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'पक्ष'कारिता: रूस-यूक्रेन प्रकरण में हिंदी अखबारों के युद्ध-विरोध को कैसे देखें

इस स्‍तंभ के 1 सितंबर वाले अंक में मैंने लिखा था कि ''या तो हिंदी के अखबार नजूमी हो गए हैं जो आने वाले वक्‍त की नब्‍ज पकड़ लेते हैं या फिर कोई पुराना गुप्‍तरोग है जो रहे-रहे बाहर आ जाता है- आन, बान, शान, पाकिस्‍तान, तालिबान के नाम पर.'' तालिबान के बहाने बीते एक साल में हिंदी के अखबारों के संपादकीय पन्‍नों पर राष्‍ट्रीय सुरक्षा व सामरिक तैयारियों को लेकर जिस किस्‍म की राष्‍ट्रवादी चिंताओं का उभार हुआ है, उसका उजला पक्ष पहली बार बीते पखवाड़े देखने को मिला.

यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले ही हिंदी के अखबारों में इस आसन्‍न युद्ध को लेकर चिंताएं जताई जाने लगीं. जाहिर है, इन चिंताओं के केंद्र में हमेशा की तरह भारत के हित मौजूद थे, लेकिन मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि अपने-अपने लिए सभी अखबारों ने अपनी संपादकीय टिप्‍पणी में यु‍द्ध का विरोध ही किया. साथ ही ऐसे टिप्‍पणीकारों को छापा जिनका स्‍वर भी अधिकांशत: युद्ध-विरोधी ही था.

रूस ने यूक्रेन पर पहला सैन्‍य आक्रमण 24 फरवरी को किया था. हिंदी के अखबार दो दिन पहले से ही इसकी आशंका जताते हुए लिख रहे थे. 22 फरवरी से लेकर 3 मार्च 2022 के बीच यानी 10 दिनों के भीतर हिंदी के अखबारों में उत्‍तर प्रदेश चुनाव पर यह अंतरराष्‍ट्रीय घटनाक्रम भारी पड़ गया. इन 10 दिनों के दौरान मैंने करीब दर्जन भर हिंदी के अखबारों के संपादकीय और वैचारिक पन्‍नों का एक अध्‍ययन किया. संपादकीय टिप्‍पणियों और वैचारिक लेखों को मिलाकर 135 आलेख रूस-यूक्रेन युद्ध पर केंद्रित मिले. इनके अलावा रूस-यूक्रेन के बहाने अलग-अलग मसलों जैसे बेरोजगारी, डॉक्‍टरी की पढ़ाई, सामरिक आत्‍मनिर्भरता, क्‍वाड सम्‍मेलन, हथियारों के बाजार आदि पर जो लेख प्रकाशित हुए, उनकी संख्‍या अलग है और ठीक ठाक है.

प्रमुख रूप से जिन अखबारों का विश्‍लेषण किया गया उनमें दैनिक जागरण, दैनिक भास्‍कर, राजस्‍थान पत्रिका, हिंदुस्‍तान, नवभारत टाइम्‍स, जनसत्‍ता, पायनियर हिंदी, बिजनेस स्‍टैंडर्ड हिंदी, अमर उजाला और हैदराबाद से छपने वाला स्‍वतंत्र वार्ता शामिल हैं. इनके अलावा दो-तीन क्षेत्रीय हिंदी अखबारों पर भी गाहे-बगाहे नजर रखी गई. ऊपर दी हुई तालिका में स्‍वतंत्र वार्ता को अलग से नहीं, अन्‍य में ही गिना गया है.

