Report

एक दूसरे के सहयोगी हैं विकास और निरंतरता, लेकिन सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में यह क्यों नहीं दिखाई देता?

ये श्रृंखला का तीसरा अंक है, इससे पहले पढ़िए पहला अंक और दूसरा अंक.

****

इस वर्ष रॉयल ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स के कई अवॉर्ड में से एक आरआईबीए नेशनल अवॉर्ड, लंदन के एक छोटे, सस्ते और खंडहरनुमा घर के रिडिजाइन के लिए दिया गया. फाइनेंशियल टाइम्स ने इसे एक बहुत ही मौलिक नजरिया कह कर सराहा है.

हॉउस –विद इन-ए-हॉउस प्रोजेक्ट का मकसद एक पुराने घर को गिराने या फिर से बनाने के बजाय नया रूप देना है. घर को नए सिरे से संजोने-संवारने से अच्छी-खासी जगह बचती है. साथ ही 12,670 ईंटों और कंक्रीट के 12.85 मीटर क्यूब को मलबे में बदलने के बजाय फिर इस्तेमाल से एक साल में चार टन कार्बन की बचत की जा सकती है. ये अमेरिकी जंगल के 5.2 एकड़ से हर साल होने वाली कार्बन की बचत के बराबर है.

पुराना घर
पुराने घर को तोड़े बिना ही बदल दिया गया
पास का चित्र
घर के अंदर से
पुराने घर के चारों ओर जोड़ी गई ईंट की दीवारों का डिजाइन

अगर 233 वर्ग मीटर के एक छोटे से घर को जमींदोज न करके 5.2 एकड़ जंगल के बराबर कार्बन उत्सर्जन बचाया जा सकता है, तो कल्पना कीजिए कि सेंट्रल विस्टा के चार लाख वर्गमीटर को ध्वस्त करने से कितना कार्बन बनेगा.

विश्व स्तर की ये कल्पना, वास्तुकला के भविष्य, उसकी दिशा और उसकी बड़ी तस्वीर की एक झलक पेश करती है. अगर इमारत की वजह से आसपास के वातावरण को नुकसान पहुंचता है तो उसकी कुशल बुनियादी संरचना या शानदार बनावट बेमानी है.

लेकिन सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के फैसले में पुराना ईंट-गारा बदल कर मुनाफा कमाने को ही 'विकास' और 'प्रगति' मानने की सोच दिखाई पड़ती है. वहीं प्रदूषण की गंभीर समस्या के साथ प्राकृतिक संसाधनों की होने वाली बर्बादी को इसकी जरूरी कीमत मान लिया गया.

दरअसल इसके पीछे मानसिकता ये है कि पर्यावरण रक्षा के उच्च मानक स्थापित किए जाने के बजाय, 18वीं सदी में जीवाश्म ईंधन की मदद से हुई पश्चिमी देशों की औद्योगिक क्रांति से पर्यावरण को हुए नुकसान के नतीजे भुगतना भारत की मजबूरी है. इसलिए भारत ने शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य पाने के लिए 2070 तक समय मांगा है, जो किसी भी देश के लक्ष्य प्राप्ति के तय समय से भी ज्यादा है.

सच्चाई ये है कि हम समय और तकनीक में तीन सदी आगे आ चुके हैं और ये नुकसान उठाना अब मजबूरी नहीं रही. न ही फिर से पहिया ईजाद करने की जरूरत है.

इसी तार्किकता के साथ भारतीय कानून बनाए गए हैं. दुर्भाग्य से इसके लिए सबसे अहम भूमिका निभाने वाली राज्य व्यवस्था विकास के गुणा गणित में निरंतरता को नज़रअंदाज़ करती है. क्योंकि व्यावसायिक मुनाफे बढ़ाने की मानसिकता पर अंकुश लगाने पर ही निरंतरता संभव हो पायेगी. जबकि पूरी जानकारी के बावजूद जानबूझ कर, गुज़रे वक्त के हिसाब से पैमाने तय करने के पीछे तीसरी दुनिया की सबसे निचली सोच और समझ दिखाई देती है.

बाकी दुनिया का नज़रिया इससे एकदम अलहदा है. निरंतरता विकास में कतई बाधक नहीं है. दोनों का वजूद एक साथ ही है, दोनों के लिए नई तकनीक और गहरी समझ जरूरी होती हैं. ऐसे में झूठे विकास की डरावनी कीमत अदा करना नागरिकों के लिए जरूरी नहीं है.

