Report
गायब हो गए 2.60 करोड़ क्षेत्र में बसे जंगल, रिपोर्ट में खुलासा
नए विश्लेषण में पाया गया है कि इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2021 (आईएसएफआर 2021) में देश के वन-क्षेत्र को लेकर उसके आकलन और हकीकत में बड़ा फर्क है. इस विश्लेषण के मुताबिक, देश के वनों का लगभग 26 मिलियन यानी 2.60 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र ‘गायब’ है.
यह विश्लेषण करने वाली डाउन टू अर्थ की संपादक सुनीता नारायण कहती हैं: देश में वन-क्षेत्र के रूप में ‘रिकॉर्डेड’ जमीन और उस पर मौजूद वास्तविक वन-क्षेत्र के बीच अंतर है.
आईएसएफआर 2021 के अनुसार, देश में ‘रिकॉर्डेड’ वन-क्षेत्र 7.75 करोड़ हेक्टेयर है, जबकि इस जमीन पर वन-क्षेत्र के मौजूदगी 5.16 करोड़ हेक्टेयर में ही है. इसका मतलब यह है कि वनों के रूप में वर्गीकृत क्षेत्र का 34 फीसदी यानी 2.58 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल इस आकलन में गायब है. आईएसएफआर 2021 इस बारे में विस्तार से नहीं बताती कि आकार में उत्तर प्रदेश के क्षेत्रफल के बराबर की वन भूमि पर क्या हो रहा है.
विश्लेषण के मुताबिक, सरकार के आकलन के हिसाब से देखें तो कुछ राज्य ऐसे हैं, जिनमें वन के तौर पर दर्ज भूमि का तीस से 35 फीसद हिस्सा गायब हैं. उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में तीन मिलियन हेक्टेयर वन भूमि गायब है.
नारायण आगे कहती हैं, "यह हमारे देश में वनों के कम होने की असली कहानी है, जिस पर हमें गहराई से चिंता करनी चाहिए."
‘गायब’ वनों के पीछे की कहानी
कहा जा सकता है कि देश में दो तरह के वन हैं - पहले वे वन, जो आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के अंदर आते हैं और दूसरे, वे जो इसके बाहर आते हैं. 2013 की वन सर्वेक्षण रिपोर्ट में देश के कुल वन-क्षेत्र का अनुमान 7 करोड़ हेक्टेयर लगाया गया था, हालांकि इसमें यह नहीं बताया गया था कि इसमें कितने वन, आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के अंदर आते हैं और कितने इसके दायरे के बाहर वाले हैं.
2015 की स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट में बताया गया कि वन-क्षेत्र के अंदर आने वाले वनों का क्षेत्रफल घटकर 5.1 करोड़ हेक्टेयर हो गया है जबकि बाकी बचे 1.9-2.0 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र को आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के बाहर का बताया गया.
नारायण कहती हैं, "आप तर्क दे सकते हैं कि बाहर का वन-क्षेत्र तो हमेशा से ‘गायब’ ही था, और चूंकि वन-क्षेत्रों की सीमाओं को डिजिटल नहीं किया गया था तो यह पता करना संभव ही नहीं था कि कौन सा वन, अंदर की श्रेणी में है और कौन सा बाहर की श्रेणी में. और अब जबकि यह हो चुका है, तो वन सर्वेक्षण हमें बता सकता है कि 28 फीसदी वन-क्षेत्र, वन विभाग के नियंत्रण से बाहर की जमीन पर है."
इसके बाद वह एक मुनासिब सवाल उठाती हैं, जिसका जवाब अब तक नहीं दिया गया है कि वन विभाग के नियंत्रण वाले इस विशाल भूमि क्षेत्र की स्थिति क्या है, जिसे वन-क्षेत्र के आकलन में झाड़-झंखाड़ के तौर पर भी वर्गीकृत भी नहीं किया जाता है ?
परिभाषा के तौर पर आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के बाहर के वन-क्षेत्र में ऐसी जगह शमिल होती है, जहां गैर-वनीय पौधारोपण होता है. चूंकि वन की परिभाषा में कोई भी ऐसी जमीन शामिल होती है, जिसके दस फीसदी या उससे ज्यादा हिस्से में ट्री-कवर एरिया होता है, इसलिए बाहरी वन-क्षेत्र वाली जगहों में नारियल से लेकर सभी तरह का पौधारोपण शामिल किया जा सकता है, यहां तक कि चाय का भी.
दरअसल, 2019 से 2021 के बीच के आकलन के मुताबिक, देश का वन आवरण-क्षेत्र महज 0.2 फीसदी बढ़ा है और यह बढ़त भी ज्यादातर खुले वनों की वजह से हुई है. यह वन ऐसे हैं, जो आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के बाहर की जमीन पर थे और जिनका ट्री-कवर एरिया 10 से 14 फीसद तक था.
