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35 साल पहले भूख के लिए बेटी को बेच देने वाली फनस पुंजी का हाल
यह कहानी 27 जुलाई 1985 की दोपहर की उस बातचीत से शुरू होती है, जिसकी याद के साथ फनस पुंजी आज तक जी रही है. उनकी उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, उस बातचीत की आवाजें उनके कानों में और गूंजने लगती हैं.
अब वह 70 साल की हैं और 37 साल पहले की वह बातचीत उनकी इकलौती स्मृति है. जैसे कि उनके जीवन में उसके अलावा और कोई बात न हुई हो और अगर वह बात न होती तो वह अपनी चिरस्थायी हालत को उस तरह से देखती भी नहीं. जब वह उस बातचीत को याद करती हैं तो अपनी आखें बंद कर लेती हैं और उनका चेहरा सख्त हो जाता है. वह जड़ होकर वह पूरी बातचीत याद करती हैं.
उस दिन, वह उस ‘अजनबी’ के सामने करीब 100 शब्द बोली थीं, जो एक बड़े काफिले के साथ उनसे मिलने आया था. वह और वह ‘अजनबी’ दोनों, एक- दूसरे की भाषा समझ नहीं सकते थे. इसलिए एक दुभाषिये ने शोकगीत की लहर जैसी उस बातचीत को दुनिया के सामने पेश किया.
फनस ने उस ‘अजनबी’ को अपनी स्थानीय भाषा में बताया था, "खाने की खातिर कुछ खरीदने के लिए मुझे अपनी 14 साल की ननद को 40 रुपए में बेचना पड़ा. अगर मैं ऐसा नहीं करती तो भूख से मर जाती." उनकी ननद को खरीदने वाले शख्स ने फनस को एक साड़ी भी भेंट की थी, जो अजनबी से बात करने के दौरान उन्होंने पहन रखी थी.
फनस की दर्द भरी कहानी सुनने के लिए वह अजनबी उड़ीसा, जिसे अब ओडिशा के नाम से जानते हैं, के कालाहांडी जिले के अमलापाली गांव पहुंचा था. यह गांव अब नुआपाडा जिले के अंतर्गत आता है.
वह अजनबी और कोई नहीं, बल्कि उस समय के देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. उनके साथ उनकी पत्नी सोनिया गांधी भी थीं, जिन्होंने फनस की बात सुनने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री जानकी बल्लभ पटनायक से कहा था कि वे देखें कि मिट्टी के बर्तन में बासी पत्तियों जैसी सब्जी से क्या बनाया गया है?
इस पर फनस ने चावल की एक बोरी की ओर इशारा कर बताया था कि इसे एक रात पहले अधिकारी उन्हें देकर गए हैं. उन्होंने यह भी बताया कि वह काफी दिनों के बाद अनाज देख रही हैं. उन्होंने बताया था, "तंगहाली में हम सिरेल खाते हैं और दूसरे से मांगकर चावल के पानी पर कई दिनों तक जिंदा रहते हैं." सिरेल एक जंगली घास है, जिसे लोग अकसर बुरे वक्त के दौरान खाते हैं. सिरेल फनस के घर के पिछवाड़े में उगा भी हुआ था.
कोई और नहीं, बल्कि भारत का प्रधानमंत्री उस रिकार्ड को दर्ज कर रहा था, जिसमें भूख के कारण किसी परिवार को अपने सदस्य को बेचना पड़ा था. उसी साल मार्च में यह खबर फैली थी कि फनस ने एक कम उम्र की लड़की को बेच दिया है.
1984-85 में हुए भयंकर सूखे ने उस जिले को तबाह कर दिया था. खेती चौपट होने के चलते हजारों लोग भुखमरी की कगार पर थे और उनके पास कोई रोजगार भी नहीं था. पूरे जिले में लोग खाने की तलाश में सब कुछ बेच रहे थे, जो उनके पास था, जैसे बर्तन वगैरह.
कई लोगों को जान गंवानी पड़ी, कई लोग खाने की तलाश में अपने घर से निकले और कभी लौटकर नहीं आए. लोगों ने मान लिया कि जो लोग घर छोड़कर गए हैं, उनकी या तो मौत हो गई होगी या फिर वे ऐसी दूसरी जगहों पर रहने चले गए हैं, जहां से लौटकर आना मुश्किल है.
फनस भी उन दिनों खाने के बदले काम की तलाश में आसपास के इलाकों में भटक रही थीं. घर में उनका बेटा और बेटी कई दिनों से बिना खाने के जी रहे थे. उससे एक दशक पहले की बात है, जब उनके पति रहस्यमय तरीके से लापता हो गए थे.