लेकिन हम पहले से ही भारत में ये कीमत चुका रहे हैं और आगे भी चुकाते रहेंगे, क्योंकि राज्य व्यवस्था निरंतरता को विकास विरोधी मानती है.

अपशिष्ट- दूसरी पसंद, बेमेल और गैरकानूनी एफएआर

किफायत के नाम पर दफ्तर के लिए आठ गुना ज्यादा जगह में दफ्तर बनाने के पीछे सरकार की यही सोच झलकती है. यही वजह है कि एफएआर यानी फ्लोर एरिया रेश्यो के एक-एक इंच इस्तेमाल करने पर जोर दिया जा रहा है.

इसलिए 4.58 लाख स्क्वायर मीटर के बिल्ट अप एरिया को तोड़कर 17.02 लाख स्क्वायर मीटर निर्माण किया जाएगा. केंद्रीय लोक कल्याण विभाग की पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट और पर्यावरण प्रबंधन योजना की नीचे दी गई सारिणी से यही साबित होता है कि एफएआर बढ़ाने के अलावा ज्यादा जगह के इस्तेमाल के पीछे कोई और तर्क नहीं है.

सीपीडब्ल्यूडी द्वारा जारी ईआईए/ईएमपी
The EIA/EMP issued by the CPWD.

लेकिन ये गैरकानूनी भी है.

एफएआर प्लॉट पर बनाए गए क्षेत्र का प्रतिशत में व्यक्त किया जाने वाला अनुपात है. फ्लोर स्पेस इंडेक्स, या एफएसआई के भी यही मायने हैं, लेकिन वह एक कारक के रूप में व्यक्त किया गया गुणक सूचकांक है. दोनों ही बनाई गई जगह के अनुपात को दर्शाते हैं.

2001 में बने “मास्टर प्लान दिल्ली 2021” में एफएआर को सरकारी इमारतों के लिए 200(2 का एफएसआई) तक सीमित कर दिया गया था. यानी कि मास्टर प्लान के मुताबिक प्लॉट के आकार से बिल्ट अप एरिया दो गुना हो सकता है. लेकिन 2016 में, सेंट्रल विस्टा वाले ज़ोन डी को छोड़कर, पूरे क्षेत्र के लिए 300 एफएआर कर दिया गया, ज़ोन डी को खास तौर पर 200 एफएसआई तक ही सीमित रखा गया. नीचे तस्वीर देखें.

आर्किटेक्ट पटेल ने खुद हाल ही में कहा था कि सभी निर्माण एफएआर नियमों के तहत किए गए हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि ये इमारतें कानून के हिसाब से नहीं बनी हैं. एफएसआई के मुताबिक इस पर निर्माण किया गया है. अगर यही एक निजी प्लॉट होता, तो आपको इस भवन की अनुमति देनी होती, ये तो सरकारी प्लॉट है, फिर क्यों नहीं.

लेकिन जैसा कि प्रेम चंदावरकर जैसे वरिष्ठ वास्तुकार कई मौकों पर कह कह चुके हैं, नंबर झूठ नहीं बोलते हैं. (तालिका 1 और 2 देखें) जैसा कि भवनों के केवल एक सेट से ही जाहिर है, - कॉमन सेंट्रल सेक्रेटेरिएट (सीसीएस) 1, 2 और 3, जिन्हें आईजीएनसीए प्लॉट पर बनाया जाना है.

टेबल- माधव रमन, लोकपथ

ए) सीसीएस 1,2 और 3 का प्लॉट क्षेत्र सचिवालय भवनों का पहला सेट (आईजीएनसीए प्लॉट पर) तालिका 1 में 1,05,562.3 वर्गमीटर है.

बी) प्लॉट पर वैध एफएआर 2 है.

सी) बढ़ाया गया वास्तविक एफएआर 2 है.

डी) तालिका 1 में केवल इसी प्लॉट का बेसमेंट क्षेत्र 1,43,300 वर्गमीटर है.

ई) तालिका 2 में उसी प्लॉट (बेसमेंट सहित) का कुल निर्मित क्षेत्र 4,52,500 वर्गमीटर है.

एफएआर का फार्मूला: कुल निर्मित क्षेत्र-बेसमेंट एरिया/ प्लॉट का क्षेत्रफल या ई-डी/ ए यानी आंकड़ों के मुताबिक

4,52,500-1,43,300/ 1,05,562.3 = 2.93

यह लगभग 300 का एफएआर है (या 3 का एफएसआई) जो तालिका 1 में वैध सीमा से 50 फीसदी से ज्यादा होने की वजह से पूरी तरह से गैरकानूनी है.