सुनीता नारायण के मुताबिक, इस रिपोर्ट का सबसे बड़ा निष्कर्ष यह है कि वन विभाग के नियंत्रण में आने वाले वनों का विशाल- क्षेत्र ‘गायब’ है और उसकी इस हद तक भी सुनवाई नहीं हे कि उसे झाड़-झंखाड़ के तौर पर ही वर्गीकृत किया जाए. यानी कि यह कह जा सकता है कि वन- आवरण क्षेत्र सरकार की वजह से नहीं बल्कि उसके योगदान के बिना बढ़ रहा है.
वह कहती हैं, "इस वक्त बड़ा मुद्दा यह है कि हम भविष्य की खातिर वनों के प्रबंधन के नए तरीके खोजें ताकि हम लकड़ी का इस्तेमाल भी कर सकें और पारिस्थितिक तौर पर संवदेनशील और नाजुक क्षेत्रों की सुरक्षा भी कर सकें."
कार्रवाई का एजेंडा
- पारिस्थितिकी तंत्र भुगतान के माध्यम से बहुत घने और पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण वनों की रक्षा करना- 70 फीसदी या उससे अधिक की छत्रछाया के साथ बहुत घने जंगल, देश के भूमि क्षेत्र का केवल 3 फीसदी हिस्सा बनाते हैं. लेकिन इसका बड़ा हिस्सा (70 फीसदी से अधिक) ‘आदिवासी’ के रूप में वर्गीकृत जिलों में पाया जाता है, जहां देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं. इन शेष उच्च गुणवत्ता वाले वनों को पारिस्थितिक सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण और कार्बन-पृथक्करण के लिए हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए.
नारायण ने कहा, "लेकिन यह हमें इस तरह से करना चाहिए कि वनों के करीब रहने वाले समुदायों को वन बचाने के लिए अपनी आजीविका से जो समझौता करना पड़े, उसका उन्हें वाजिब मूल्य मिले. 12वें वित्त आयोग में मुआवजे के भुगतान के लिए जो नियम तय किया गया था, उसे फिर से अलग में लाया जाना चाहिए. नियम के मुताबिक, सही इरादे के साथ प्रभावित समुदायों को पारिस्थितिकी तंत्र भुगतान के रूप में पैसा दिया जाना चाहिए."
- वन विभाग के नियत्रंण में अंदर वाले क्षेत्र की जमीनों पर फोकस करना - ‘गायब’ 2.58 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल को नवजीवन दिया जाए. हालांकि जैसा कि सुनीता नारायण कहती हैं कि यह काम बिना स्थानीय समुदायों की सक्रिय मदद के बिना नहीं किया जा सकता. पेड़ों की कटाई समस्या नहीं है, समस्या वनों को फिर से लगाने और फिर से उगाने में हमारी अक्षमता है.
उनके मुताबिक, "इसीलिए स्थानीय समुदायों की जरूरतों को ध्यान में रखकर गंभीरता से काम करना होगा, जिससे उनके लोगों को केवल घास या छोटे वन-उत्पादों पर ही अधिकार न मिले बल्कि जब पेड़ कटाई के लिए तैयार हो जाएं तो उन्हें काटने और बेचने का हक भी इन लोगों को दिया जाए."
वनों के बाहर के पेड़ों पर लाइसेंस राज खत्म करना- नारायण के मुताबिक, अच्छी खबर यह है कि लोग अपनी जमीन पर, घर के पिछवाड़ों में पेड़ लगा रहे हैं लेकिन बुरी खबर यह है कि यह सब विपरीत परिस्थितियों में हो रहा है. उन्होंने कहा, "आज काफी ज्यादा प्रतिबंधात्मक परिस्थितियों में, किसी पेड़ का गिरना सचमुच सही मायनों में एक अपराध है, भले ही आपने इसे अपनी जमीन पर लगाया हो."
आईएसएफआर 2021 के मुताबिक, देश में बांस के 53,336 मिलियन झुरमुट हैं. लेकिन तथ्य यह है कि अब जबकि इसे घास के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया है और ये इंडियन फॅारेस्ट एक्ट, 1927 के बाहर हैं, इसके बावजूद उन लोगों को इन्हें बेचने का हक नहीं है, जो इनका पौधारापण करते हैं.
विश्लेषण के मुताबिक, "कुल मिलाकर देश के वन अच्छी हालत में नहीं हैं. वनों में वृद्धि शेखी बघारने लायक नहीं है, बल्कि यह इतनी भी नहीं है कि जिस पर ध्यान देना चाहिए. हमारा फोकस ‘गायब’ वनों पर होना चाहिए, जो वास्तव में चिंता का सबब है. वरना हमारे वन केवल कागजों पर रह जाएंगे, जमीन पर नहीं."
(डाउन टू अर्थ से साभार)
Also Read
-
‘Foreign hand, Gen Z data addiction’: 5 ways TV anchors missed the Nepal story
-
No bath, no food, no sex: NDTV & Co. push lunacy around blood moon
-
Mud bridges, night vigils: How Punjab is surviving its flood crisis
-
Adieu, Sankarshan Thakur: A rare shoe-leather journalist, newsroom’s voice of sanity
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point