कई लोगों ने कहा कि वह किसी काम की तलाश में कहीं गए होंगे, लेकिन फनस जानती थी कि कई सालों से उनके पति की मानसिक हालत स्थिर नहीं थी. 1971 से 1974 के सूखे के दौर में उन्हें कई बार भूख और बेराजगारी झेलनी पड़ी थी, जिसके चलते उनकी ऐसी हालत हो गई थी.
प्रधानमंत्री के आने की खबर सुनकर कुछ पुलिसवाले और अधिकारी फनस के घर पहुंचे थे और उन्हें कुछ चीजें भी दी थीं. राजीव गांधी ने उनसे पूछा था, "तुमने ननद की बजाय अपने बच्चे को क्यों नहीं बेच दिया." इस पर फनस ने जवाब दिया था, "एक बच्चे को कौन खरीदता." दरअसल उनकी ननद को जिस आदमी ने खरीदा था, उसे कम दिखाई देता था और उसने बाद में उनकी ननद से शादी भी कर ली थी.
इसके बाद आखिर में उन्होंने प्रधानमंत्री से जो कहा, वह कुछ यूं था, "अपने बच्चों को संभालते हुए ननद को भी खिला पाना संभव ही नहीं था, वह भी जब घर में कमाने वाला कोई आदमी भी नहीं था."
भारत की इस भीषण गरीबी से राजीव गांधी का संभवतः यह पहला सामना रहा होगा, जिसके बाद दिल्ली लौटकर उन्होंने वह कहा, जो लोगों की जुबान पर चढ़ गया था- ‘दिल्ली से भेजे जाने वाले एक रुपए में से 15 पैसे भी गरीब तक नहीं पहुंच रहे हैं.’
इस साल फरवरी में फनस ने अपनी कहानी मुझे फिर से सुनाई.
ठीक से याद है वह मुलाकात
फनस अब अपने बेटे, बहू और उनके पोते के साथ उस एक कमरे के घर में रहती हैं, जिसे राज्य सरकार की मदद से 2015 में बनवाया गया था. फनस की अगली दो पीढ़ियां उस बातचीत के बारे में सुनकर बड़ी हुई हैं, जो 1985 में देश के प्रधानमंत्री ने उनसे की थी. जिसके बाद वह देश में गरीबी की रूपक बन गई थीं.
कालाहांडी देश में गरीबी कम करने की दिशा में हो रही प्रगति को मापने का सूचक बन गया था. माना जाने लगा कि अगर फनस की गरीबी दूर नहीं हो रही, तो देश का हर गरीब, अभी भी उसी हालत में है और यदि कालाहांडी में भूख और बदहाली कायम है तो देश का कोई हिस्सा उससे उबरा नहीं है. वह उसी स्थिति में है, जिसमें पहले था.
फनस ने मुझसे कहा, "आप उन हजारों लोगों में से एक हैं, जिन्हें मैंने प्रधानमंत्री के साथ अपनी बातचीत के बारे में बताया है. राजीव गांधी को मार दिया गया था. मुझे उनकी उस यात्रा के बारे में सब कुछ याद है. मेरी हालत आज भी वही है, जो उनसे मिलने के समय थी."
उनकी तरह ही अविभाजित कालाहांडी जिला भी चिरस्थायी गरीबी के दलदल में फंसा है. 1951 के बाद से सभी सरकारों के आकलन में इसकी गिनती देश के सबसे गरीब जिलों में की गई है.
देश के कुछ इलाके हमेशा से गरीब क्यो हैं, इस पर मौलिक शोध करने वाली अर्थशास्त्री आशा कपूर मेहता ने इन इलाकों को चिरस्थायी गरीब कहा है.
इन जिलों को उन्होंने गरीबी के सबसे खराब स्तर में फंसा हुआ बताया है. नुआपाड़ा, पहले के कालाहांडी से बने अन्य जिलों के साथ, अभी भी देश के सबसे गरीब जिलों में शुमार है. केंद्र सरकार के थिंक-टैंक, नीति आयोग के नवीनतम बहुआयामी गरीबी आकलन के मुताबिक, इस जिले का हर तीसरा आदमी गरीब है.
राजीव गांधी के दौरे के एक दशक के बाद और भुखमरी से कई और मौतों के बाद 1996 में भारत सरकार ने कालाहांडी को देश के उन 41 जिलों में से एक घोषित किया था, जो भुखमरी की कगार पर हैं. आज भी उसकी हालत वही है.