ये वो संख्या है, जो वर्तमान में लागू है, इसे ईआईए/ईएमपी टेबल में प्रतिशत में दर्ज वैध एफएआर 2 बताया गया है.

लेकिन रिपोर्ट में बढ़ाई गई एक्चुअल एफएआर भी 2 लिखी गई है हालांकि असलियत में यह 3 है! (सी देखें)

इमारतों की ऊंचाई को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं. एफएआर 200/ या 2 के एफएसआई के साथ मौजूदा इमारतों से ज्यादा ऊंचाई नहीं रखी जा सकती है.

हालांकि एफएआर 300/ 3 के एफएसआई के साथ इमारतों को इंडिया गेट के बराबर ऊंचा बनाया जा सकता है. इसी वजह से मौजूदा भवनों से तीन मंजिल ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने की योजना है, जिससे संरक्षित की गई स्काईलाइन बाधित हो जाएगी.

देखें तस्वीर.

बैंगनी रंग नई इमारतों के खिलाफ सेट की गई मौजूदा इमारतों की ऊंचाई दर्शाता करता है

ये आसानी से समझा जा सकता है कि अगले साल जब प्रोजेक्ट पूरा होगा, तब तक सरकार नियमों में रद्दोबदल कर देगी. ये भी तय है कि सरकार के पास इस बदलाव के लिए असीमित अधिकार भी हैं. क्या यही वजह है कि पटेल इस निर्माण को जायज ठहरा रहे हैं, और उन्हें पक्का भरोसा है कि जल्द ही ये वैध भी हो जाएगा.

लेकिन मुद्दा यह है कि इसकी योजना को कानूनी रूप से 'पास' कर दिया गया है, जबकि यह पूरी तरह से गैरकानूनी तरीके से बनाया जा रहा है. चूंकि इस पर निगरानी के लिए कोई संस्था नहीं है, इसलिए यह निर्माण एक दिन किसी भी तरह 'कानूनी' भी हो जाएगा, क्योंकि कोई समिति या संस्था इस पर सवाल नहीं उठा सकती है.

यह बेहद गैर ज़रूरी निर्माण भी है. ऐसा लगता है कि असल जरूरत के मुताबिक फाइनल डिजाइन बनाई ही नहीं गई. इसमें ज्यादा से ज्यादा जगह पर निर्माण की हवस दिखाई देती है, जो तर्क की कसौटी के कतई अनुरूप नहीं है.

अगर आंकड़ों को दूसरे नजरिए से देखें तो आर्किटेक्ट ने बार-बार ज़ोर देकर कहा है कि सेंट्रल विस्टा में कर्मचारियों की तादाद में कोई बदलाव नहीं होगा. सेंट्रल विस्टा के दफ्तरों में फिलहाल 54,800 कर्मचारी काम करते हैं. जिनके लिए तोड़ी जाने वाली मौजूदा 18 इमारतों और खाली कराए जाने वाले नॉर्थ और साउथ ब्लॉक को जोड़कर 6.25 लाख स्क्वायर मीटर जगह में दफ्तर बनाए गए थे. इस हिसाब से यह निर्माण लगभग 11 वर्गमीटर प्रति कर्मचारी के अनुपात में है

मान भी लिया जाए कि मौजूदा दफ्तर बहुत बेतरतीब हैं और उन्हें आधुनिक बनाने की जरूरत भी है, जगह के हिसाब से ये ज्यादा बेहतर तरीका भी है. 54,800 कर्मचारियों के लिए इन इमारतों में पर्याप्त जगह भी है, जिसे बगैर बहुत तोड़फोड़ के और बर्बाद किए बगैर भी बेहतरीन तरीके से सजाया-संवारा जा सकता है.

नए सचिवालय में अब यही जगह तीन गुना बढ़कर 17.02 लाख वर्गमीटर हो जाएगी. इन्हीं 54,800 लोगों के लिए अब जगह का अनुपात बढ़ कर प्रति व्यक्ति 31 वर्गमीटर हो जाएगा. (नीचे दी गई तालिका देखें)

लेकिन ये समझ से बाहर है कि इतने ही कर्मचारियों को उसी काम के लिए तीन गुना ज्यादा जगह की जरूरत आखिर क्यों है? इतनी जगह तो किसी भी आदर्श कार्यालय की जगह से भी कहीं बहुत ज्यादा है, आर्किटेक्ट आमतौर पर प्रति व्यक्ति जगह का आदर्श अनुपात 10-12 वर्गमीटर मानते हैं. भले ही हम आधुनिक सुविधाओं से लैस नई इमारत में कांफ्रेंस हॉल, जिम, कैफे, योग और संगीत कक्ष वगैरह बनाएं तो भी इतनी सारी जगह घेरना कतई वाजिब नहीं है.

