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लता मंगेशकर: एक आवाज का भारतीय संस्कृति का रूपक बन जाना

Gcdjबीसवीं शताब्दी में सरस्वती की अवधारणा को मूर्त्त करने वाली महान पार्श्वगायिका लता मंगेशकर के निधन से एक ऐसा खालीपन पैदा हुआ है, जो भारतीय संगीत की दुनिया में शायद इस शताब्दी में भरे जाते हुए देख पाना असम्भव होगा. यह समय उनको श्रद्धांजलि देने के साथ उनकी विराट सांगीतिक यात्रा के अवलोकन का नहीं है, क्योंकि ऐसी कोई भी बात संगीत अध्येता या रसिक नए ढंग से नहीं कह सकता, जो हर एक भारतवासी को पहले से मालूम नहीं है.

एक बड़े सांस्कृतिक किरदार की क्षति से हमें अपने सांस्कृतिक परिदृश्य का नए सिरे से मूल्यांकन करने की जरूरत है, जो उसके न होने पर आज दिखाई दे रही है. हममें से जो भी भारतीय देश से बाहर जाता रहा है, उसे इस बात पर ही गर्व होता है, जब वह उस देश के नागरिकों से मुखातिब होते हुए यह बताता है कि वो लता मंगेशकर के देश से आया है. लता जी दरअसल, भारत की सांस्कृतिक पहचान बन गई थीं, जिनके होने से दक्षिण एशियाई देशों में उनकी उपस्थिति का एक दमदार और प्रभावी असर देखा जा सकता है. कल जब वे इस दुनिया से प्रस्थान कर गईं, तो पड़ोसी मुल्कों में उनको लेकर फैली शोक की लहर हैरान करने वाली है. जो पाकिस्तान, हर बात पर भारत से मुठभेड़ को तैयार रहता है, वहां भी लता जी की कला, साधना और उपस्थिति को गरिमापूर्ण ढंग से शोक और श्रद्धांजलि में बदलते देखा गया.

लता मंगेशकर के बहाने हम इस बात का भी सामाजिक, राजनीतिक अध्ययन कर सकते हैं कि एक कलाकार की हैसियत, अपनी कला के दायरे में शिखर पर रहते हुए पूरे समाज और अपने राष्ट्र की सीमा के बाहर भी किसी भी पंथ, मत, संप्रदाय, धर्म और विचारधारा से बड़ी होती है. यह देखने वाली बात है कि लता जी एक पार्श्वगायिका थीं, जो फिल्मों के लिए गीत गाती थीं. मगर इतने भर से ही उनकी शिनाख्त कर लेना नाकाफी होगा.

उन्होंने फिल्म संगीत के सीमित माध्यम में रहते हुए भी अपने जुनून, लगन, कठोर परिश्रम और व्यक्तिगत गरिमा के सहमेल से जो सामाजिक मुकाम हासिल किया, वह अभूतपूर्व है. 13 साल की एक लड़की, जो अपने पिता की मृत्यु के दूसरे दिन अपनी मां से यह कहती है- ‘क्या कल से मुझे काम पर जाना पड़ेगा?’ ....आप सोच नहीं सकते कि पारिवारिक दायित्व की बीहड़ जिम्मेदारियों को किशोर कंधों पर आने के बाद भी एक स्त्री कैसे बाद के सालों में देश की सांस्कृतिक चेतना का न सिर्फ प्रतीक बन जाएगी, बल्कि हर दूसरा देशवासी उन्हें निहायत अपनी घर की आवाज मानकर उनसे पारिवारिक रिश्ता पाल लेगा. यह लता मंगेशकर होने की सबसे बड़ी उपलब्धि है, जो उन्होंने ताउम्र बरकरार रखी और उसे जीवन्तता से अन्तिम क्षणों तक निभाया.

अपने सनातनी विचारों, दक्षिणपंथी रूझानों तथा धार्मिक होने की शर्तों पर जीने वाली जिजीविषा को आज के सोशल मीडिया वाले दौर में अकसर विपरीत विचारधारा के समूह द्वारा लांछित भी किया गया. उन्हें तमाम ऐसे अप्रिय प्रसंगों से जोड़कर अपमानित करने की कोशिशों का दौर भी चला, जिससे उनके जैसी सादगी भरी स्त्री के प्रशंसकों में रोष भी पनपता था. लेकिन हुआ क्या? लता जी की महानता की बड़ी सी प्रतिमा में खरोंच लगाना तो दूर, उसे छू पाना भी नामुमकिन रहा. उन्होंने अपनी कला और साधना से खुद को इतना बड़ा बना लिया था कि बाद में उन पर विचारधारा को लेकर की जाने वाली ओछी टिप्पणियां धूल-धूसरित हो गईं.

