Opinion
स्वतंत्र पत्रकारिता को मजबूत करने के लिए झूठ के वायरस से लड़ना होगा- मारिया रेसा
फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा को इस साल रूस के दिमित्री मुरातोव के साथ “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रक्षार्थ प्रयासों” के लिए नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया है. 58 वर्षीय रेसा खोजी पत्रकारिता करने वाली एक वेबसाइट रैपलर की सह-संस्थापक हैं. उनका अधिकांश काम फिलीपींस के राष्ट्रपति रोद्रिगो दुतेर्ते द्वारा ड्रग्स के खिलाफ चलाए जा रहे विवादास्पद और हिंसक अभियान पर केंद्रित है.
नोबेल कमेटी के अनुसार उन्होंने इस बात को विस्तार से दर्ज करने का काम किया है कि ”कैसे सोशल मीडिया का दुरुपयोग फर्जी खबरें फैलाने, विरोधियों को प्रताड़ित करने और सार्वजनिक विमर्श को विकृत करने में किया जा रहा है.”
रैपलर की शुरुआत 2012 में हुई थी. आज फेसबुक पर इसके 45 लाख से ज्यादा फॉलोवर हैं. अपनी मारक खोजी पत्रकारिता के लिए ये जाना जाता है और फिलीपींस के उन मुट्ठी भर मीडिया प्रतिष्ठानों में एक है जो दुतेर्ते और उनकी नीतियों की खुल कर आलोचना करते हैं.
रेसा के ऊपर कई कानूनी मुकदमे हैं. उनका कहना है कि ये सब केस राजनीति से प्रेरित हैं. इसमें पिछले साल हुआ मानहानि का एक केस भी है जिसमें उन्हें दोषी ठहराया जा चुका है. इस केस को व्यापक रूप से फिलीपींस में प्रेस की आजादी का पैमाना माना जाता है.
अल जजीरा को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने सोशल मीडिया के दौर में पत्रकारिता और शांति बहाली के बीच आपसी संबंधों पर चर्चा की है.
अल जजीरा- जब नोबेल पुरस्कार कमेटी ने आपको फोन कर के बताया कि इस साल की विजेता आप हैं, तो आपके मन में उस वक्त क्या आया?
रेसा- मैं तो चौंक गयी थी. मेरी आवाज में अब भी आपको इसका अहसास हो सकता है. उस वक्त मैं रैपलर और उसके साथ बीते वर्षों में हमारे अनुभव पर बन रही एक डॉक्यूमेंट्री अ थाउजेंड कट्स के लिए एक पैनल पर लाइव थी. उसी पैनल में मुझसे अचानक नोबेल पर मेरी प्रतिक्रिया पूछ दी गयी. मैं स्तंभित रह गयी और मुझे रोना आ गया था.
अब मैं बहुत विनम्रतापूर्वक इस सम्मान को स्वीकार करते हुए शुक्रगुज़ार हूं कि पत्रकारों की ओर आखिरकार ध्यान तो गया. कमेटी का यह फैसला इस बात को प्रकाशित करता है कि पत्रकार हमले का शिकार हो रहे हैं. शायद हमारा भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि हम अपने काम को कितना बखूबी अंजाम देते हैं.
अल जजीरा- आपके हिसाब से क्या यह पुरस्कार आपकी पत्रकारिता पर कोई टिप्पणी है? आप ही के शब्दों को उधार लेकर कहें, तो आपकी पत्रकारिता को इस “ग्लोबल ईकोसिस्टम” ने कैसे बरता है, आपकी आवाज को कैसे गलत ढंग से समझा गया, कलंकित किया गया, गलत तरीके से उसकी व्याख्या की गयी और घुमा फिरा कर उसे आपके ही खिलाफ इस्तेमाल किया गया?
रेसा- फिलीपींस में हमारा जो अनुभव रहा है मेरे ख्याल से दुनिया भर में सभी का तजुर्बा ऐसा ही होगा. विचारों को नियंत्रित करने की अपनी ताकत के मामले में जब हमारे समाचार प्रतिष्ठानों ने प्रौद्योगिकीय मंचों के आगे घुटने टेके, तब उन मंचों ने भी लोकवृत्त के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया. इसी के कारण तथ्य बहसतलब हो गए क्योंकि ऐसे में तथ्य और झूठ को समान रूप से बरता जाने लगा.
दुनिया में समाचारों के सबसे बड़े वितरक फेसबुक का जो अलगोरिथम है वो वास्तव में आक्रोश और विद्वेष मिश्रित झूठ को तरजीह देता है क्योंकि उसकी चाल तथ्यों से तेज होती है. जब तथ्यों पर बहस होने लगे तो समझिए कि आपके पास न तो तथ्य बचा है, न सत्य और न ही भरोसा. ऐसी स्थिति में आप साझे यथार्थ के भागी नहीं बन सकते, आपके यहां लोकतंत्र नहीं बचेगा और फिर आप अस्तित्व से जुड़ी समस्याओं- जैसे जलवायु और कोरोना वायरस के साथ कोई सार्थक मानवीय संवाद भी नहीं कर पाएंगे.