जरूरी सुविधाओं के इस्तेमाल के लिहाज से भी ये फिज़ूलखर्ची ही है. इससे बिजली की खपत तीन गुना और चार गुना ज्यादा पानी की जरूरत पड़ेगी. नीचे देखें.

तीसरी पसंद- स्थायी संसाधन की हानि

यह गैरजरूरी निर्माण राजपथ लॉन में भी झलकता है, जिसमें ग्रेड-1 हेरिटेज जोन के तहत संरक्षित होने के बावजूद लैम्प पोस्ट से लेकर स्काईलाइन से लेकर नहरों और लॉन वगैरह, हर चीज से बड़े पैमाने पर दखलंदाजी की गई है. कानून के मुताबिक जरूरी ईआईए यानी पर्यावरण पर प्रभाव का आकलन नहीं किया गया है, न ही ग्रेड-1 हेरिटेज जोन के लान्स में बदलाव के लिए कानूनी मंजूरी ली गई.

फिर भी, डिजाइन फर्म एचसीपी कंसल्टेंट्स ने हाल ही में अपने प्रचार अभियान में 'आफ्टर' ग्राफिक्स के जरिए हरे भरे लॉन, साफ-सुथरे रास्ते, तरतीब से बनी पार्किंग, कतार में लगे पेड़ वगैरह दिखाए हैं. कहा जा रहा है कि शौचालय समेत जन सुविधाओं के लिए केवल 100-110 पेड़ हटाए जाएंगे. इसे लोगों की जरूरतों को पूरा करने की मामूली कीमत बताया जा रहा है. जिससे लंबे वक्त से उजाड़ पड़े सार्वजनिक स्थान की अहमियत बढ़ जाएगी.

गैर ज़रूरी निर्माण की एक कीमत चुकानी होती है. इस मामले में देखा जाए तो वो कुदरती तरतीब हमेशा के लिए मिट जाएगी, जिनकी वजह से ये जगह खुली-खुली, हरी-भरी बनी हुई है.

नए डिजाइन में गैरज़रूरी तरीके से बहुत सी नई चीजें बेवजह जोड़ी और बढ़ाई गई हैं. सड़कों के किनारे फर्नीचर, राजपथ के साथ पक्की सड़कें, घास के बीच से पक्की पगडंडियां और पक्के रास्तों के साथ लंबी-चौड़ी पार्किंग बनाई जा रही है. आइसक्रीम वालों के जाने के बाद ये लॉन पहले जैसा हो जाता था. अब उस पुराने इंतजाम के बजाय विक्रेताओं के लिए एक स्थाई जगह का निर्माण होगा. शौचालय, सबवे, एक सीढ़ीदार बगीचे और लॉन के ऊपरी हिस्से पर एक पक्का मंच भी बनाया जाएगा.

कई वास्तुकारों और संरक्षणवादियों ने सार्वजनिक सुविधाओं के नाम पर लॉन में कंक्रीट से निर्माण पर चिंता जाहिर की है. उनका मानना है कि इससे बारिश के पानी के प्रवाह और वाटर रिचार्ज पैटर्न पर स्थायी रूप से बुरा असर पड़ सकता है.

आर्किटेक्ट पटेल इन आशंकाओं को गलत बताते हैं. उनका दावा है कि लॉन में "ज़रा सा" ही पक्का निर्माण है. उनका कहना है कि "इससे ज्यादा पानी का जमीन में रिसाव होता है, जो एक किलोमीटर दूर नदी में सीधे चला जाएगा. तो एक मायने में, यह वॉटर हॉर्वेस्टिंग है… अगर आप चाहें तो ये भी कह सकते हैं."

लेकिन उनकी झिझक से साफ है कि वह खुद भी ऐसा नहीं सोचते- क्योंकि जो हो रहा है वो असलियत से कोसों दूर है.

जबकि ऊपरी तौर पर तो 105 एकड़ लॉन को पहले की तरह 'संरक्षित' किया जाएगा और आवाम की सहूलियत के मद्देनजर इसका “विकास” किया जाएगा, लेकिन असलियत यह है कि गैर ज़िम्मेदाराना तरीके से 60 फीसदी लॉन को कंक्रीट और पत्थर से ढका जाएगा. जो दिल्ली के बीचोंबीच इस ज़ोन की वाटर इकोलॉजी को धता बताने जैसा है. जिसके कारण यमुना से पानी के कुदरती बहाव पर असर पड़ना तय है.

आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं-

मौजूदा राजपथ लॉन में पानी का पूरी तरह रिसाव होता है. इसे पहले कुल 105.06 एकड़ में, चार आयताकार ब्लॉक और दो त्रिकोण के रूप में बनाया गया था. लॉन के बीच से गुजर रही ईंटों की बनी नहरें कुल 18.32 एकड़ में फैली हुई हैं.

इसलिए पूर्ण जल रिसाव के लिए उपयुक्त हरियाली वाला क्षेत्र 86.74 एकड़ (105.6- 18.32 एकड़) है, जो अब काफी बदल जाएगा.

आलम ये है कि अब लॉन की एक तिहाई जगह यानी 35.02 एकड़ पार्किंग घेर लेगी. यह 1,364 कारों और 40 बसों के लिए काफी जगह है! लेकिन सुविधाएं बढ़ा कर पार्किंग को प्रोत्साहित करने का ये कदम, सरकार की सड़कों पर कारें कम करने, पार्किंग को हतोत्साहित करने और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने की घोषित नीति के खिलाफ है. इसके अलावा, दुनिया में कहीं भी पब्लिक पार्क में पार्किंग के लिए इतनी बड़ी जगह नहीं रखी जाती है, क्योंकि ये बेमायने है. कोई भी नहीं चाहता है कि सैलानियों की बसों की आवाजाही से ये खूबसूरत जगह, एक भीड़भाड़ वाले बस अड्डे की तरह हो जाए- बल्कि, यह सभी के लिए एक खुली जगह होनी चाहिए, जिसका लोग अपने अपने तरीके और अपने-अपने अंदाज से लुत्फ उठा सकें.

अगला मुद्दा लॉन पर पक्के फर्श के निर्माण से जुड़ा है. आर्किटेक्ट माधव रमन सटीक माप लेकर कैलकुलेशन करते हैं. उनके मुताबिक मुख्य सड़क के दोनों ओर डाली गई पुरानी लालबजरी वाली पट्टी पूरी तरह से पक्की बनाई जाएगी. गूगल अर्थ की तस्वीरों से पता चलता है कि इनकी चौड़ाई 4.8 मीटर रखी गई है, जो गणतंत्र दिवस परेड के दौरान राष्ट्रपति के अंगरक्षक दस्ते के चार घोड़ों के चलने लिए काफी है.

पीली रेखा घोड़े के पथ की चौड़ाई दर्शाती है

इतना ही नहीं, लॉन के दोनों किनारों पर लगभग 2.5 मीटर चौड़ाई वाला कंक्रीट का वॉकवे भी बनाया जाएगा. इसमें लॉन के बीच से गुज़रने वाले रास्ते भी शामिल हैं, जो ग्रेड-1 जोन के लिए तय हेरिटेज रूल्स के खिलाफ जा कर चार खंडों में लॉन को बांटते हैं. इनकी चौड़ाई को लंबाई से गुणा करें और पक्के बनाए गए पैदल मार्ग और घोड़ों के रास्ते को जोड़ें तो ये कुल 14.53 एकड़ जगह घेरते हैं.

अंत में, राजपथ में लॉन के 1.5 किमी के दायरे में बने सार्वजनिक शौचालयों के आठ सेट होंगे. दो पहले से ही विजय चौक पर मौजूद हैं और दो इंडिया गेट लॉन पर प्रस्तावित हैं. तो, सेंट्रल विस्टा के विजय चौक से इंडिया गेट लॉन तक, 2.25 किमी और 105 एकड़ के पूरे इलाके में 12 शौचालय परिसर उपलब्ध कराए जाएंगे.

इसके मुकाबले लंदन के हाइड पार्क के 350 एकड़ में सिर्फ तीन सार्वजनिक शौचालय हैं. न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में 843 एकड़ में 13 स्थाई सार्वजनिक शौचालय हैं- उनमें से भी ज्यादातर पार्क से जुड़ी इमारतों जैसे चिड़ियाघर, थिएटर, झील के किनारे रेस्तरां और छत वगैरह से बाबस्ता हैं.

