Year ender 2021
साहित्य प्रदक्षिणा: जो बीत कर भी नहीं बीता
उम्मीद के विपरीत, सन 2021 के दिन भी उजाड़ बने रहे और इन दिनों में साहित्य को भी अनगिनत चुनौतियां झेलनी पड़ीं. जब जान बचाने की मारामारी में समाज लगा हुआ हो तो सरस, सुंदर, कलात्मक साहित्य रचने की संभावनाएं घट जाती हैं. अलबत्ता जो एक नई बात हुई वह यह कि तात्कालिकता ने कथेतर विधा में बड़ा स्थान घेरा और पिछले साल की क्षति, दुख के अनजाने दौर, विस्थापन की त्रासदियों ने अनेक नए कथाकारों को अपनी बात कहने का स्पेस दिया और साहित्य की दुनिया पहले से भी अधिक यथार्थवादी हुई. विशुद्ध लेखकों से इतर पत्रकारों, फिल्मकारों एवं कॉरपोरेट से जुड़े लोगों ने भी इस सिलसिले में अपनी आवाज विभिन्न तरीकों से दर्ज की.
टीवी पत्रकारिता से जुड़े, फिल्ममेकर विनोद कापड़ी की किताब 1232 किमी द लांग जर्नी होम पहले अंग्रेजी में आयी फिर हिन्दी में अनूदित होकर बेहद चर्चित रही. यह बिहार के सात प्रवासी श्रमिकों की यात्रा का वर्णन करती है जो अपनी साइकिल पर चलकर अपने घर वापस लौटे. इसी तरह अनेक लघु कहानियां और कविताएं पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया के मंचों पर प्रकाशित हुईं जो कोरोना और एकाकीपन के दर्द से उपजीं. पत्रकार शिरीष खरे ने इसी तादात्म्य में एक देश बारह दुनिया लिखी जिसमें वंचित और पीड़ित समुदायों की सच्ची कहानियां न सिर्फ दर्ज हैं बल्कि उन्हें तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया कैसे परिदृश्य से ओझल रखता आया है, उसे भी प्रश्नांकित किया गया है.
अल्बेयर कामू का क्लैसिक उपन्यास प्लैग और जॉर्ज ऑरवेल की 1984 का पुनः प्रकाशन हुआ और उसका पाठकों द्वारा अभूतपूर्व स्वागत भी. यह हमारे समाज की मन स्थिति को ही दर्शाता है, जो इस अकेले पड़ते जा रहे मनुष्य की राजनैतिक, सामाजिक और आकस्मिक महामारी से उपजी त्रासदी से निपटने का हल खोज रही है. चिंतक, कवि, कथाकार अशोक पांडे की महत्वपूर्ण ताजा किताब, उसने गांधी को क्यों मारा साल खत्म होने तक 10,000 बिक्री का आंकड़ा पार कर चुकी है.
किताब के अनेक संस्करण इसी साल आए. किताब गांधी की हत्या को मौजूदा समय में सही ठहराने वालों के अप्रासंगिक तर्कों को खारिज करने से पहले तथ्यपरक पड़ताल करती है, हत्या के पीछे की साजिशों का पर्दाफाश करती है और उस वैचारिक षड्यन्त्र को भी खोलकर रख देती है जो अंततः गांधी हत्या का करण बना. आज के इस नफरती समय में यह किताब और इसे सराहने वाले पाठक यह उम्मीद जगाते हैं, कि वैकल्पिक सच (ऑल्टर्नेट ट्रुथ) का ढकोसला कैसे एक खास तरह की कट्टरवादी सोच से उपजा है और उसके खिलाफ आवाज उठाना कितना जरूरी है.
नंदकिशोर आचार्य की किताब, विद्रोही महात्मा और पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब, कौन हैं भारत माता भी लगातार उभर रहे वाट्सएपिया समानांतर ज्ञानकोष को चुनौती देती किताबें हैं जो इस साल आईं. राशिद किदवई की भारत के प्रधानमंत्री-देश दशा दिशा न सिर्फ भारत के प्रधानमंत्रियों पर परिचयात्मक किताब है बल्कि यह भारत के बनने की कहानी को सिलसिलेवार बयान भी करती है. देश आज जब अमृत महोत्सव मना रहा है तो उसके विकास की यात्रा पर छद्म की काई न चढ़ जाए यह किताब उस बाबात हमें चेताती है, और भविष्य के लिए सोचने को बाध्य करती है.
