Opinion

महात्मा गांधी और उनके जैसी ही चाहत रखने वालीं इंद्रा नूई

"एशिया और अफ्रीका में जनसंख्या की जैसी वृद्धि अभी हो रही है, उसका परिणाम यह होगा कि इस दुनिया में प्रोटीन की मांग बेहद बढ़ेगी और उसका परिणाम यह होगा कि हमें ज्यादा-से-ज्यादा जानवरों को पालना होगा. और उसका परिणाम अधिकाधिक वायरसों और महामारियों के रूप में सामने आएगा, क्योंकि वायरसों के लिए जानवरों से मनुष्यों तक पहुंचना आसान होता जाएगा. इन सबके परिणामस्वरूप मौसम में अनेक अनजाने परिवर्तन होंगे. दुनिया में वृद्धों की संख्या बढ़ती जाएगी और इन सबसे पार पाने का रास्ता खोजने में हमारी तकनीकी दुनिया इस रफ्तार से भागेगी कि मनुष्य का दिमाग घूम जाएगा. मानव-जाति के समक्ष ये खतरे मुंह बाए खड़े हैं. 2030-35 के काल में यदि दुनिया की आबादी नौ खरब होगी तो उसमें से सात खरब लोग एशिया व अफ्रीका के होंगे और जब आप एशिया-अफ्रीका के सकल घरेलू उत्पाद से इनकी जनसंख्या का आकलन करेंगे तो आपको वहां भारी असंतुलन मिलेगा. तो खतरा केवल जनसंख्या बढ़ने का नहीं है बल्कि चुनौती यह भी है कि हमारी दुनिया के इन हिस्सों की आय कैसे बढ़े अन्यथा अपार वैश्विक असमानता का खतरा पैदा होगा. आज महिलाएं तेजी से कामकाज में जुटने को तैयार हैं लेकिन हम उन्हें पीछे कर रहे हैं क्योंकि समस्या यह है कि सारी दुनिया में वृद्धों की संख्या बढ़ती जा रही है. यदि महिलाओं को कामकाज से हम जोड़ेंगे नहीं तो इस वृद्ध आबादी की आर्थिक देखरेख असंभव हो जाएगी.

इस स्थिति की भयावहता सोच कर मैं परेशान होती हूं. दो ही रास्ते दिखाई देते हैं: भौगोलिक-राजनीतिक आवाजाही को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा दिया जाए और अकल्पनीय स्तर पर मानवीय कौशल्य को बढ़ाया जाए. भावी की तीन तस्वीरें बनती दिखाई देती है- अंधाधुंध तकनीक विस्तार पर रोकथाम की कोई प्रभावी व्यवस्था, पूंजीवाद का चाहा-अनचाहा एकदम नया चेहरा, और मनुष्य को मनुष्यता की तरफ लौटाने की चुनौती! यह कैसे होगा, मैं नहीं जानती लेकिन मैंने आशा खोई नहीं है क्योंकि जीवन में मेरा जितने लोगों से पाला पड़ा है, उनमें से 85 फीसदी लोगों ने हर तरह से मेरी मदद की है. 15 फीसदी थे जो समस्याएं खड़ी करते रहे. अब मैं उन 15 फीसदी के चश्मे से दुनिया को क्यों देखूं! इसलिए नेतृत्व की कसौटी यह है कि वह हमेशा खतरों का सामना करने में आगे रहे और जो कर सकना संभव है, वह सब करे!"

अब आप यह मत खोजने लगिए कि महात्मा गांधी ने ऐसा कब और कहां कहा था, क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कभी कहा ही नहीं था. फिर भी आप खोजना चाहेंगे तो एक नहीं, अनेक जगहों पर आपको महात्मा गांधी ऐसा ही कुछ बार-बार कहते मिलेंगे. और यदि आप ‘हिंद-स्वराज्य’ देखेंगे तो उस पूरे आख्यान में महात्मा गांधी इन्हीं सारी बातों को अपनी तरह कहते मिलेंगे. लेकिन आपने ऊपर जो पढ़ा वह महात्मा गांधी का कहा या लिखा नहीं है. फिर ऊपर जो बातें लिखी हैं, वह किसने कही हैं? इंद्रा नूई ने!