मरुस्थलीकरण का फैलना
दरअसल, कालाहांडी की कहानी अच्छे संसाधनों और खराब प्रबंधन की कहानी है. ब्रिटिश यात्रियों के आधिकारिक रिकॉर्ड और रिपोर्टें बताती हैं कि कालाहांडी में पहला भीषण सूखा 1898 में दर्ज किया गया था.
सूखे की बढ़ती आवृत्ति के साथ इसका 125 साल का इतिहास, एक स्थायी और सहभागी पारिस्थितिकी के विनाश का इतिहास है.
19वीं सदी के यात्रियों ने कालाहांडी की धरती को ‘जगलों और पहाड़ियों का समूह' कहा है, जिसके चारों ओर की धरती बंजर हो गई है. 19वीं सदी के अंत में बर्फ और पाला यहां उतने ही सामान्य हो गए थे, जितने कि 21वीं सदी में कैक्टस और रेत.
वनों की कटाई और पारंपरिक टैंक से सिंचाई की व्यवस्था के ढहने के चलते इस क्षेत्र में मरुस्थलीकरण हुआ है. भारत के नवीनतम मरुस्थलीकरण एटलस में, नुआपाड़ा को ऐसे क्षेत्र के रूप में पहचाना गया है, जिसे असिंचित भूमि की ऊपरी मिट्टी और नमी खोने के कारण उच्च भूमि क्षरण का सामना करना पड़ा हैं.
यह क्षरण काफी तेज था और इसका असर पहले ही देखा जा सकता था. 1946 में कालाहांडी की पारंपरिक प्रणालियां यहां की 38,684 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करती थी. 1970 में यह इलाका 80 फीसदी घटकर 8,007 हेक्टेयर रह गया.
आज की तारीख में, ऐसे टैंक मुश्किल से कुछ 100 हेक्टेयर में सिंचाई करते हैं क्योंकि बड़े पैमाने पर सिंचाई परियोजनाओं का वादा किया गया है. ऐसे में कालाहांडी असहाय होकर देखता रह जाता है और सारा पानी बह जाता है. वह भी तब, जब यहां पंजाब की तुलना में अधिक वर्षा होती है- जो औसतन 1,200 मिमी है.
यहां के अधिकांश लोगों के लिए जंगल और खेती, आजीविका के दो मुख्य स्रोत थे. ये दोनों ऐसे स्रोत हैं, जिनसे ज्यादा लाभ नहीं होता है. भरण-पोषण के लिए यहां के लोगों को कुछ मौसमों में पलायन भी करना पड़ता है. खेती से होने वाली कम आमदनी के कारण ऐसे लोगों की तादाद में बढ़ोत्तरी देखी गई है.
2020 में जब केंद्र सरकार ने कोविड-19 के चलते लॉकडाउन लगाया था तो जिले के आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, 70,000 से ज्यादा असंगठित मजदूर इस जिले में लौटे थे. जिले की दीर्घजीवी गरीबी की वजहों पर शोध करने वाले यहां के खरियार कॉलेज के रिटायर्ड प्राचार्य फनिंदम देव के मुताबिक हर साल जिले से 80, 000 से लेकर एक लाख लोग आजीविका के लिए पलायन करते हैं.
फनस की जिंदगी को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजित पांडा के मुताबिक, "जमीन का एक छोटा टुकड़ा आखिर कितने लोगों को रोजी दे सकता है. संकट के समय में, यह रास्ता बंधुआ मजदूरी की ओर जाता है. जिले में कई लोग उसके दुष्चक्र में फंस जाते हैं, उनमें फनस और उसका बेटा भी शामिल हैं."
2020 में प्रकाशित नुआपाड़ा डिस्ट्रिक्ट हैंडबुक, 2011 की जनगणना के आंकड़ों को पेश करती है, जिसमें जिले के रोजगार संकट के बारे में बताया गया है. 2011 में, जिले में किसानों की तुलना में ज्यादा कृषि-मजदूर थे. यहां के कुल 30 हजार मजदूरों में 9,400 किसान थे, जबकि 14,000 कृषि-मजदूर थे. खरिहार विकास खंड में किसानों की तुलना में दोगुने कृषि-मजदूर थे. इसी खंड में फनस का गांव आता है.
राजीव गांधी जब फनस के गांव में आए थे, तब फनिंदम देव करीब के गांव में रहते थे. प्रधानमंत्री के दौरे के बाद उन्होंने फनस के जीवन पर नजर रखी और पाया कि पूरे जिले की कहानी एक सी है.
