Opinion

लिलिपुटियन नेताओं के दौर में विदेश-नीति की कारीगरी

बीमार का हाल कैसा है, यह नब्ज़ बता देती है; किसी देश का हाल कैसा है, यह उसकी विदेश-नीति बता देती है. ऐसा इसलिए है कि विदेश-नीति असल में किसी भी देश की आंतरिक स्थिति का आईना होती है. इसे हम अपने देश के संदर्भ में अच्छी तरह समझ सकते हैं.

हमारी आंतरिक सच्चाई यह है कि हम एक चुनाव से दूसरा चुनाव जीतने की चालों-कुचालों से अलग, हम कुछ कर, कह और सोच नहीं रहे हैं. गले लगने-लगाने, झूला झुलाने और गंगा आरती दिखाने को विदेश-नीति समझने का भ्रम जब से टूटा है, एक ऐसी दिशाहीनता ने हमें जकड़ लिया है जैसी दिशाहीनता पहले कभी न थी.

करीब-करीब सारी दुनिया में ऐसा ही आलम है. गुलिवर को तो पता नहीं कहां लिलिपुट और लिलिपुटियन मिले थे, हमें हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर वैसे ही बौनों का दौर दिखाई देता है. ऐसा इसलिए है कि नई नीतियां, नए सपने, नई उमंग तभी बनती-उभरती हैं जब कोई वैकल्पिक दर्शन आपको प्रेरित करता है. जब सत्ता ही एकमात्र दर्शन हो तब सत्य और साहस के पांव रखने की जगह कहां बचती है? अमेरिका में आज कोई ट्रंप नहीं है. इसलिए हास्यास्पद मूर्खताओं व अंतरराष्ट्रीय शर्म का दौर थमा-सा लगता है. लेकिन क्या कोई अमेरिकी अध्येता कह सकता है कि बाइडन ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक भी ऐसी पहल की है कि जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की नई छवि गढ़ती हो?

अफगानिस्तान की उनकी अर्थहीन पहल चौतरफा पराजय की ऐसी कहानी है जिसे विफल राजनीतिक निर्णयों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाना चाहिए. अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय हैसियत दरअसल उसकी आर्थिक शक्ति की प्रतिच्छाया थी. वह आर्थिक शक्ति चूकी तो अमेरिका की हैसियत भी टूटी! बाइडन के पास इन दोनों मोर्चों पर अमेरिका को फिर से खड़ा कर सकने का न साहस है, न सपना. कभी महात्मा गांधी ने इसकी तरफ इशारा करते हुए कहा भी था कि जब तक पूंजी के पीछे की पागल दौड़ से अमेरिका बाहर नहीं आता है, तब तक मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं है.

ऐसा ही हाल है रूस और चीन का भी है. रूस के 69 वर्षीय राष्ट्रपति व्लादिमीर व्लादिमीरोविच पुतिन कभी भी रूस के सामाजिक या राजनेता नहीं रहे. वे रहे तो बस 16 लंबे सालों तक रूस की खुफिया सेवा की नौकरी में रहे. सोवियत संघ के बिखरने के बाद जो उथल-पुथल मची, उसके परिणामस्वरूप कई हाथों से गुजरती हुई रूस की सत्ता पुतिन के हाथ लगी; और तब से ही हाथ लगी सत्ता को हाथ से न जाने देने की चालबाजियां ही पुतिन की राजनीति है.

2012 से अब तक रूस की तरफ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई भी ऐसा हस्तक्षेप नहीं हुआ है जिससे विचार व आचार का कोई नया दरवाजा खुलता हो. वे खुफियागिरी के अपने अनुभव का इस्तेमाल कर, अपनी राजनीतिक हैसियत इतनी पुख्ता बना लेने में लगे हैं कि वह अंतिम सांस तक उनका साथ दे. वे संसार के सबसे धनी राष्ट्रप्रमुखों में एक हैं उनके रूस में जातीय व भाषाई दमन का जैसा जोर है, वह साम्यवाद के हर मूल्य का दमन करता जाता है.

