Film Laundry
साहिर लुधियानवी: “वह उधार बाकी रह गया”
एक मौके पर सैयद अहमद खान ने कहा था, “अगर खुदा ने मुझसे पूछा कि दुनिया में तुमने क्या काम किया तो मैं जवाब दूंगा कि मैंने ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली से 'मुसद्दस ए हाली' लिखवाई. उसी तरह से मैं कह सकता हूं कि अगर एक तहरीर मैंने लिखी जो ऐतिहासिक तौर से प्रभावी साबित हुई तो वह एक 'खुली चिट्ठी' थी जो मैंने 1948 में साहिर लुधियानवी के नाम लिखी थी. साहिर उस वक्त पाकिस्तान चले गए थे. यह खुला खत साहिर लुधियानवी के नाम था मगर इसके जरिए मैं उन सब तरक्कीपसंदों को आवाज दे रहा था जो फसादात के दौरान यहां से हिजरत कर गए थे.
तीन महीने बाद में हैरान रह गया जब मैंने साहिर लुधियानवी को मुंबई में देखा. उस वक्त तक मैं साहिर से निजी तौर से ज्यादा वाकिफ न था. लेकिन उनकी नज्मों (खासतौर से ताजमहल) का मैं कायल था. इसीलिए मैंने वह खुली चिट्ठी साहिर के नाम लिखी थी. जब साहिर को मैंने मुंबई में देखा तो मैंने कहा, “आप तो पाकिस्तान चले गए थे?” साहिर ने जवाब दिया, “चला तो गया था. आपने बुलाया, सो वापस आ गया.”
उन्होंने बाद में विस्तार से बताया कि जब मेरा 'खत' उन्होंने अखबारों में पढ़ा तो वह दुविधा में थे. 50 फीसद हिंदुस्तान आने के हक में 50 फीसद पाकिस्तान में रहने के हक में. मगर मेरी 'खुली चिट्ठी' ने हिंदुस्तान का पलड़ा भारी कर दिया, और वे हिंदुस्तान वापस आ गए, और ऐसे आए कि फिर कभी पाकिस्तान न गए. हालांकि वहां भी उनके चाहने वालों और उनकी शायरी को पसंद करने वालों की कमी नहीं. उस वक्त से एक तरह की जिम्मेदारी साहिर को हिंदुस्तान बुलाने के बाद मेरे कंधों पर आ पड़ी.
फिल्मी दुनिया में इंदर राज आनंद ने उन्हें अपनी कहानी 'नौजवान' के गाने लिखने के लिए कारदार साहब और डायरेक्टर महेश कौल साहब से मिलवाया. पहली फिल्म में साहिर ने साहित्यिक शायरी के झंडे फिल्म के मैदान में गाड़ दिए. उस दिन से मरते दम तक साहिर ने अपनी राह न बदली ना छोड़ी. जो भी लिखा वह एक शायर के जज्बात और एहसासात की नुमाइंदगी करता था. कभी उन्होंने अपनी कला का स्तर गिरने न दिया.
बला की लोकप्रियता मिली साहिर को. उर्दू जबान की कोमलता, मिठास, सौंदर्य और प्रभाव का भी दखल था और इस जबान के कारण से संवेदनशील और नाजुक मिजाज और रंगीले शायर की सृजन कला का भी दखल था जो इस जबान का आशिक भी था माशूक भी. सच्चा आशिक इस लिहाज से कि वह इस जबान पर रीझे हुए थे. न सिर्फ उन्होंने अपनी कई फिल्मों को उर्दू सेंसर सर्टिफिकेट दिलवाए बल्कि उर्दू के लिए बहुत से दुख झेलने के लिए और कुर्बानियां देने के लिए लड़ते रहे. माशूका या प्रियतम इन मायनों में कि इस जबान में जितनी छूट साहिर को दे रखी थी उतनी किसी शायर को कभी नहीं दी.
साहिर ने जितने तजर्बे शायरी में किए हैं उतने दूसरों ने कम ही किए होंगे. उन्होंने सियासी शायरी की है, रूमानी शायरी की है, मनोवैज्ञानिक शायरी की है, जिसमें किसानों और मजदूरों की बगावत का ऐलान है. ऐसी भी शायरी की है जो रचनाशीलता के स्तर पर पैगंबरी की सरहदों को छू गई है और ऐसी शायरी भी की है, जिसमें मिजाज के रंगीनी और चंचलता झलकती है और शायरी कि ये सब विधाएं उनके फिल्मी गानों में मिलती हैं.
फिल्मी शायरी को एक साहित्यिक स्तर सबसे पहले साहिर ने ही दिया. बाद में और बहुत शायरों ने भी इनकी पैरवी की. मगर इस जुर्रत का सेहरा साहिर के ही सर है कि उन्होंने फिल्म देखने वालों के जौक यानी पसंद को न सिर्फ ऊंचा उठाया, बल्कि सच्चे शायर की तरह कभी आवामी पसंद को घटिया न समझा. वरना 'मैं पल दो पल का शायर हूं' और 'जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए' जैसे गीत फिल्मों के लिए कैसे लिखे जाते और कैसे लोकप्रियता हासिल करते?