कभी दुनिया की सबसे प्रभावी, शक्तिशाली महिला कही जाने वाली पेप्सी कंपनी की सीईओ इंद्रा नूई! अभी-अभी एक समाचार-पत्र के साथ आमने-सामने की बातचीत में उन्होंने यह कहा है मतलब बात बिल्कुल ताजा है, और आधुनिक दुनिया की सिरमौर महिला ने कही है, तो वह बात दकियानूसी तो हो नहीं सकती है! क्या इंद्रा नूई को यह अंदाजा है कि उनकी और महात्मा गांधी की बात एक जैसी ही है और वे जिन बातों से चिंतित हैं, महात्मा गांधी भी उनसे ही, उसी तरह चिंतित थे, और दुनिया को बताना चाह रहे थे कि आप जिस रास्ते पर चल रहे हो वह चाहे जितना चमकीला दीखता हो, ले जाएगा उस अंधेरे की तरफ जहां हाथ को हाथ नहीं थाम सकेगा, दिल-दिल की बात नहीं सुन सकेगा?

महात्मा गांधी भी अनियंत्रित जनसंख्या के खतरों से सावधान हैं लेकिन उसके नियंत्रण के लिए वे आत्मसंयम का रास्ता सुझाते हैं. वे तब देख सके थे कि जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर कंपनियां ऐसा वृहद उद्योग खड़ा करेंगी जो व्यक्ति की पूंजी तो लूटेगा ही, मानव समाज को आत्मसम्मानहीन भीड़ में बदल देगा. समाज के लिए खाना जुटाना ही चुनौती नहीं है, उसे एक नैतिक, विवेकशील इकाई में बदलना भी बहुत बड़ी चुनौती है. सत्तावालों को समाज वोट की शक्ल में दिखाई देता है, तानाशाहों को भीड़ की शक्ल में और पूंजीवाद को मजदूर की शक्ल में. इन तीनों के लिए नैतिकता व विकेकशीलता कभी कसौटी होती ही नहीं है. विवेक व नैतिक अधिष्ठान के बिना समाज नहीं बनता, भीड़ बनती है जिसके सर तो अनेक होते हैं लेकिन आंतरिक रेगिस्तान बहुत बड़ा व भयावह होता है. हम ऐसे ही वक्त के सामने खड़े हैं.

इंद्रा नूई को अपने वक्त में जो 85 फीसदी समाज मददगार मिला, वह आज तेजी से सिकुड़ता जा रहा है. अगर वह 15 फीसदी से भी कम बचा तो इंद्रा नूई जैसों के लिए खड़े रहने की जगह नहीं बचेगी. इसलिए गांधी ऐसी जीवन-शैली की बात करते हैं जो कम-से-कम संसाधनों का उपभोग कर चलती हो, और जितना उपभोग करती हो, उसका उत्पादन भी करती हो. एशिया और अफ्रीका के देशों की जनसंख्या व उनके सकल घरेलू उत्पादन के बीच की जिस खाई का खतरा इंद्रा को दिखाई दे रहा है, एक आत्मनिर्भर समाज ही उस खाई को पाट सकता है.

वह खाई रुकेगी तो प्रोटीन की लूट की जरूरत नहीं पड़ेगी, और प्रोटीन की वैसी जरूरत नहीं पड़ेगी तो मांसाहार के लिए कृत्रिम पशु/पक्षी बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. जैसे-जैसे वह जरूरत कम होती जाएगी, वैसे-वैसे नए-नए वायरसों व नई-नई बीमारियों का खतरा कम होता जाएगा. यह तो असंभव ही है कि हम जीवन-शैली तो ज्यों-की-त्यों रखें लेकिन उससे पैदा होने वाली मुसीबतों से बच जाएं! इसलिए इंद्रा नूई के लिए यह समझना कठिन नहीं होना चाहिए कि हम जीवन-शैली बदलेंगे तो मुसीबतों से छुटकारा पाएंगे.