संपादकीय और ओप-एड पन्‍नों की अपेक्षाकृत ज्‍यादा संख्‍या और स्‍पेस के चलते दैनिक जागरण ने इन 10 दिनों में सबसे ज्‍यादा नौ संपादकीय टिप्‍पणियां यूक्रेन-रूस पर प्रकाशित कीं और 19 लेख छापे. जनसत्‍ता, अमर उजाला और हिंदुस्‍तान ने इस विषय पर 10 दिनों में छह संपादकीय टिप्‍पणियां प्रकाशित की हैं जबकि नवभारत टाइम्‍स ने पांच और भास्‍कर, पत्रिका आदि ने तीन-तीन. विचार के पन्‍नों पर युद्ध की कुल कवरेज के हिसाब से देखें तो जागरण के बाद अमर उजाला, हिंदुस्‍तान और भास्‍कर का नंबर आता है.

छापा बहुत, कहा क्‍या?

इतना कुछ छापा तो बेशक, लेकिन क्‍या कहा? रूस और यूक्रेन के तनाव पर अखबारों ने अपने पाठकों को क्‍या सिखाया? यहां पर आकर मामला थोड़ा फिसलन भरा हो जाता है क्‍योंकि हिंदी में लिखने वाले अंतरराष्‍ट्रीय मामलों के जानकारों की संख्‍या जितनी कम है, उतनी ही ज्‍यादा है. कोई भी आजकल विकिपीडिया पढ़कर और गूगल कर के कहीं के बारे में भी लिख सकता है. इस लिहाज से वे अखबार सेफ जोन में रहे जिन्‍होंने विदेशी लेखकों और पत्रकारों का लिखा अनुवाद कर के छापा. हिंदुस्‍तान, उजाला, पत्रिका और भास्‍कर ऐसा पहले से भी करते आए हैं. अंतरराष्‍ट्रीय मामलों पर लिखने के लिए तजुर्बा और जानकारी कितनी ज़रूरी है, इसे 24 फरवरी को भास्‍कर में छपे डॉ. वेदप्रताप वैदिक के लेख से समझा जा सकता है. उन्‍होंने रूस-यूक्रेन संकट के संदर्भ में भारत के अपेक्षित रवैये के बारे में उस दिन जो लिखा था, वैसा ही हमने अब तक घटते देखा है.

यही वह केंद्रीय बिंदु है जिस पर बाकी लेखों और संपादकीय टिप्‍पणियों को कसा जा सकता है. यदि आप ध्‍यान से इधर बीच अखबारों में छपे भारतीय टिप्‍पणीकारों को पढ़ें, तो उनके लिखे में यह उहापोह पाएंगे कि संकट की इस घड़ी में भारत क्‍या करे. यह समस्‍या केवल हिंदी के टिप्‍पणीकारों में नहीं है, अंग्रेजी के कद्दावर लेखकों में भी समान रूप से ऐसी चिंताएं पाई गई हैं. मसलन, दि प्रिंट पर प्रवीण स्‍वामी का विश्‍लेषण पढ़ें. दैनिक जागरण में (24 फरवरी) ऑब्‍जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के हर्ष पंत इस बात से चिंतित हैं कि भारत को यदि दोनों पक्षों (अमेरिका और रूस) में से किसी एक का विकल्‍प चुनना पड़ा तो क्‍या होगा. यही चिंता विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक अरविंद गुप्‍ता की भी है (हिंदुस्‍तान, 23 फरवरी). हिंदी अखबारों की दरिद्रता देखिए कि हर्ष पंत जागरण में जो लेख 24 फरवरी को लिखते हैं, उसी लेख को नवभारत टाइम्‍स में 2 मार्च को दोहरा देते हैं. भला हो नवभारत टाइम्‍स के संपादक का जो हिंदी के अखबार नहीं पढ़ता और छपा हुआ माल हफ्ते भर बाद छाप देता है!

भारत द्वारा दो में से एक को चुनने सरीखी चिंताओं के पीछे समान आशंका यह काम कर रही है कि इस संकट ने रूस और चीन को ज्‍यादा करीब ला दिया है (संजय खाती, नवभारत टाइम्‍स, 25 फरवरी) और क्‍वाड (ऑस्‍ट्रेलिया, जापान, भारत और अमेरिका) के गठन के बाद रूस का भारत पर अविश्‍वास बढ़ा है.