लता मंगेशकर के बहाने यह सवाल करने का मन होता है कि कलाओं और अभिव्यक्ति की दुनिया में महानता क्या सिर्फ किसी एक विचार की मुखापेक्षी होती है? या कोई विचारधारा किसी महान सर्जनात्मक उपस्थिति का उपहास सिर्फ इसलिए उड़ा सकती है कि उसकी विचारधारा से अमुक कलाकार के विचार मेल नहीं खाते. इस संदर्भ में यह बात सुखद रही है कि लता मंगेशकर ने ऐसी किसी बात को कभी तरजीह नहीं दी और अपने मन के आंगन को सदैव खुला रखा.

उस सरस्वती की कला का आंगन इतना उदार, समावेशी और उन्मुक्त रहा, जिसमें हर प्रकार की वैचारिकी को आराम से अंदर प्रवेश की अनुमति मिलती थी. यह देखा जा सकता है कि एक पारम्परिक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार से आने वाली लड़की नौशाद के संगीत और शकील बदायूंनी की कलम से निकले नात ‘बेकस पे करम कीजिए सरकारे मदीना’ (मुगल-ए-आजम, 1960) को उसी आस्था और तन्मयता से गाकर अमर बनाती हैं, जितना कि सनातनी प्रार्थना का सुधीर फड़के और पण्डित नरेन्द्र शर्मा द्वारा रचा गया ‘ज्योति कलश छलके’ (भाभी की चूड़ियां, 1961) गाते हुए. ...ऐसे ढेरों प्रसंग, हजारों गीत, रिकॉर्डिंग की अनगिनत कहानियां और लता जी की उपस्थिति की उम्दा मिसालें इतिहास में मौजूद हैं, जिससे इस बात का पता लगता है कि वो सब चीजों से परे संगीत के शिखर पर जलती हुई ऐसी दीपशिखा थीं, जिसका उजाला उनके न रहने के बावजूद शताब्दियों के आर-पार प्रकाश फैलाने की ताकत रखता है.

स्त्रियों की आकांक्षा का स्वप्न रचने वाली लता मंगेशकर की उपस्थिति से उस स्त्री-विमर्श को भी स्वर मिलता है, जिसकी प्रेरणा से आम घरों की लड़कियां खुद को साबित करने के लिए किसी भी क्षेत्र में अपना सर्वश्रेष्ठ रच सकती हैं. पुरुष प्रधान सिनेमा की दुनिया में एक औरत किस हौसले से रह सकती है और उतने ही शिद्दत से अपनी शर्तों पर जीकर सफलता के सारे कीर्तिमान बना सकती है, उसका नायाब उदाहरण हैं लता मंगेशकर. एक और अनोखी बात उनके पक्ष में जाती है. वह यह कि उन्होंने उस दौर में संघर्ष आरंभ किया, जब भारत अपने पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहा था और इस आजाद देश की संस्कृति का इतिहास बस लिखा जाना शुरू हुआ था.

सौभाग्य से लता मंगेशकर उसी समय अपनी कलात्मक यात्रा शुरू करती हैं और धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के रचे जा रहे अध्यायों की प्रतिनिधि किरदार बनकर उभर आती हैं. यह कितनों को नसीब होगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही उसके सपनों को भी पंख लगे और वह स्वाधीनता की इबारत के साथ स्त्री-स्वातंत्र्य की पैरवी का एक रूपक बन जाए.

1949 में ‘बरसात’ के गीत ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’ गाते हुए जैसे लता जी ने यह संकेत कर दिया था कि वे दासता, रुढ़ियों और पिछड़ेपन के भारी-भरकम परदे को परे धरकर अपने प्रगतिशील आंचल के साथ संस्कृति का एक बड़ा सफर तय करने के लिए हवा में उड़ान भरेंगी. 92 वर्ष की एक भरपूर उम्र में इस अनथक उड़ान को ऐसी विश्रान्ति मिली है, जिसके साए तले नई पीढ़ियां लता मंगेशकर को एक किंवदन्ती की तरह जानेंगी और उनसे प्रेरित होती रहेंगी.

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