कमेटी के फैसले बिलकुल यही रेखांकित किया है, कि हमें तथ्यों को अक्षुण्ण रखना होगा और जिन लोगों के कंधों पर तथ्यों को अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी है उनके समक्ष आज कहीं ज्यादा खतरे मौजूद हैं.
अल जजीरा- पत्रकार इसे कैसे दुरुस्त कर सकता है? फेसबुक और ट्विटर जैसे मंच जहां आपको अपने जैसी आवाजें ही सुनायी देती हैं, उसमें फंसे लोगों तक एक ईमानदार पत्रकार अपनी पहुंच कैसे बनाए? आप ऐसा कैसे करते हैं और इस सूरत को कैसे बदलते हैं?
रेसा- इन मोर्चों पर हम काफी काम करते हैं. सबसे पहले तो ऐसी कहानियां करना जो बिल्कुल साफ तौर से दिखा सकें कि यह घपला कैसे होता है और सोशल मीडिया कैसे हमारे व्यवहार को बदलने का एक तंत्र बन चुका है.
दूसरा तरीका है स्वतंत्र पत्रकारिता को मजबूत करना और प्रौद्योगिकी के लिए कानूनी नियमन की मांग करना. स्वतंत्र मीडिया को बचाए रखने के लिए हाल ही में मैंने दि न्यूयॉर्क टाइम्स के पूर्व सीईओ के साथ इंटरनेशनल फंड फॉर पब्लिक इंटरेस्ट मीडिया की सह-अध्यक्षता स्वीकार की है.
तीसरा स्तंभ है समुदाय. आपने भरोसे की बात की. यदि सूचना के समूचे तंत्र के भीतर झूठ का वायरस घुसा पड़ा हो और मंच को उसने दूषित कर डाला हो, तो भरोसे की बात आप कैसे कर पाएंगे. तो इससे निपटने का तरीका यह है कि आप ऐसे समुदायों को गढ़ना शुरू करिए जिनकी सोच लचीली हो. ऐसा करने की प्रक्रिया में हम यह सुनिश्चित करते हैं कि यह तथ्य आधारित और साक्ष्य आधारित तार्किकता के इर्द-गिर्द निर्मित हो ताकि हमारे सामने मौजूद समस्याओं को दूर करने में मदद दे सके.
अल जजीरा- जब आप कोई स्टोरी छापने का फैसला लेते हैं तो उस वक्त क्या खुद को एक शांति बहाली कार्यकर्ता के रूप में देख रहे होते हैं या महज एक पत्रकार के रूप में जो तथ्यों को सामने रख रहा है.
रेसा- दोनों एक अर्थ में समान भूमिकाएं ही हैं चूंकि दोनों ही तथ्यों पर आधारित हैं. आप शांति की स्थापना कैसे करते हैं? आपको दोनों पक्षों को किसी एक तथ्य पर राजी करना होता है. मसलन, आप कहें कि ये सोडा का कैन है तो दोनों पक्ष मान जाएं. आप अगर ऐसा कर पाए, तभी बंटवारे के जख्म को भर भी पाएंगे. फिलहाल तो स्थिति यह है कि सूचना-तंत्र समाज को बांटने का ही काम कर रहा है जिससे सत्ता को अपनी पकड़ और मजबूत करने में मदद मिल रही है.
अल जजीरा- क्या आपको लगता है कि आज नहीं तो कल लोगों को मिल बैठ कर बात करनी ही पड़ेगी?
रेसा- बिल्कुल, और यही सार्थक इंसानी कवायद कही जाएगी. यह दौर हिरोशिमा के बाद 1945 के जैसा है और हमें इसे वैसे ही बरतना भी होगा, कि अभी-अभी एक एटम बम फटा है और हमें मानवता को और बुरे काम करने से रोकना है.
उस वक्त ऐसी कवायदों से क्या निकला था? लोग साथ आए थे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ बनाया था, उन्होंने मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणापत्र का निर्माण किया था और मोटे तौर पर सहमत हुए थे कि यही हमारे जीने के सिद्धांत हैं. इसी के चलते हम इतने लंबे दौर तक अपेक्षाकृत अमन चैन से जी सके.
यही हमारी भूमिका है. हमारी भूमिका यह सुनिश्चित करने में है कि हमारे पास तथ्य हों और मेज पर बैठा हर शख्स इस पर बात कर सके ताकि समस्याओं को सुलझाया जा सके.
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
(साभार- जनपथ)
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