साहिर 'जादूगर' को कहते हैं, इसलिए जब लुधियाना के अब्दुल हई ने 'साहिर' तखल्लुस अपनाया तो वाकई जादू जगा दिया. उनके यहां साहिरी और शायरी एक दूसरे के विकल्प थे. दोनों एक ही हस्ती के दो भिन्न रूप थे. मैंने साहिर का जादू लोगों के सर पर चढ़कर बोलते हुए देखा है.
शायद 20 वर्ष हुए हम लोग मरहूम सज्जाद जहीर के नेतृत्व में शायरों और अदीबों का एक गिरोह लेकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश गए थे. इलाहाबाद के कन्या विद्यालय में सब लड़कियां हिंदी जानने वाली थीं और हमारा ख्याल था कि उर्दू शायरी की समझ बूझ उनमें कहां होगी. इसलिए सबसे पहले हमने साहिर को पढ़ने के लिए खड़ा किया.
साहिर ने वहां कोई आसान गीत नहीं सुनाया बल्कि उर्दू शायरी के बेहतरीन नमूने ही सुना कर महिला श्रोताओं का दिल जीत लिया. फरमाइश हुई ताजमहल सुनाइए तो साहिर ने 'मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे' से शुरू किया और जब 'एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक' पर खत्म किया तो सारा हॉल तालियों से गूंज रहा था. उस दिन मुझे मानना पड़ा कि साहिर की शायरी वाकई साहिरी (जादूगरी) के दर्जे तक पहुंच गई है.
साहिर को एक जुनून था या इसे इनका ऑब्सेशन समझिए कि वह शायरों के दर्जे को फिल्मी दुनिया के तिजारती माहौल में बेहतर और बरतर बनाना चाहते थे. उनसे पहले फिल्मी शायर कितना भी बड़ा हो उसका नाम न तो पब्लिसिटी में आता था न रेडियो पर, जब उसके गाने बजते थे तो उसके साथ उसका नाम भी नहीं लिया जाता था. गीतों की कीमत भी माकूल नहीं मिलती थी, बल्कि अक्सर हालात में मिलती ही नहीं थी.
साहिर ने देखा सुना कि म्यूजिक डायरेक्टरों और प्लेबैक सिंगरों का हर कोई जिक्र करता है लेकिन जिसने गीत के अल्फाज लिखे उसका कोई नाम नहीं लेता, और न ही दर्शक उसके नाम से वाकिफ हैं. यह बात साहिर को न सिर्फ खलती थी बल्कि वह इसको शायरों और शायरी की अवमानना समझते थे. इसलिए जब फिल्म राइटर्स एसोसिएशन का उसको वाइस प्रेसिडेंट चुना गया मैं उस साल प्रेसिडेंट था तो उसने शर्त रखी कि हम दोनों मिलकर शायरों को उनका हक दिलवाने की जद्दोजहद करेंगे. सबसे पहले इस जद्दोजहद के लिए हमने रेडियो का मैदान चुना.
रेडियो के डायरेक्टर जनरल से मैं और साहिर मिलने के लिए दिल्ली गए. वहां जाकर उनसे कहा कि आप हर गाने के साथ उसके प्लेबैक सिंगर का नाम अनाउंस करते हैं, मौसीकार का नाम अनाउंस होता है लेकिन शायर को ही क्यों नजरअंदाज किया जाता है? वे बोले कि बात यह है कि हमारे पास वक्त कम होता है इसलिए शायर का नाम नहीं दे सकते. इस पर साहिर ने उनसे कहा कि हर रिकॉर्ड के साथ फरमाइश करने वालों के नाम कई मिनट तक सुनाए जाते हैं तो उसमें वक्त जाया नहीं होता?
यहां पर डायरेक्टर जनरल भी कायल हो गए और चंद रोज बाद उन्होंने हिदायत दे दी कि हर गीत के साथ उसके शायर का नाम भी ब्रॉडकास्ट होना चाहिए. यह काम इतना बड़ा था कि साहिर को अगले साल ही फिल्म राइटर एसोसिएशन का प्रेसिडेंट चुन लिया गया. अब हर गाने के साथ शायर का नाम आता है. यह कोई कम कामयाबी नहीं है. मगर साहिर तो हमेशा शायरों और अदीबों के अधिकारों की हिफाजत के लिए जद्दोजहद करते रहे, चाहे जंग सरकार से हो या प्रोड्यूसरों से.