चीन के शी जिनपिंग पुतिन के छोटे संस्करण हैं हालांकि उनके पांव में पुतिन से बड़ा जूता है. 68 वर्षीय जिनपिंग 2012 में करीब-करीब उसी समय चीन की सत्ता में आए, जब पुतिन रूस में आए. उनकी राजनीति का आधार भी पुतिन की तरह ही सत्ता आजीवन अपने हाथ में रखना है लेकिन जिनपिंग की हैसियत इसलिए पुतिन से बड़ी हो जाती है कि वे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक व फौजी सत्ता के मालिक हैं. वे रूस को नहीं, अमेरिका व भारत को चुनौती देते हैं. अमेरिका को सामने कर भारत भी चीन को चुनौती देने की नादानी करता है जिसे जिनपिंग बच्चे की चुहल मान कर दरकिनार करते जाते हैं. लेकिन सभी जानते हैं कि बिल्ली चूहों की नादानी की अनदेखी कभी भले कर देती हो, चूहों की हरकतों को भूलती नहीं है.

इसलिए हमारी व्यापक विदेश-नीति की कसौटी चीन ही है. इसलिए स्वाभाविक ही है कि एशिया उपमहाद्वीप के तमाम छोटे मुल्क यही देखने व भांपने में रहते हैं कि भारत चीन से कब, कहां और कैसे-कैसे निबटता है. यह हैरानी की बात नहीं है कि भारत के प्रधानमंत्री की तरह ही जिनपिंग भी लगातार विदेश-दौरों पर रहते हैं लेकिन दोनों के विदेश-दौरों में एक बड़ा फर्क है. कोविड की बंदिश की बात छोड़ दें तो 2012 से अब तक जिनपिंग अपने 42 विदेशी-दौरों में जिन 69 देशों में गए हैं, उनमें सबसे बड़ी संख्या एशिया-अफ्रीका आदि के छोटे देशों की है. तीन बार तो वे भारत ही आ चुके हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक 113 विदेशी दौरों में 62 देशों में गए हैं जिनमें सात बार अमेरिका तथा पांच बार चीन, फ्रांस, रूस का दौरा है. पीएम मोदी की यात्रा में जो छोटे देश आए हैं वे भारत-चीन के मामले में कोई खास महत्व नहीं रखते हैं.

श्रीलंका में चीन का प्रवेश जिस तरह हो रहा है, वह भारत को सावधान करता है. राजधानी कोलंबो से लग कर ही चीन एक नया सिंगापुर या दुबई बसा रहा है. श्रीलंका इसे अपने लिए अपरिमित संभावनाओं का द्वार खोलने वाला प्रोजेक्ट मान रहा है. भारत को इसका जवाब आर्थिक स्तर पर नहीं, राजनीतिक स्तर पर देना चाहिए. लेकिन ऐसा कोई जवाब दिखाई या सुनाई तो नहीं दे रहा है. चीन के इशारे व खुले समर्थन से शू ची की लोकतांत्रिक सरकार की जैसी बिरयानी म्यांमार की फौजी सत्ता ने बनाई और वहां का सारा लोकतांत्रिक प्रतिरोध फौजी बूटों तले रौंद डाला, उसका जवाब भारत कैसे देता है, यह देखने वाले एशियाई मुल्क हैरान व निराश ही हुए हैं.

बांग्लादेश संघर्ष के समय जयप्रकाश नारायण ने भारत की विदेश-नीति में एक नैतिक हस्तक्षेप करते हुए, उसे एक कालजयी आधार दिया था कि लोकतंत्र का दमन किसी देश का आंतरिक मामला नहीं है. इस आधार पर म्यांमार के मामले में भारत की घिघियाती चुप्पी उसे चीन के समक्ष घुटने टेकती दिखाती है. भारत की डिप्लोमेसी का कोई अध्येता जब आज से सालों बाद यह प्रकरण खोज निकालेगा तो वही नहीं, पूरा भारत शर्मिंदा होगा कि इस पूरे प्रकरण में भारत ने इतना साहस भी नहीं दिखाया कि अपराध को अपराध कहे और अंतरराष्ट्रीय दवाब खड़ा करने की मुखर कोशिश करे. और जब सवाल हांगकांग का आएगा तब भी और जब ताइवान का आएगा तब भी, भारत की भूमिका कहां और कैसे खोजी जाएगी?

