Report
'एकजुटता को खत्म करने की चाल': कश्मीर प्रेस क्लब, पत्रकारों, खासकर फ्रीलांसर्स का 'दूसरा घर'
सोमवार 17 जनवरी को श्रीनगर के पोलो व्यू में कश्मीर प्रेस क्लब के बाहर कुछ पत्रकार इकट्ठा हुए. किसी भी सामान्य दिन करीब 300 सदस्यों वाले इस क्लब में आम तौर पर करीब दो दर्जन सदस्यों के मिलने-जुलने का केंद्र होता था. हालांकि अधिकांशतः ये सदस्य इस जगह को वर्कस्टेशन के तौर पर ही इस्तेमाल करने आते थे. लेकिन क्लब को कुछ अनजान लोगों के सील करने के अगले दिन इस इसका पूरा परिसर सुनसान दिखाई पड़ा.
दोपहर तक पत्रकारों के सबसे भयावह अंदेशे की पुष्टि हो चुकी थी: जम्मू एवं कश्मीर प्रशासन ने क्लब के भवन का आवंटन रद्द कर दिया था. और इस घटना के अगले दिन सरकारी बलों के साथ आए दस्ते ने क्लब प्रबंधन के अधिग्रहण की कार्रवाई को अंजाम दे दिया.
प्रशासन का तर्क है, "कुछ अप्रिय घटनाओं” ने ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दीं जिसके फलस्वरूप टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक सलीम पंडित के नेतृत्व वाली एक नई अंतरिम इकाई अस्तित्व में आई जिसने क्लब को अपने नियंत्रण में ले लिया. पंडित ने कुप्रबंधन और क्लब के चुनावों में देरी का हवाला देते हुए खुद को अंतरिम अध्यक्ष घोषित कर लिया. मंगलवार को उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि वो इस मसले पर कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हैं क्योंकि प्रशासन ने उन्हें क्लब के नाम पर किसी भी तरह कि टिप्पणी जारी करने की अनुमती नहीं दी है.
पत्रकारों के समूह अपने बयानों में कहीं बेबाक नजर आए और प्रशासन की इस कार्रवाई को "अवैध" और "निरंकुश" बताया.
गेट के बाहर खड़े एक पत्रकार ने अपने सहयोगी की ओर देखा और कहा, “अब हम कहां जाएं?”
'क्लब का निरस्तीकरण'
कश्मीर प्रेस क्लब ऐसे कश्मीरी पत्रकारों और खासकर फ्रीलांसर्स के लिए जो बिना खुद के दफ्तर के काम करते हैं, एक सुरक्षित ठिकाना है.
2018 में स्थापित यह क्लब उन 1-2 जगहों में से है जहां पर 2019 में नई दिल्ली द्वारा राज्य की बची-खुची स्वायत्तता को निरस्त करने के बाद लॉकडाउन के दौरान पत्रकार अपने काम को अंजाम देते थे.
"कुछ भी खुला नहीं था. लेकिन हमें पता था कि हमारे पास केपीसी (कश्मीर प्रेस क्लब) है, जहां हम बैठ सकते हैं और अपना काम कर सकते हैं. ये मेरे जैसे फ्रीलांस पत्रकारों के लिए यहां आकर बैठने और सीनियर्स से बातचीत करने का अड्डा था." फ्रीलांस पत्रकार 26 वर्षीय कुरातुलैन रहबर ने कहा.
मूल रूप से दक्षिण कश्मीर के पुलवामा की निवासी रहबर फिलहाल एक किराए के आवास में रहती हैं और हर दिन नियमित रूप से प्रेस क्लब आती हैं. उन्हें अकसर क्लब की कैंटीन में काम करते देखा जा सकता है. इस सबने उनकी जिंदगी को आसान बना दिया था, उन्होंने बताया, क्योंकि क्लब उन्हें कार्यस्थल और अपेक्षाकृत सस्ता खाना उपलब्ध कराता था.
"कम से कम मेरे लिए ये घर था. अब, क्लब के बंद होने के बाद हर कोई बिखर गया है" उन्होंने कहा.