प्रेमचंद जैसे पुरोधा कथाकार पीढ़ियों बाद तक हमारे समकाल में आवाज क्यों बने रहते हैं और प्रेमचंद को क्यों पढ़ा जाना चाहिए जैसे प्रश्नों से हमारा सामना कराती अत्यंत चुस्त और पैनी किताब, यह प्रेमचंद हैं संवेदनशील साहित्यिक एक्टिविस्ट और आलोचक अपूर्वानन्द की कृति है जिसे श्रम और प्यार से लिखा गया है. अपूर्वानन्द पाठकों को प्रेमचंद को पढ़ने के लिए सकारात्मक भाव से उकसाते हैं, "यह भाषा वह नहीं लिख सकता जिसके लिए लिखना आनंद का जरिया न हो. वह समाज को दिशा दिखलाने के लिए, उपदेश देने के लिए, नीति निर्धारण करने के लिए नहीं लिखता है... यह जरूर है कि साहित्य वही उत्तम है जो मनुष्य को ऊंचा उठाता है"
इसी जज्बे से जुड़ युवा कथाकार, उपन्यासकार चंदन पांडे मॉब लिन्चिंग और लव जिहाद जैसे विषय अपने उपन्यास वैधानिक गल्प में 2020 में उठाते हैं जिसका 2021 में पुनः नया संस्करण आ जाता है. राहत होती है और इस बात की तस्दीक भी कि हिन्दी के ज्यादा पाठक, भ्रमों से आच्छादित इस समय में न सिर्फ सच को जानना चाहते हैं, पढ़ना चाहते हैं बल्कि उसे अपनाना भी चाहते हैं और चंदन जैसे लेखक इसे पूरी कमिट्मेंट से लिख रहे हैं. इसी के समानांतर अलका सरावगी का उपन्यास कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए बांग्लादेश से विस्थापित हिन्दुओं की कथा कहता है. रोहिंग्या, सीरियाई और इराकी विस्थापितों के दौर में यह उपन्यास एक नए समूह का दुख दर्द सामने लाता है और इस असहिष्णु समय में सभी को सहिष्णु होने की दृष्टि से संपृक्त करता है.
कथेतर और फिक्शन की विभाजक रेखा 21 में लगभग धूमिल हो गई दिखलाई पड़ती है और राकेश तिवारी का लिखा यात्रा वृतांत, अफगानिस्तान से खतो-खिताबत विधाओं की आवाजाही का नमूना बन पेश होता है. अफगानिस्तान में तालिबान के आगमन की पृष्ठभूमि में यह किताब भी इस साल की एक जरूरी किताब बन जाती है. उर्मिलेश के संस्मरणों की किताब, गाजीपुर में क्रिसटोफर कॉरवेल और बजरंग बिहारी तिवारी की लिखी केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य भी इस साल की महत्वपूर्ण किताबों में शामिल रहीं.
हिन्दी में अन्य भाषाओं की अनूदित रचनाओं को अनेक प्रकाशनों ने इस साल खूब छापा. पेरूमल मुरूगन की कई किताबें अंग्रेजी में और गायत्रीबाला पंडा अपनी कविता की किताब दया नदी से हिन्दी पाठकों के बीच खासी लोकप्रिय हुईं. यह साल आत्मवलोकन और आत्मसंघर्ष से भरा रहा और लेखकों ने अनेक प्रयोग किये. सिर्फ शिल्प और भाषा को लेकर नहीं बल्कि कथ्य को लेकर भी. इतिहास, समाज और स्थापित ढांचों को तोड़ती रूथ वनिता की किताब परियों के बीच जहां समलैंगिक रिश्तों की खूबसूरत कहानी है, वहीं आत्मकथ्यात्मक कथा जीते जी इलाहाबाद हिन्दी की वरिष्ठ एवं अत्यंत सम्मानित लेखक ममता कालिया द्वारा रची गई एक बेहद जीवंत कृति, जिसे पाठकों ने हाथों हाथ लिया और लगातार लेते जा रहे हैं. वहीं प्रत्येक्षा और मोहन राणा की किताब नैनों बीच नबी आई जिसने गद्य और पद्य की परंपरा को तोड़ा है.