इन तमाम लेखों को पढ़कर एक सामान्‍य पाठक को बस इतना ही समझ आएगा कि भारत सरकार को ऐसी परिस्थिति में क्‍या करना चाहिए, यह न तो सरकार चलाने वालों को पता है और न ही टिप्‍पणी करने वालों को. इसका मतलब यह है कि हिंदी के अखबारों का युद्ध-विरोध वास्‍तविक नहीं है बल्कि राजनीतिक उहापोह में उनकी राष्‍ट्रवादी मंशाओं की पैदाइश है.

इस संदर्भ में एक दिलचस्‍प लेख अमर उजाला ने 25 फरवरी को पाकिस्‍तानी पत्रकार मरिआना बाबर का छापा है. इस लेख में इमरान खान की मास्‍को यात्रा का प्रसंग हटा दें और पाकिस्‍तान की जगह भारत लिख दें तो पूरा का पूरा लेख भारत के लिए सही लिखा जान पड़ेगा.

कैसी विडंबना है कि रूस-यूक्रेन को लेकर भारत और पाकिस्‍तान दोनों पड़ोसी एक जैसे द्वंद्व की स्थिति में हैं और दोनों के कारण भी कमोबेश एक जैसे ही हैं. अगर दोनों के कूटनीतिक और राजनयिक इतिहास के आईने में आज पैदा हुए द्वंद्व की पड़ताल कोई करे, तो दिलचस्‍प साम्‍य बरामद हो सकते हैं. ऐसे किसी लेख का अब भी मुझे इंतजार है. बहरहाल, अब तक 10 दिन में जितना कुछ हिंदी अखबारों ने छापा है, उसमें कहीं से यह कहानी समझ में नहीं आती कि भारत आज जिस उहापोह में है वह क्‍यों है. इसे समझाने की कोशिश भी किसी ने नहीं की है. शायद यही वजह है कि लेखकों का यह द्वंद्व युद्ध-विरोध के रूप में सामने आया है, चूकि युद्ध की सूरत का प्रोजेक्‍शन करने पर कोई फैसला तो देना ही होता और ऐसा करने की स्थिति में फिलहाल कोई नहीं है.

अमर उजाला का सुंदर 'अभियान'

जब राजनीति न समझ आए तो सबसे अच्‍छा तरीका होता है साहित्‍य की ओर मुड़ जाना. साहित्‍य सार्वभौमिक मूल्‍यों के प्रसार का एक आसान माध्‍यम होता है और युद्ध के काल में युद्ध का विरोध एक ऐसा ही मूल्‍य है. हमारे इतिहास में युद्ध-विरोधी साहित्‍य की भरमार है. अमर उजाला ने रविवार 27 फरवरी को ऐसा ही किया. दो पन्‍ने रूस-यूक्रेन को समर्पित कर दिए. एक पन्‍ने पर थॉमस फ्रीडमैन, राम गुहा, ओलिविया ड्यूरंड और केएस तोमर के चार लेख छापे. दूसरे पन्‍ने 'अभियान' पर बाकायदे युद्ध-विरोधी अभियान की मुद्रा में पाठकों के पत्र, युद्ध पर कविता, पहले विश्‍व युद्ध का एक प्रेम प्रसंग और दो विदेशी कवियों को छापा है.

इस पन्‍ने को देखा जाना चाहिए. हिंदी के अखबारों में ऐसे आयोजन अब विरल हो चले हैं.

रूस-यूक्रेन की आड़ में चमकते हथियार

दैनिक जागरण युद्ध में भी खुराफात से नहीं मानता. एक तो वहां जाने कौन सी संपादकीय नीति है कि वे जरूरी मसलों पर अंग्रेजी के लेखकों को अनुवाद कर के नहीं छापते, भले अपने मालिक को छापना पड़ जाए. दूसरे, युद्ध जैसे संवेदनशील मामले के बहाने अपने हथियार तेज करने की उनकी दबी-छुपी ख्‍वाहिश सामने आ जाती है.