केपीसी इदरीस बुख्तियार की दिनचर्या का भी पहला पड़ाव था. "मेरे लिए बैठने की, इंटरनेट कनेक्शन पाने की और किसी स्टोरी को दर्ज करने की सिर्फ यही एक जगह थी. मेरे पास अब कोई और विकल्प नहीं है." 27 वर्षीय फ्रीलांस पत्रकार ने कहा.
बहुत से दूसरे पत्रकारों की तरह ही बुख्तियार भी क्लब पर इसलिए निर्भर थे क्योंकि यह उनके पैसे बचाता था और सीनियर्स से मिलने और उनसे बातचीत करने का जरिया था.
"मेरे लिए केपीसी दूसरा घर था जहां मैं वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत करता, उनसे सीखता, और नए संपर्क बनाता. लेकिन अब ऐसा लगता है कि सब बर्बाद हो गया है." उन्होंने कहा.
क्लब ने लगातार सरकार की पैनी निगाह के दायरे में रहने वाले पत्रकारों को भी इकट्ठे होकर बैठने और अपनी समस्याओं पर चर्चा करने की जगह मुहैया कराई हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा, बुख्तियार ने कहा, यहां तक कि उसे लंबे समय तक बैठने लायक एक जगह और अपनी रिपोर्ट फाइल करने के लिए इंटरनेट कनेक्शन वाली जगह खोजने की तत्कालिक समस्या से भी निपटना होगा.
बुख्तियार का मानना है कि प्रशासन क्लब के मसले को सुलझा सकता था, लेकिन वो (प्रशासन में बैठे लोग) लोग ऐसा नहीं चाहते.
27 वर्षीय फ्रीलांस पत्रकार कैसर अंद्राबी ने भी इस पर अपनी सहमति जताई. उन्होंने कहा, "इसे समझना आसान है. ये भी ठीक वैसे ही किया जैसे उन्होंने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया था. अपने आखिरी मकसद को अंजाम देने के लिए सत्ता के तमाम दूसरे तरीकों को अपनाने के बाद एक सैन्य तख्तापलट का तरीका अपनाया.”
उन्होंने आगे कहा, "वो ऐसा कोई संस्थान नहीं रखना चाहते जिसके पास सरकारी कामों और नीतियों के प्रति असहमति व्यक्त करने की कूवत हो. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से, केपीसी आखिरी स्वतंत्र संगठन था, जो कई बाधाओं के बावजूद खड़ा था.
उन्होंने यह भी कहा, "इस अधिग्रहण के साथ ही, उन्होंने एक संदेश भी दिया कि आज उन्होंने संस्था को छीन लिया, कल वे पूरे समुदाय का मुंह बंद कर सकते हैं. जैसा कि वे पिछले तीन सालों से अलग-अलग तरीकों से किसी न किसी रूप में करते आ रहे हैं.”
अंद्राबी भी अक्सर समय-सीमा के भीतर काम को अंजाम देने की जद्दोजहद के साथ क्लब में काम करती थे. वह श्रीनगर से एक घंटे की ड्राइव पर मध्य कश्मीर के बडगाम जिले में रहते हैं. एक फ्रीलांसर के रूप में उन्हें क्लब में अन्य पत्रकारों के साथ जुड़ने के लिए एक वर्कस्टेशन और एक अपेक्षाकृत सुरक्षित मंच मिला, उनका कहना है कि वह अब "बेघर" महसूस करते हैं.
संडे गार्डियन के उप-संपादक, पीरजादा मुजम्मिल ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्होंने क्लब के बाहर भी काम किया क्योंकि उनके पास कोई दफ्तर नहीं है.
उन्होंने कहा, "जब भी मुझे अपने समकक्षों या सीनियर्स से किसी भी प्रकार की मदद की जरूरत होती तो मैं क्लब में भाग जाता. अब जबकि क्लब भौतिक रूप से मौजूद नहीं है, मुझे यह पता लगाना है कि हर कोई कहां है... केपीसी जैसी जगहें मदद करती हैं. आप सहकर्मियों से मिलते हैं, विचारों को लेते हैं, सहयोग की उम्मीद करते हैं, या बस यहीं-कहीं बैठ जाते हैं और अपनी रिकॉर्डिंग को ट्रांसक्रिप्ट करते हैं." उन्होंने कहा.
उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, "मीडिया बिरादरी जिस वक्त से गुजर रही है, उसे देखते हुए खाली और महफूज जगहें होना काफी अहम है. आप एक कैफे में एक सहयोगी से मिल सकते हैं, लेकिन इसकी बहुत ज्यादा संभावना है कि आप एक संवेदनशील स्टोरी पर ऐसी जगह पर चर्चा करने में सहज नहीं होंगे, जहां आपके आस-पास बैठे हर शख्स अजनबी हो. ”
मुजम्मिल ने "क्लब के निरस्तीकरण" को "मर्यादाओं और लोकतांत्रिक संस्थानों का अपमान" बताया. "इस तरह की घटनाएं केवल अव्यवस्था को बढ़ावा देती हैं और समाज को परेशान करती हैं. मुझे लगता है, यह सब पत्रकार समुदाय की परेशानियों को बढ़ाएगा ही." उन्होंने कहा.
केपीसी के बंद होने के साथ ही, उन्होंने आगे कहा, "मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं काम नहीं कर सकता, लेकिन लगभग रोजाना अपने सीनियर्स से मिलने और उनसे सीखने का विशेषाधिकार कुछ हद तक समाप्त हो गया है."
कश्मीर प्रेस क्लब कश्मीर में पत्रकारों का एकमात्र निर्वाचित प्रतिनिधि निकाय है. हालांकि पंडित के नेतृत्व में हुए "अधिग्रहण" जिसकी कई प्रेस समूहों द्वारा निंदा की गई थी, के अलावा पिछली निर्वाचित निकाय की कार्रवाईयां भी चिंता का सबब रही थीं.
पिछली निर्वाचित निकाय का कार्यकाल बीते साल जुलाई में समाप्त हो गया था. लेकिन एक अंतरिम निकाय नामित करने के बजाय यह आधिकारिक पदों पर बना रहा. उनका कहना है कि क्लब को फिर से पंजीकृत करने से प्रशासन के इनकार के कारण नया निकाय बनाने या चुनाव कराने में देरी हुई.
पत्रकारों ने उस पर समुदाय के हितों की रक्षा करने में असफल होने का भी आरोप लगाया है, क्योंकि पिछले निर्वाचित निकाय ने अक्सर अपने सहयोगियों को बार-बार हिरासत में लिए जाने, समन और हर रोज होने वाले उत्पीड़न पर चुप्पी साध रखी थी.
नतीजा यह हुआ कि वरिष्ठ पत्रकार एक वैकल्पिक स्थान के निर्माण पर विचार करने लगे, बीबीसी पत्रकार रियाज मसरूर ने कहा, जो कि जम्मू और कश्मीर पत्रकार संघ के प्रमुख भी हैं.
विडंबना यह है कि 2018 में क्लब की स्थापना कश्मीर के पत्रकारों द्वारा लंबे समय से चली आ रही मांग थी. जिसमें पंडित के यत्न भी शामिल थे. पंडित इसके पहले अंतरिम अध्यक्ष भी थे.
लेकिन क्लब का ही खत्म हो जाना, "बेघर होने" जैसा है, मसरूर ने कहा.
"इससे हताशा और पीड़ा हुई है, खासकर मीडिया कवरेज के फुट सोलजर्स के बीच, जो हमेशा अपनी कमर कस कर तैयार रहते हैं और जिन्हें समय-सीमा के भीतर उठने-बैठने के लिए एक अदद ठिकाने की आवश्यकता होती है," उन्होंने कहा.
प्रशासन का दावा था कि प्रेस क्लब "दो प्रतिद्वंद्वी युद्धरत समूहों" के बीच फंस गया था. मसरूर ने कहा कि यह सच नहीं है, क्योंकि सलीम पंडित के नेतृत्व में "केवल एक समूह" था, जबकि केपीसी के साथ पंजीकृत अन्य 13 समूह "अधिग्रहण" बैठक में शामिल ही नहीं हुए थे.