प्रखर कथाकार प्रचंड प्रवीर के कल की बात शीर्षक किताबों ने कल्पना, सच और फंटासी का अद्भुत सम्मिश्रण पाठकों तक पहुंचाया जो कोरोना काल में राहत की बात थी. प्रकाश कान्त का कहानी संग्रह, बसंत का उजाड़ भी इस संदर्भ में विशिष्ट रहा. कवि यतीश कुमार का संग्रह, अंतस की खुरचन हर लिटरेचर फेस्टिवल में मौजूद रहा और युवा कथाकार सत्य व्यास की किताब 1984 चौरासी पर बनी वेब सीरीज, ग्रहण ने भी हर जगह लेखक के लिए एक पुख्ता स्थान तैयार किया, पाठकों ने जिसपर भर कर प्यार लुटाया. इस साल लोग फेस्टिवल्स में एक दूसरे से मिले और हिन्दी साहित्य के कलेवर में कुछ रौनक भरी. इस रौनक की अनुगूंज अगले साल की कृतियों में सुनाई पड़े ऐसा मनाया जाए.
हिन्दी की पहली आधुनिक कविता पाठ एवं पुनर्मूल्यांकन सुदीप्ति की गहरी अंतर्दृष्टि से रची गई किताब है, जिसे शोधार्थी और कविता प्रेमी जरूर पढ़ना चाहेंगे जिस तरह हमारे समय की तीक्ष्ण दृष्टि रखने वाली कवि, उपन्यासकार और आलोचक सुजाता की किताब आलोचना का स्त्री पक्ष- पद्धति, परंपरा और पाठ. दोनों किताबों का साहित्य संसार में व्यापक स्वागत हुआ है और यह देखना सुंदर है कि स्त्रियों की हिन्दी आलोचना और स्त्री मुक्तिकमी संघर्ष की यह यात्रा आज कैसे संभावना से भरी और सम्पन्न हो चुकी है.
इतिहास और मिथक की गड्डमड्ड से अनेक मिथकीय किरदारों की ऐतिहासिक किरदारों की तरह प्राण प्रतिष्ठा हुई, कुछ सफलतापूर्वक, कुछ बेहद लचर. बहुआयामी लेखक गीताश्री ने अपने उपन्यास राजनटनी को ऐतिहासिक संदर्भों में ही पेश किया वहीं कथाकार रजनी गुप्त ने, मैथली शरण गुप्त की आत्मकथा कि याद जो करें सभी को फिक्शन का तेवर दिया और खूब सराही गयीं. मैथिशरण गुप्त किताब में कहते हैं, "क्रांति सदैव बाधक घटनाओं के करण ही हुआ करती है." यह अपने समय को लांघता हुआ कथन है जो हर युग में समीचीन बना रहता है. इसी संदर्भ में किसान आंदोलन की याद हो आयी. इस घटना पर अनेक किताबें आईं जिनमें शुभम गुप्ता की किताब, राकेश सिंह टिकैत: किसान आंदोलन विविध परिदृश्य खूब पढ़ी गई.
हिन्दी के पाठकों की संख्या इस बंदिश के समय में बढ़ी, जो हौसले की बात रही. बिंज जैसे फोन एप्स ने नए ढंग से लेखकों को साहित्य से जोड़ा और उनके द्वारा दिए पाठकों के आंकड़े अत्यंत उत्साहवर्धक रहे. कविता, कहानी, उपन्यास सब इस वर्ष उस मंच पर शाया हुए और पाठकों का अभूतपूर्व प्यार बटोरा.
यह देखना दिलचस्प होगा कि अगला साल इस साल के ट्रेंड को बरकरार रखेगा और कथेतर विधाओं का बोलबाला बना रहेगा या नए शिल्प और कथ्य के साथ संभावनशील कथाकार हमारे समक्ष उपस्थित होंगे. दरअसल हम अभी भी डरे हुए हैं. कोरोना की निरंतर म्यूटेट करती प्रविधि से ही नहीं, अपने विचारों की अस्फुटता से, अपने समय के भ्रम से और तमाम तरह के अनर्गल प्रलापों से भी. इस भय से यदि लेखक पार पाए, अपनी आवाज को बुलंद रख पाए और अपने कथन को यदि कलात्मकता और गति दे पाए तो आने वाला नया साल हिन्दी साहित्य के लिए सचमुच शुभ होगा.
Also Read: 7 मजदूर, 7 दिन, 7 रात, विनोद कापड़ी के साथ
Also Read
-
Reporter’s diary: Assam is better off than 2014, but can’t say the same for its citizens
-
‘INDIA coalition set to come to power’: RJD’s Tejashwi Yadav on polls, campaign and ECI
-
TV Newsance 251: TV media’s silence on Revanna ‘sex abuse’ case, Modi’s News18 interview
-
Kutch: Struggle for water in ‘har ghar jal’ Gujarat, salt workers fight for livelihoods
-
Hafta 483: Prajwal Revanna controversy, Modi’s speeches, Bihar politics