अव्‍वल तो इस अखबार के मालिक संजय गुप्‍ता ने संपादकीय पेज पर अग्रलेख में (27 फरवरी को) वही सब लिखा जो पिछले चार दिन से उनके यहां छप रहा था. दूसरे, उन्‍होंने यह लिखकर थोड़ा ज्‍यादा ही छूट ले ली कि ''दोनों महाशक्तियां भारत को अपने पक्ष में करना चाह रही हैं''. सन 1966 से लेकर आज तक भारत की कूटनीति रूस और अमेरिका के संदर्भ में परस्‍पर संतुलन की ही रही है. जिस दौर में भारत रूस से हथियार खरीद रहा था उस दौर में अमेरिका से ऑटोमोबाइल भी खरीद रहा था. राजनय में 'हेजिंग' नाम की एक चीज़ होती है, जिससे संजय गुप्‍ता पूरी तरह गाफिल हैं.

बहरहाल, रूस-उक्रेन संकट के बहाने एक और राग जो जमकर जागरण सहित दूसरे अखबारों में चला है वह 'आत्‍मनिर्भरता' का है. परमाणु निषेध वाले घिसे-पिटे सिद्धांत के सहारे अब उक्रेन को उलाहना दी जा रही है कि उसने क्‍यों अपने परमाणु हथियार संधि के हवाले कर दिए. शेखर गुप्‍ता बाकायदे इस बात की खुशी जाहिर कर रहे हैं कि अच्‍छा हुआ भारत ने ऐसा नहीं किया. ऊपर से दिखने वाला युद्ध-विरोधी कैसे अपने भीतर युद्ध की संभावनाओं को पुष्‍ट करता है, उसका बेहतरीन उदाहरण शेखर गुप्‍ता का यह लेख है (बिज़नेस स्‍टैंडर्ड, 28 फरवरी). यही लेख दैनिक भास्‍कर ने 1 मार्च को छापा है (मुस्‍कराने वाले बुद्ध यूक्रेन पर क्‍या करते?).

यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों के बहाने जागरण के संपादक राजीव सचान ने 2 मार्च के अपने लेख में राहुल गांधी को बेजा घसीट लिया है. लगता है सचान कायदे से अपनी बात नहीं रख पाए थे इसलिए ठीक अगले ही दिन प्रदीप सिंह का एक लेख जागरण ने छापा जिसमें उन लोगों को गरियाया गया है जो यूक्रेन से सहानुभूति रखते हैं.

प्रदीप सिंह पुराने पत्रकार हैं लेकिन पिछले कुछ साल से निरंतर दक्षिणावर्त हैं. बड़े दिलचस्‍प तरीके से उन्‍होंने अपने लेख में लिखा है कि ''यूक्रेन संकट के बीच देश में एक संवैधानिक संकट खड़ा करने का भी अभियान चल रहा है''. इस ''संवैधानिक संकट'' के वाहकों में वे ममता बनर्जी, एमके स्‍टालिन, उद्धव ठाकरे, चंद्रशेखर राव को गिनवा रहे हैं जो उनके मुताबिक ''मोदी के 'कोऑपरेटिव फेडरलिज्‍म' को चुनौती दे रहे हैं''. प्रदीप सिंह के लेख की आखिरी पंक्ति पढ़कर दुनिया सिर के बल खड़ी नज़र आती है:

''ये मुख्‍यमंत्री यह समझने को तैयार नहीं हैं कि वे मोदी को कमज़ोर करने की कोशिश में संविधान और देश को कमजोर कर रहे हैं.''