रमन कहते हैं, "पिछले कुछ सालों में, एनडीएमसी ने इंडिया गेट के आसपास कई जन सुविधाएं बनाई हैं. ये सोच समझ कर ही दूर-दूर रखी गई हैं. बारह जन सुविधाएं गैर जरूरी हैं. इससे इस धरोहर की खूबसूरती पर असर पड़ता है. लोग यहां जनसुविधा के लिए नहीं, बल्कि इस हरियाली के लिए आते हैं जिसे आपने बेहद कम कर दिया है!"

वह एक खाका खींच कर बताते हैं कि वास्तविक योजना पर कंक्रीट के निर्माण से कितना बुरा असर पड़ा है.

राजपथ के लॉन पर पक्के क्षेत्रों को दर्शाने वाला लाल और पीला नक्शा

पीले रंग की चिह्नित पार्किंग और पक्के रास्तों से कंक्रीट निर्मित क्षेत्र में 49.55 एकड़ की और बढ़ोत्तरी हो जाती है, यह लॉन के हरियाली वाले इलाके (86.74 एकड़) का लगभग 53 फीसदी है.

वहीं, अगर लाल रंग की जगह (बेचने वालों की जगह, शौचालय, कला प्रदर्शन का मंच) को भी जोड़ें तो लॉन का ये कंक्रीटीकरण लगभग 60-70 प्रतिशत तक पहुंच सकता है. जबकि मूल योजना में इनमें से कुछ भी नहीं था.

वहीं, सचिवालय की 11 इमारतें ऐसी हैं जिनमें दो मंजिल गहरे बेसमेंट हैं. एक भूमिगत रेल से कवर किया जाने वाला ये सेंट्रल विस्टा क्षेत्र पारंपरिक रूप से दिल्ली का ये वो अहम वाटरशेड इलाका है जो रिज एरिया को यमुना से जोड़ता है.

वास्तुकार नारायण मूर्ति कहते हैं, "यह एक निरंतर भूमिगत बांध की तरह होने जा रहा है. भूगर्भीय जल इसके ऊपर और नीचे बहता है. यदि आपके पास 5.5 लाख वर्गमीटर कठोर आरसीसी का कंक्रीट से बना बेसमेंट है और उसे जोड़ने वाली एक विशेष भूमिगत रेल है. साथ ही आप लॉन के 60 फीसदी हिस्से पर जरूरत से ज्यादा क्रंक्रीट के बुनियादी ढांचे और पार्किंग का निर्माण कर रहे हैं तो इससे पानी का रिसाव तुरंत रुक जाएगा और बहाव के सभी रास्ते बंद हो जाएंगे, ऐसे में ग्राउंड वाटर रिचार्ज और बारिश के पानी के प्रवाह के ढांचे पर पड़ने वाले असर की कल्पना करना भी मुश्किल है. आप इसे किसी भी पैमाने पर जायज नहीं ठहरा सकते."

लेकिन सरकार फिर भी इसे सही ठहराने में जुटी हुई है.

सेंट्रल विस्टा एवेन्यू के पुनर्विकास को मिली पर्यावरण मंजूरी पर सांसद जवाहर सरकार ने संसद में सीधा सवाल पूछा था. जवाब में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का कहना था, "आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय और सीपीडब्ल्यूडी द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार, सेंट्रल विस्टा एवेन्यू के पुनर्विकास के लिए किसी विशेष पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रस्तावित कुल निर्मित क्षेत्र 20,000 वर्ग मीटर से कम है."

लेकिन यह केवल अर्धसत्य है. पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम नियम के मुताबिक 1,50,000 वर्गमीटर से ज्यादा और 3,00,000 वर्गमीटर से कम या फिर 50 हेक्टेयर से अधिक के क्षेत्र को कवर करने वाली परियोजना के लिए पर्यावरण संबंधी मंजूरी लेना जरूरी है.

जबकि असलियत यह है कि सेंट्रल विस्टा एवेन्यू परियोजना 80 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में विकसित की जा रही है. नीचे देखें तस्वीर

(सहयोग-माधव रमन, लोकपथ)

(अनुवाद: अंशुमान त्रिपाठी)

अगला अंक: भाग- चार सेंट्रल विस्टा की विरासत की कीमत? यह सौंदर्यशास्त्र का मुद्दा नहीं, बल्कि कानूनी पहलुओं से जुड़ा सवाल.

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

Also Read: सारांश: सेंट्रल विस्टा के निर्माण में हो रही गड़बड़ियां

Also Read: सेंट्रल विस्टा: आखिर विश्वस्तरीय निर्माण कितना 'विश्वस्तरीय' है?