वह आगे कहते हैं, "कुछ लोगों तक कल्याणकारी कार्यक्रम पहुंचने से जिले का संकट कम हुआ है लेकिन यह वास्तविक विकास नहीं है. पलायन जहां पहले एक संकट-काल की प्रतिक्रिया थी, वहीं अब यह एक स्थापित आजीविका स्रोत बन गया है. अगर सूखे के चलते पहले फनस को काम की तलाश में निकलना पड़ रहा था, तो आज भी उन्हें और उनके परिवार को ऐसा ही करना पड़ रहा है. जिले में हजारों लोग ऐसा करते हैं."
हमेशा से खतरे में रही जिंदगी
फनस, गरीबी के जाल में ठीक उसी तरह से फंसी, जिस तरह से कालाहांडी फंसता गया. पहले इलाके का पारिस्थितिक क्षरण हुआ, जिसकी परिणति एक के बाद एक पड़ने वाले सूखे के रूप में हुई. अंततः इसके चलते आजीविका के पारंपरिक स्रोत खत्म होते चले गए.
फनस के पास करीब तीन एकड़ जमीन थी, लेकिन उन्हें याद नहीं आता कि उनके पति ने कभी खेती की हो, क्योंकि सूखे के चलते ऐसा कर पाना मुमकिन ही नहीं था. वह कहती हैं, "मुझे याद है कि चावल के बदले मुझे सालों तक काम करना पड़ता था." प्रधानमंत्री के दौरे के एक दशक के बाद, 1995 में, सरकार ने उन्हें पास की आंगनबाड़ी में एक रसोइए की संविदा नौकरी दी. वह फिलहाल मासिक मानदेय के रूप में 3,500 रुपए कमाती हैं.
1990 तक, उनका बेटे जगबंधु पुंजी ने जो उस समय 15 साल का था - पहले अपनी मां के साथ आस-पास के गांवों में और फिर छत्तीसगढ़ में पलायन करना शुरू कर दिया. उनकी दो बेटियों ने भी उनका साथ देने के लिए खेत-मजदूर के रूप में काम किया. महीनों तक वे गांव से बाहर रहे.
पड़ोसी जिले बलांगिर के भालुमुंडा गांव में जगबंधु को 30 रुपए महीने पर काम करना पड़ता था. अजित पांडा कहते हैं कि जगबंधु बंधुआ मजदूर के रूप में काम करता था. यह एक अंतहीन कहानी थी, जिसमें फनस और उसके परिवार को खाना जुटाने के लिए हर रोज काम करना पड़ता था. किसी इमरजेंसी के आने पर उन्हें निजी स्रोतों से कर्ज लेना पड़ता था, जिससे वे कर्ज के जाल में फंस जाते थे.
तीन पीढ़ियों में, फनस गरीबी की खाई में फिसलती गई हैं. उनके बेटे और पोते पहले से ही कर्ज के जाल में फंस चुके हैं. यह जाल सालों पहले तब बिछाया गया था, जब जगबंधु को खेती से लगाव था. उनके पास अकेली संपत्ति वह जमीन है, जहां अभी वे रहते हैं. उन्हें डर है कि कहीं इसे भी उन्हें खोना न पड़े.
जगबंधु ने 2004 में पलायन का रास्ता छोड़ दिया और फैसला किया कि वह अपनी तीन एकड़ की जमीन में खेती करेंगे. वह कहते हैं, "जब मैं छत्तीसगढ़ में बंधुआ मजदूर था, तब मैंने खेती के बारे में सीखा था." वह जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर होने से मुक्त होने की भावना को याद करते हुए कहते हैं, "मेरी मां के वेतन ने हमें सुरक्षा का कुछ एहसास दिया. सरकार से हमें जो सस्ता चावल मिलता है, उससे हमें कुछ दिनों के लिए भोजन मिलता है. वैसे भी, खेती का फैसला सिर्फ एक और जोखिम था, जिसे हम भूख के चलते पहले से उठाते आ रहे थे."
शुरुआत में उन्होंने खुद के उपभोग के लिए धान और बेचने के लिए सब्जियां लीं. हालांकि बार-बार के सूखे और मरुस्थलीकरण ने लाभदायक कमाई को उनके लिए असंभव बना दिया. एक सरकारी योजना के तहत उन्होंने अपनी जमीन पर एक कुआं खोदा लेकिन कुछ ही महीनों में वह सूख गया. वह बताते हैं, "मेरे लिए निवेश की लागत वहन करना भी मुश्किल होता गया. आखिरकार, मुझे फिर से दिहाड़ी मजदूर का काम करने के लिए बाहर जाना पड़ा"
(साभार- डाउन टू अर्थ)
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