"यह 1 बनाम 13 था इसलिए यह टकराव नहीं हो सकता." उन्होंने कहा.
जर्नलिस्ट फेडरेशन कश्मीर के सदस्य अनीस जरगर ने कहा कि केपीसी एक महत्वपूर्ण संस्था है जिसने न केवल युवा पत्रकारों को एक जगह मुहैया कराई बल्कि पूरे इलाके में प्रेस की आजादी के एक प्रमुख हिमायती के रूप में भी उभरी.
उन्होंने कहा, "यह एक ऐसी जगह थी जहां न केवल पत्रकारिता फल-फूल रही थी बल्कि यह बिरादरी के भीतर एकजुटता बनाने में भी मदद कर रही थी. इसका बंद होना उस एकजुटता को खत्म करने की चाल का हिस्सा लगता है. पत्रकारिता हमेशा की तरह चलती रहेगी."
प्रेस क्लब के प्रति ऐतिहासिक घृणा
वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद सैयद मलिक जो किसी राष्ट्रीय पत्र के संपादक बनने वाले पहले कश्मीरी मुस्लिम और पूर्व महानिदेशक (सूचना) भी थे- ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि 1970 के दशक में भी प्रेस को इसी तरह के हालातों का सामना करना पड़ा था.
उस समय, पत्रकारों का एक समूह पहला कश्मीर प्रेस क्लब बनाने के लिए एकजुट हुआ था. उर्दू अखबार डेली आफताब के संपादक ख्वाजा सनाउल्लाह के नेतृत्व में और इसका उद्देश्य "एक छतरीनुमा संगठन" (ऐसा संगठन जिसके साये में कई छोटे- बड़े संगठन काम करें.) खड़ा करना था.
मलिक ने बताया, “समूह द्वारा सरकार से संपर्क किया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री सैयद मीर कासिम ने इस मामले की देखरेख के लिए लिए दो मंत्रियों को नियुक्त किया था- मुफ्ती मोहम्मद सैयद, जिन्होंने बाद में पीडीपी का नेतृत्व किया और अब्दुल गनी लोन, जिनके द्वारा बाद में पीपुल्स कांफ्रेंस का नेतृत्व किया गया. इन मंत्रियों द्वारा इस उद्देश्य के लिए रेजीडेंसी रोड पर शेर-ए-कश्मीर पार्क के पीछे स्थित एक भवन आवंटित किया गया.”
"हमारे मुद्दों पर चर्चा करने और प्रेस कांफ्रेंस करने के अलावा, हम यहां आने वाले गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित करते हैं. प्रतिष्ठित नेताओं ने हमें वहां संबोधित किया है. कुछ समय के लिए यह काफी व्यस्त जगह थी. लेकिन 1974 के अंत तक, राजनीतिक परिदृश्य बदलना शुरू हो गया. शेख अब्दुल्ला हिरासत में थे और उन्हें वापस लाने के लिए जनता का हो-हल्ला तेज होता जा रहा था. 1975 में, जब अब्दुल्ला सत्ता में लौटे, तो उनकी सरकार ने सुझाव दिया कि इस इमारत को वापस नगरपालिका को बहाल करने की आवश्यकता होगी." मलिक ने कहा.
"तो, यह उन्हें वापस सौंप दिया गया," उन्होंने कहा. “कोई जगह नहीं होने के कारण, हम तितर-बितर हो गए. अब जबकि इमारत चली गई थी, हमारे पास कोई जगह नहीं थी. इसलिए, यह सब अस्तित्वविहीन हो गया.”
फारूक अब्दुल्ला की सरकार के तहत 1980 के दशक के अंत में एक प्रेस क्लब स्थापित करने का एक और प्रयास किया गया था. पत्रकार यूसुफ जमील, जो उस समय कश्मीर यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के उपाध्यक्ष थे, ने कहा कि उन्हें एक ऐसी इमारत का वादा किया गया था जहां क्लब चलाया जा सकता था.