साहिर की निजी कामयाबी इतनी बढ़ी कि उसे हर चीज खुद अपने लिए हासिल हो सकती थी. अगर वो चाहता तो अपना नाम रेडियो पर भी ले आता. फिल्म पब्लिसिटी में भी उसका नाम प्रोड्यूसर खुद देना चाहते थे. लेकिन साहिर की सामाजिक चेतना इस निजी सफलता को कोई सफलता नहीं समझती थी. उसे वर्ग संघर्ष की मार्क्सवादी समझ थी और इसी लिहाज से वह दिमाग भी काम करने वालों (ब्रेन वर्कर्स) के हुकूक चाहता था और जब तक सब शायरों और अदीबों के हुकूक की गारंटी न मिल जाए वह चैन से बैठने वाला नहीं था. वैसे साहिर हर मायने में एक इंसान था जो इंसान से मोहब्बत करता था. इंसान की इज्जत करता था और इंसान की सब अच्छाइयां और कमजोरियां उसके अंदर मौजूद थीं.
'दोस्त' इंसान का बेहतरीन रूप होता है. साहिर वाकई 'दोस्त' था. दोस्तों का दोस्त. जब एक टैक्सी एक्सीडेंट में मेरी पसलियां टूट गईं, बाद में प्लास्टर चढ़ाया गया. मगर मैं यह नहीं भूल सकता कि साहिर ने इस चोट और बीमारी में बराबर मेरा साथ दिया. बात कार में ले जाने की नहीं है. टैक्सी में भी जा सकता था. लेकिन बात ये है कि 'दोस्ती आं बाशद के गिरद दस्ते-दोस्त दर परीशां हाली-ओ-दरमांदगी'. दर्जनों ऐसे वाकियात साहिर का हर दोस्त बयान कर सकता है. हमने बिहार यूपी के दौरे के सिलसिले में कोई 2000 किलोमीटर एक ही कार में सफर किया. कार साहिर की थी मगर मजाल है कि किसी मौके पर साहिर ने यह जाहिर किया हो कि कार उसकी है. ड्राइवर उसका है. पेट्रोल भी उसका है और हम सिर्फ उसके हमसफर हैं.
साहिर से एक ही शिकायत थी मुझे. जब कभी वह अपने घर खाने को बुलाता तो सबको खाना खिला कर आखिर मैं खुद खाता. मुझे एक बार उस पर बड़ा गुस्सा आया. मैं खाना खाए बगैर वहां से चला आया. क्योंकि मेरा ख्याल था कि साहिर साहब सबसे आखिर में खाना खाएंगे. अगले दिन साहिर साहब खुद मेरे यहां आए. दोपहर के खाने से कुछ पहले. कहा, “आप रात को बिना खाए चले आए मगर शिकायत न की.” मैंने कहा- सच है, हम तो आपके साथ खाना खाने गए थे. जब आप ही दस्तख़्वान पर नहीं थे तो हम वहां खाना क्यों खाते? कहने लगे 'आपने जो किया अच्छा किया, “मैंने भी रात से खाना नहीं खाया.”
क्यों? मैंने अचरज से पूछा, “आपने खाना क्यों नहीं खाया?”
मैं कैसे खा सकता हूं? “जब मेरा एक दोस्त अजीज साथी भूखा उठ आया हो. खैर मकसद तो मिलकर साथ खाना खाने गए थे. मेरे यहां नहीं तो आपके यहां ही सही.”
मतलब?
“मतलब यह कि अब आपके यहां खाना खाने आया हूं, बगैर इत्तला के खाना खिलाएंगे आप?”
जरूर खिलाऊंगा.
मैंने खाना मंगवाया जो भी रूखी-सूखी दाल-रोटी हाजिर थी, उसको हम दोनों भूखों ने निहायत इश्तिहा से खाया.
रात को आपके यहां दो किस्म का पुलाव और बिरयानी थी. कोफ्ते थे. शामी कबाब थे. मुर्ग- मुसल्लम था. पराठे थे, शीरीनी और दो किस्म के हलवे थे. इस वक्त मेज पर आपके सामने उबली हुई गोभी और मसूर की दाल रखी हुई है.
खाना सिर्फ खाना होता है. वह सब दिखावटी था कि लोग यह न शिकायत करें कि एक शायर खाना नहीं खिला सकता. खाना तो इसी को कहते हैं. तीन रोटियां, गोभी और दाल साहिर ने खाई. तीन रोटियां मैंने खा लीं. बाद में साहिर साहब ने उठकर हाथ धोए, फिर मुझसे रुखसत होते हुए बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया. मैंने कहा, “क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं मुझे.”
शर्मिंदगी मिटाने तो मैं आया था आपके यहां.
शर्मिंदगी तो मुझे है कि आपको कुछ मीठा नहीं खिलाया. मीठा आप पर उधार रहा.
मगर जाने वाला चला गया. अब वह उधार कैसे अदा किया जाएगा.
(अनुवाद:मोहम्मद नौशाद)
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