अगर वक्त का पहिया थोड़ा पीछे घूमता तो इस तरह की घटनाएं इतने स्पष्ट रूप से लक्ष्यभेदी न होतीं. जो लोग हल्दीराम के यहां हरा रंग और अरबी देखकर पहुंचे थे उन पर गुंडा एक्ट लगता. सड़क पर उन्हें धर दबोचा जाता. हिंसा होती लेकिन राजकीय होती. सड़क पर लोगों को सीधा प्रसारण देखने को मिलता. न्यायालय सरकार को डांटता और तलब करता कि ये चल क्या रहा है. सरकार वादा करती कि अब ऐसा नहीं होगा. और पार्टी संदेश भेजने में लग जाती कि संयम बरतें, किसी अप्रिय घटना में मुब्तिला न हों.
कई बार ऐसी लक्ष्यभेदी घटनाओं का यूं ही दम तोड़ देना अच्छा नहीं लगता. अब कल कोई नया मुद्दा आ जाएगा और हल्दीराम एक भूली दास्तान हो जाएगी. पिछले एक सप्ताह को अगर आंखों में रिवाइंड करें तो हम देखेंगे किअगर वक्त का पहिया थोड़ा पीछे घूमता तो इस तरह की घटनाएं इतने स्पष्ट रूप से लक्ष्यभेदी न होतीं. जो लोग हल्दीराम के यहां हरा रंग और अरबी देखकर पहुंचे थे उन पर गुंडा एक्ट लगता. सड़क पर उन्हें धर दबोचा जाता. हिंसा होती लेकिन राजकीय होती. सड़क पर लोगों को सीधा प्रसारण देखने को मिलता. न्यायालय सरकार को डांटता और तलब करता कि ये चल क्या रहा है. सरकार वादा करती कि अब ऐसा नहीं होगा. और पार्टी संदेश भेजने में लग जाती कि संयम बरतें, किसी अप्रिय घटना में मुब्तिला न हों.
कई बार ऐसी लक्ष्यभेदी घटनाओं का यूं ही दम तोड़ देना अच्छा नहीं लगता. अब कल कोई नया मुद्दा आ जाएगा और हल्दीराम एक भूली दास्तान हो जाएगी. पिछले एक सप्ताह को अगर आंखों में रिवाइंड करें तो हम देखेंगे कि हिजाब से लेकर झटका, हलाल से होते हुए हरे रंग और एक लिपि- जिसे पढ़ा जाना बहुसंख्यकों के लिए उतना ही दुश्वार है जितना अंग्रेजी की रोमन लिपि- तक आ गया है. कोई घटना अंजाम तक न पहुंच सकी.
हां, ये कह सकते हैं कि इतना ही करने कहा गया था. और इतना करने भर से भी कुछ तो टूटा ही है. एक दिन में सब तोड़ दिया जाना भी सत्ता के लिए उचित नहीं है. जब सब कुछ टूट ही जाएगा तो सत्ता का भरम भी तो टूट जाएगा. आखिर तो, सत्ता एक भरम के सिवा और है भी क्या? और एक लिपि- जिसे पढ़ा जाना बहुसंख्यकों के लिए उतना ही दुश्वार है जितना अंग्रेजी की रोमन लिपि- तक आ गया है. कोई घटना अंजाम तक न पहुंच सकी. हां, ये कह सकते हैं कि इतना ही करने कहा गया था. और इतना करने भर से भी कुछ तो टूटा ही है. एक दिन में सब तोड़ दिया जाना भी सत्ता के लिए उचित नहीं है. जब सब कुछ टूट ही जाएगा तो सत्ता का भरम भी तो टूट जाएगा. आखिर तो, सत्ता एक भरम के सिवा और है भी क्या?
(साभार- जनपथ)
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