गांधी दुनिया में नागरिकों की आवाजाही पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाने की कल्पना नहीं करते. वे यह जरूर चाहते कि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी रहें कि किसी को अपना घर-समाज छोड़ने की लाचारी न हो लेकिन चाहे पढ़ाई के लिए हो, कमाई के लिए हो, जिसे जहां जाना हो, वहां जाने से किसी को रोका जाए, ऐसा वे नहीं चाहते हैं. वे तो खुद भी पढ़ने व कमाने दूसरे देशों में गए थे.

हां, वे यह जरूर चाहते हैं कि आप जहां रहो, वहां के समाज को अपना समाज मान कर चलो. इसलिए वे दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की लड़ाई को अपनी लड़ाई बना लेते हैं. वे देश का विभाजन तो रोकना चाहते थे लेकिन विभाजन हो गया तो भारत-पाकिस्तान में आबादी की अदला-बदली हो, वे यह नहीं चाहते थे. रहना चाहने वाले मुसलमान भारत में रहें, पाकिस्तान के हिंदू पाकिस्तान में रहें और दोनों देशों की सरकारों का यह नैतिक व वैधानिक दायित्व हो कि उसके सभी नागरिक आजादी व स्वाभिमान से साथ रह सकें, इसका आग्रह वे अंत-अंत तक करते रहे. 30 जनवरी 1948 को तीन गोलियों ने उनका आग्रह समाप्त किया.

इंद्रा नूई जिसे पूंजीवाद का नया चेहरा कहती हैं लेकिन जिसकी कोई तस्वीर उनके पास नहीं है, गांधी उसे ग्रामस्वराज्य कहते हैं और उसका पूरा व पक्का खाका भी देते हैं. वे बार-बार समझाते हैं कि पूंजी पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाला समाज नहीं बनेगा तो मानव-जाति का कल्याण संभव नहीं होगा.

तकनीक को विज्ञान समझने की भूल हम लोगों ने की जबकि गांधी दोनों का स्पष्ट फर्क समझते व समझाते रहे. विज्ञान मानव कल्याण की दिशा बताता है, बल्कि जो यह न बताए, गांधी उसे विज्ञान मानने से इंकार करते हैं. विज्ञान मानव कल्याण की जो दिशा बताता है, तकनीक समाज को उस दिशा में ले जाने का रास्ता खोजती है. आज वह विज्ञान ही कहीं खो गया है (या बिक गया है!) और विज्ञानविहीन तकनीक ने खुदा की जगह ले ली है. इंद्रा जिस अंधाधुंध तकनीक वाले भावी से सशंकित होती हैं, गांधी हमें उससे हमेशा सावधान करते रहे थे.

उनकी बात एकदम सीधी थी: जो समाज अपनी रोटी के लिए पसीना नहीं बहाएगा (ब्रेड लेबर), वह अपने हाल पर जार-जार आंसू बहाएगा और कुछ भी उसके हाथ नहीं आएगा. श्रम शर्मनाक नहीं है, श्रम लाचारी नहीं है, श्रम स्वाभिमान है, श्रम समता का आधार है. जो अक्षम हों उन पर श्रम न लादा जाए (न बालश्रम, न वृद्ध-अक्षम श्रम) यह समाज की सभ्यता का प्रमाण है. मनुष्य को मनुष्यता की तरफ लौटाने का यही स्वर्णिम मार्ग है. यह कठिन मार्ग नहीं है, मजबूत मन का मार्ग है. जो मन से मजबूत नहीं है, वह न नया मन बना सकता है, न नया समाज गढ़ सकता है.

मानव का भावी अंधकारमय इसलिए नहीं है कि महात्मा गांधी और इंद्रा नूई दोनों एक-सी दुनिया की चाहत रखते हैं, और इंद्रा नूई भी कहती हैं कि 85 प्रतिशत लोगों का समाज ही तय करेगा कि हमारा भावी समाज कैसा होगा. यह भी गांधी की ही बात है जिसे इंद्रा अपनी भाषा में कहती हैं.

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)

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