लेकिन अंततः, जमील ने कहा, सरकार ने कभी भी इमारत नहीं सौंपी. उस समय पत्रकार दो खेमों में थे, एक प्राण नाथ जलाली के नेतृत्व में और दूसरा जेएन साथू.
जमील ने कहा, "सतपाल साहनी (महानिदेशक, सूचना) ने सीएम से कहा कि दो खेमे बन चुके हैं और अगर एक को भवन दिया गया तो दूसरा नाराज हो जाएगा."
और इसलिए, इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया, खासकर तब जबकि घाटी जल्द ही हिंसा में डूब गई और कुछ साल बाद एक बगावत भड़क उठी. 1990 के दशक के मध्य में जब फारूक अब्दुल्ला फिर से मुख्यमंत्री बने, तो एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान एक बार फिर इस मामले को उठाया गया.
जमील ने कहा, "उन्होंने हमें अगले दिन सचिवालय आने के लिए कहा. लेकिन कोई भी नहीं गया क्योंकि स्पष्ट था कि (सुरक्षा) स्थिति अनुकूल नहीं थी."
जमील ने कहा कि 1990 के दशक के अंत में, फारूक अब्दुल्ला की कैबिनेट में पूर्व सूचना मंत्री अजत शत्रु ने एक इमारत में क्लब स्थापित करने का प्रस्ताव रखा था, जहां वर्तमान में सूचना और जनसंपर्क निदेशालय का मुख्यालय है. लेकिन उसी दिन, "मुख्य सचिव अशोक जेटली ने मुझे फोन किया... और कहा, 'मैं कुछ नहीं कर रहा. हम आपको प्रेस क्लब के लिए कोई जगह नहीं देने जा रहे हैं.'”
आने वाली सरकारों ने भी 2018 तक इस योजना को आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने पोलो व्यू में क्लब को जमीन का यह टुकड़ा आवंटित किया.
जमील ने कहा, "इसे वापस लेना सरकार की ओर से उठाया गया एक बुरा कदम है. जाहिर है कि वे नहीं चाहते थे कि प्रेस क्लब रहे."
कश्मीर में एक प्रेस क्लब के प्रति राज्य के ऐतिहासिक विरोध को देखते हुए, मलिक ने कहा, "जिस तरह से पूरे मामले को अंजाम दिया गया, वह हमारे अपने सहयोगियों के बारे में भी संदेह पैदा करने वाली बात है."
जमील का मानना है कि मौजूदा संकट "एकजुटता का मौका है जिसका हमें पूरी तरह सदुपयोग करना चाहिए" और पत्रकारों को "दिल छोटा नहीं करना चाहिए."
"केपीसी किसी विशेष इमारत का नाम नहीं है. हम इसे किराए के आवास में कहीं भी शुरू कर सकते हैं.” उन्होंने कहा.
मलिक ने कहा, “आज के दौर में प्रेस क्लब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन पत्रकार हमेशा लाचार रहे हैं. मौजूदा दौर में और भी अधिक. असेंबली जैसा कोई जवाबदेह मंच नहीं है. वे (अधिकारी) आपके प्रति जवाबदेह नहीं हैं.”
उन्होंने आगे कहा, "मुझे झटका लगा है, दुखी हूं, लेकिन हैरान नहीं हूं. क्योंकि 5 अगस्त, 2019 के बाद ऐसा कोई भी संस्थान, जहां भी लोगों की आवाज को बाहर निकलने के लिए कोई खिड़की या सुराख या फिर लोगों तक पहुंचने का जरिया मिलता है, उसे काम करने की इजाजत नहीं है. सभी संस्थानों को खत्म कर दिया गया है. और कश्मीर प्रेस क्लब केवल अपनी बारी की ही प्रतीक्षा कर रहा था.”
Also Read
-
Adani met YS Jagan in 2021, promised bribe of $200 million, says SEC
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग ने वापस लिया विवादित आदेश
-
The Indian solar deals embroiled in US indictment against Adani group