चीन का विस्तारवादी रवैया हांगकांग को भी और ताइवान को भी अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहता है. हांगकांग का मामला तो एक उपनिवेश से छूट कर दूसरे उपनिवेश का जुआ ढोने जैसा है. यदि इग्लैंड में थोड़ी भी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना होती तो वह 1842 की नानकिंग जैसी प्राचीन व अनैतिक संधि की आड़ में हांगकांग को चीन को सौंप नहीं देता बल्कि कोई ऐसा रास्ता निकालता (जनमत संग्रह!) कि जिससे हांगकांग की लोकतांत्रिक चेतना को जागृत व संगठित होने का मौका मिलता. लेकिन खुद को लोकतंत्र की मां कहने का दावा करने वाले इंग्लैंड ने भारत विभाजन के वक्त 1946-47 में जैसा गंदा खेल खेला था, उसने वैसा ही गंदा खेल 1997 में खेला और हांगकांग को चीन के भरोसे छोड़ दिया. भारत ने तब भी इस राजनीतिक अनैतिकता के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई और अब भी नहीं जब दमन-हत्या व कानूनी अनैतिकता के रास्ते चीन हांगकांग को निगल जाने में लगा है.

ताइवान के बारे में ऐसा माहौल बनाया गया है मानो वह तो चीन का ही हिस्सा था. यह सच नहीं है. ताइवान में जिस जनजाति के लोग रहते थे उनका चीन से कोई नाता नहीं था. लेकिन डच उपनिवेशवादियों ने ताइवान पर कब्जा किया और अपनी सुविधा के लिए वहां चीनी मजदूरों को बड़ी संख्या में ला बसाया. यह करीब-करीब वैसा ही था जैसा बाद में तिब्बत के साथ हुआ. ताइवान ने 1949 में चीन से खूनी गृहयुद्ध के बाद अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम किया और धीरे-धीरे एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में अपनी जगह बनाई. अब चीन उसे उसी तरह लील लेना चाहता है जिस तरह उसने तिब्बत को लील लिया है. साम्राज्यवाद की भूख दानवी होती है. हांगकांग और ताइवान दोनों ही साम्राज्यवाद का दंश भुगत रहे हैं. फिर भारत चुप क्यों है?

क्या उसे ताइवान व हांगकांग के समर्थन में दुनिया भर में आवाज नहीं उठानी चाहिए ताकि इन देशों की मदद हो, और चीन को कायर चुप्पी की आड़ में अपना खेल खेलने का मौका न मिले ? आज भारतीय विदेश-नीति का केंद्र-बिंदु चीन को हाशिए पर धकेलते जाने का होना चाहिए न कि चीन की तरफ पीठ कर, उसे हमारी सीमा पर सैन्य-निर्माण का अवसर देने का होना चाहिए. बाजार ही जिनकी राजनीति-अर्थनीति का निर्धारण करता है उन्हें भी यह कौन समझाएगा कि कुछ मूल्य ऐसे भी होते हैं जिनकी खरीद-बिक्री नहीं होती है, नहीं होनी चाहिए? लेकिन ऐसा करने का नैतिक बल तभी आता है जब आप देश के भीतर भी ऐसे मूल्यों के प्रति जागरूक व प्रतिबद्ध हों.

भारत के राजनीतिक हित का संरक्षण और चीन को हर उपलब्ध मौकों पर शह देने की रणनीति आज की मांग है. इस दृष्टि से महत्वपूर्ण देशों के साथ संपर्क-संवाद की खासी कमी दिखाई देती है. विदेश-नीति गूंगे के गुड़ चुहलाने जैसी कला नहीं होती है. यह सपने देखने और बुनने की बारीक कसीदाकारी होती है.

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)

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