प्रदीप सिंह का यह नायाब लेख सिर्फ इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि जाना जा सके कि यूक्रेन और रूस जैसी दूर की कौड़ी में भी अपने नेता की भक्ति की गुंजाइश कैसे निकाली जा सकती है और उसके लिए विरोधियों की किस हास्‍यास्‍पद तरीके से निशानदेही की जा सकती है. खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए एक समय के अच्‍छे पत्रकार और संपादक आज कैसे-कैसे द्रविड़ प्राणायाम कर रहे हैं, यह लेख उसका अभूतपूर्व उदाहरण है. काश! इन्‍हें एक व्‍यक्ति को संविधान और देश का पर्याय बताते हुए छटांक भर भी शर्म आती!

जागरण को हालांकि ये सब करने में शर्म नहीं आती. इसीलिए यह अखबार शांति का विकल्‍प परमाणु हथियार को भी बता सकता है. 3 मार्च को अगले ही पन्‍ने पर संजय वर्मा का लेख पढ़ें. अब सोचें, कि शांति का विकल्‍प हथियार कैसे हो सकता है? लिखने वाले ने तो लिख दिया, लेख छप भी गया. बात इतनी ही होती तो ठीक था लेकिन रूस-यूक्रेन के बहाने जागरण का एजेंडा कहीं ज्‍यादा संगीन है. 25 फरवरी को संपादकीय पन्‍ने पर एक लेख छपा है (डॉ. अजय खमरिया) जिसमें कहा गया है कि रक्षा मंत्रालय के अधीन सैनिक स्‍कूल खोले जाने चाहिए और बच्‍चों को देशभक्ति से सराबोर शिक्षा दी जानी चाहिए. इसमें एक जिला पर एक सैनिक स्‍कूल की सिफारिश की गई है जिसे निजी-सार्वजनिक भागीदारी मॉडल पर चलाया जाए.

विवेक के दो-चार स्‍वर

जिस वक्‍त युद्ध के बहाने तमाम किस्‍म के खतरनाक एजेंडे अखबारों में चलाए जा रहे हों, कुछेक स्‍वर ऐसे भी हैं जो वास्‍तव में युद्ध-विरोध के आदर्श के साथ लिख रहे हैं और व्‍यावहारिकता की जमीन पर विश्‍लेषण कर रहे हैं. इनके लिए कभी-कभार छोटे अखबारों को भी पढ़ लेना चाहिए. वहां अच्‍छे लेख छपते हैं.

स्‍वतंत्र वार्ता ने 28 फरवरी को समाजवादी नेता रघु ठाकुर और भास्‍कर के पूर्व समूह संपादक श्रवण गर्ग के लेख छापे हैं. अत्‍यंत संतुलित और स्‍वस्‍थ लेख हैं दोनों. इसके अलावा हिंदुस्‍तान में एकाध मौकों पर पूर्व विदेश सचिव शशांक के लेख संपादकीय पन्‍ने पर छपे हैं जो रूस-यूक्रेन संकट पर स‍ही समझ विकसित करने में मदद करते हैं. डॉ. वैदिक को विदेश मामलों पर पढ़ना हमेशा ही जानकारी को बढ़ाता है. हमने देखा है कि पिछले साल अफगानिस्‍तान पर तालिबान के कब्‍ज़े के दौरान हिंदी अखबारों में छपे डॉ. वैदिक के विश्‍लेषण तमाम अंग्रेजी लेखकों के मुकाबले ज्‍यादा वास्‍तविक और प्रामाणिक थे.

आने वाले दिनों में रूस-यूक्रेन का संकट बढ़े या घटे, हिंदी के पाठकों को बहुत सावधानीपूर्वक अपने लिए अखबार और अखबारों के लेख चुनने होंगे. आखिरकार यह समझना जरूरी है कि हथियार की तरह अखबार भी एक ऐसा धंधा है जो जंग की सूरत में चोखा हो जाता है. इसलिए जंग के दौर में सही अखबारों का और सही लेखकों का चयन करें. इस बात को समझें कि युद्ध-विरोध की बात करने वाले अखबार दरअसल राष्‍ट्रवाद की मजबूरी से ग्रस्‍त हैं. शांति के पीछे की उनकी भावना कतई वैचारिक और पवित्र नहीं है.

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